श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ )- Mystic Power -
यज्ञ का अर्थ है इच्छित वस्तु की प्राप्ति या उत्पादन के लिए किया गया कर्म (गीता, ३/१०) उत्पादित पदार्थ अन्न हैं, उसके लिए व्यवस्था पर्जन्य है-
यज्ञात् भवति पर्जन्यः, पर्जन्यात् अन्न सम्भवः (गीता,३/११-१२)
कृषि मूल यज्ञ है जिस पर अन्य यज्ञ आधारित हैं, इन यज्ञों के समन्वय से साध्य उन्नति के शिखर पर पहुंच कर देव बने-
यज्ञेन यज्ञं अयजन्त देवाः, तानि धर्माणि प्रथमानि आसन्। ते ह नाकं महिमानः सचन्तः, यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥ (पुरुष सूक्त, १६)
द्रव्य यज्ञ में कुछ उत्पादन दीखता है (लक्ष्मी), कुछ नहीं दीखता है (श्री)।
ज्ञान यज्ञ में पुस्तक विद्यालय, गुरु आदि दीखते हैं, उनसे प्रसारित ज्ञान नहीं दीखता। स्वाध्याय यज्ञ अपनी मानसिक उन्नति है, प्राणायाम आदि यज्ञों के अदृश्य अन्न या उत्पाद हैं। इनमें पर्जन्य का अर्थ वर्षा नहीं है, जनन योग्य परिस्थिति है। यजुर्वेद के प्रथम मन्त्र में आन्तरिक तथा बाह्य दोनों यज्ञों का उल्लेख है।
ॐ इ॒षे त्वो॑र्जे त्वा॑ वा॒यव॑ स्थ दे॒वो वः॑ सवि॒ता प्रार्प॑यतु आप्या॑यध्व मघ्न्या॒ इन्द्रा॑य भा॒गं प्र॒जाव॑तीरनमी॒वा अ॑य॒क्ष्मा मा व॑ स्तेन ई॑षत माघशँ॑सो ध्रुवा अ॒स्मिन् गोप॑तौ स्यात ब॒ह्वीर्यजमा॑नस्य प॒शून्पा॑हि (वा. यजु, १/१)
(क) सौरमण्डल में सौर वायु का प्रवाह ईषा है। विष्णु पुराण (२/८/३) में सूर्य के ईषा दण्ड का विस्तार (परिधि) १८००० योजन है। अतः इसकी त्रिज्या ३,००० योजन है। सौरमण्डल के लिए सूर्य का व्यास योजन है। वहां से ३००० व्यास दूर यूरेनस कक्षा है जहां तक सौर वायु जाती है। इस सौर वायु से सविता देव क्रतु या यज्ञ करते हैं। क्रतु की सीमा पर ६०,००० बालखिल्य हैं। सूर्य तेज से ही पृथ्वी पर जीव सृष्टि, उसका पालन तथा रोगनाश हो रहा है।
(ख) आधिभौतिक यज्ञों का वर्णन पदच्छेद ७ में किया गया है। गौ रूपी यज्ञ का नाश नहीं होना चाहिये तभी उसके उत्पाद मिलते रहेंगे। इस अर्थ में गौ अघ्न्या है। पृथ्वी का मुख्य यज्ञ कृषि है, वह गौ वृषभ पर आधारित है। जीवन भर मनुष्य गोदुग्ध का भोग करता है तथा पञ्चगव्य द्वारा अनमीवा (सूक्ष्म जीवाणु रहित), अयक्ष्मा रहता है। इस यज्ञ से धन-धान्य की वृद्धि होती है। अपनी आवश्यकता का स्वयं उत्पादन करने पर दूसरों का लूटने की प्रवृत्ति नहीं होगी तथा पाप से बचे रहेंगे। अथैष गोसवः स्वाराजो यज्ञः। (ताण्ड्य महाब्राह्मण, १९/१३/१) इमे वै लोका गौः यद् हि किं अ गच्छति इमान् तत् लोकान् गच्छति। (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/२/३४) इमे लोका गौः। (शतपथ ब्राह्मण, ६/५/२/१७)
(ग) मनुष्य शरीर में मेरुदण्ड ही ईषादण्ड है। इसकी सुषुम्ना नाड़ी द्वारा प्राण वायु के आरोहण से मुक्ति होती है। इसे शतौदना गौ का दान कहा है। अन्य आध्यात्मिक यज्ञ प्राण यज्ञ आदि हैं।
महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहम्, स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदि मरुतमाकाशमुपरि। मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपि भित्त्वा कुलपथम्, सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसि (विहरसे)-सौन्दर्य-लहरी, ९। यजुर्वेद (१८/३८-४४) में षट् चक्र भेदन के बाद सहस्रार में परब्रह्म से साक्षात्कार का निर्देश है।
ऋताषाड् ऋतधामा अग्निः गन्धर्वः, तस्य ओषधयः अप्सरसः मुदः नाम। स न इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट् ताभ्यः स्वाहा॥ (वाज. यजु, १८/३८) संहितः विश्वसामा सूर्यः गन्धर्वः तस्य मरीचयः अप्सरसः आयुवः नाम (यजु, १८/३९) सुषुम्णः सूर्यरश्मिः चन्द्रमा गन्धर्वः, तस्य नक्षत्राणि अप्सरसः भेकुरयः नाम (यजु, १८/४०) इषिरो विश्वव्यचा वातो गन्धर्वः तस्य आपः अप्सरसः ऊर्जः नाम (यजु, १८/४१) भुज्युः सुपर्णः यज्ञः गन्धर्वः तस्य दक्षिणाः अप्सरसः स्तावा नाम। (यजु, १८/४२) प्रजापतिः विश्वकर्मा मनः गन्धर्वः तस्य ऋक्-सामानि अप्सरसः एष्टयः नाम। (यजु, १८/४३) स नः भुवनस्य पते प्रजापते यस्य त उपरि गृहा (यजु, १८/४४)
इनमें प्रथम ६ मन्त्र मूलाधार से आज्ञा चक्र तक के ६ चक्रों से सम्बन्धित तत्त्व और उनकी साधना के फल हैं। उनके ऊपर सहस्रार में भुवन के पति प्रजापति का निवास है। आज्ञा चक्र में मन तत्त्व है, वहां की साधना क्रिया यजुः या आन्तरिक यज्ञ है। उससे विश्व रचना का ज्ञान ऋक् तथा उसकी महिमा या प्रभाव का ज्ञान साम वेद है। ऋतधामा ऋताषाड् अग्नि अन्न या ओषधि देने वाला है-
एष (अग्निः) हि देवेभ्यो हव्यं भरति तस्मात् भरतोऽग्नि रित्याहुः । (शतपथ ब्राह्मण १/४/२/२, १/५/१/८, १/५/१९/८) =
यह अग्नि देवों को भोजन देता है अतः इसे भरत अग्नि कहते हैं। जहां सबसे अधिक अन्न होता है, वह भारत है। ऋत-धाम = ऋत् या सत्कर्म स्थान, आर्य भूमि। ऋताषाड् = परिश्रम, आषाड् = अखाड़ा, आषाढ़ मास से वर्षा और कृषि होती है। आन्तरिक यज्ञ में यह मूलाधार तथा अन्नमय कोष है। स्वाधिष्ठान में जल तत्त्व पर नीचेमूलाधार से कम्पन होता है, ऊपर सूर्य चक्र (मणिपूर) से ताप आता है। उससे मेघ तथा विद्युत् होता है। इसक् साधना से आयु होती है जिसे अप्सरा कहा है। मणिपूर चक्र के सूर्य स्थान से सुषुम्ना द्वारा बाह्य जगत् और आकाश के सूर्य से सम्बन्ध है। (बृहदारण्यक उपनिषद्, ४/४/८,९, छान्दोग्य उपनिषद्, ८/६/१,२,५, ब्रह्मसूत्र, ४/२/१७-२०, वाजसनेयि यजु, १५/१५-१९, १७/५८, १८/४०, कूर्म पुराण, १/४३/२-८), मत्स्य पुराण, १२८/२९-३३, वायु पुराण, ५३/४४-५०, लिङ्ग पुराण, १/६०/२३, ब्रह्माण्ड पुराण, १/२/२४/६५-७२) इसके कारण पाचन, प्राण-अपान का सन्तुलन रहता है। ग्रहों का प्रभाव भी इसी से सुषुम्ना द्वारा सूर्य सम्पर्क के कारण है जिस पर अन्य ग्रहों तथा नक्षत्रों द्वारा परिवर्तन होता है। सम्पर्क का केन्द्र अनाहत का वायु तत्त्व है। वहां की अप्सरा को भेकुर कहा है। यह एक प्रकार का वाक् है। भ = नक्षत्र, भा= उनका प्रकाश, भेकुर = उस प्रकाश माध्यम से सम्पर्क (आंख, दूरदर्शन यन्त्र आदि से)-शतपथ ब्राह्मण (९/४/१/९)
वात गन्धर्व से ऊपर भुज्यु सुपर्ण अर्थात् भोग ग्रहण का मार्ग (कण्ठ के विशुद्धि चक्र से) है। यहां की अप्सरा को स्तावा कहा है जिसका अर्थ दक्षिणा कहा है (शतपथ ब्राह्मण, ९/४/१/११)। दक्षिणा से दक्षता होती है।
क्रियात्मक पुरुष को सुपर्ण कहा गया है। राष्ट्र यज्ञ के कर्त्ता वैश्य (विश का पालक) तथा शूद्र(आशु द्रवति) हैं। यह शान्ति तथा दक्षता से हो सके इसके लिए ब्रह्म तथा क्षत्र तत्त्व देश की रक्षा करते हैं। यस्य ब्रह्मच क्षत्रं च उभे भवत ओदनः (कठोपनिषद्, २/२/५) बाहर के अग्नि कुण्ड में जो यज्ञ होता है वह बाह्य तथा आन्तरिक दोनों है।
हवन पदार्थों के रस-गन्ध का ग्रहण मनुष्य द्वारा होता है, वे विभिन्न प्रकार की अप्सरा हैं। हम वास्तव में किसी को दे नहीं रहे हैं-त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये। सम्बन्धित मन्त्रों के पाठ से मानसिक प्रभाव व्यक्ति तथा समाज पर पड़ता है। दैनिक कर्म से वैसा संस्कार होता है।
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