श्री शशांक शेखर शुल्ब
उक्त प्रश्न में दो नहीं,बल्कि तीन शब्दों में तुलना करना है — प्रतिमा,विग्रह,मूर्ति ।
साकेत झा ने अनजाने में तीन के स्थान पर दो को ही तुलना हेतु योग्य मानकर सही किया,क्योंकि उपरोक्त सन्दर्भ में “प्रतिमा” शब्द का प्रयोग वेदविरुद्ध है । यजुर्वेद में पुरुषसूक्त के बाद वाले अध्याय में कथन है — “न तस्य प्रतिमा अस्ति” । पुरुषसूक्त तीन वेदों में है और उसमें विराट पुरुष के सिर,चक्षु,हाथ,उदर,पाँव का उल्लेख है जिससे स्पष्ट है कि विराट पुरुष का शरीर जैसा कुछ तो होता है किन्तु उस “कुछ” के सहस्रों सिर,सहस्रों चक्षु,सहस्रों पाँव आदि होते हैं!
“प्रतिमा” का अर्थ है किसी वस्तु का माप निर्धारण करने के लिए उसके प्रति किसी मापक को तुलना हेतु आँकना । अतः वेद में सत्य ही कहा गया है कि उस देव की कोई प्रतिमा नहीं होती । जबतक किसी देवमूर्ति में प्राणप्रतिष्ठा नहीं हो जाती तबतक उसे प्रतिमा कह सकते हैं,प्राणप्रतिष्ठा के उपरान्त उसे “प्रतिमा” कहना वेद का विरोध है क्योंकि कोई भी प्रतिमा किसी भी देवता का माप नहीं बता सकती ।
देवता अमूर्त चैतन्य तत्व है,कोई भी मूर्ति सीमित मूर्त रूप है । जीवित प्राणी के शरीर को भी मूर्ति कह सकते हैं और निर्जीव पाषाण आकृति को भी । अर्थात् “मूर्ति” किसी प्रतिमा को भी कह सकते हैं और किसी “विग्रह” को भी ।
उपरोक्त प्रश्न में “भगवान की प्रतिमा” गलत प्रयोग है । भगवान की प्रतिमा नहीं हो सकती । भगवान की मूर्ति हो सकती है । मूर्ति प्राणप्रतिष्ठित विग्रह को भी कह सकते हैं तथा प्राणप्रतिष्ठा से पहले की प्रतिमा को भी । परन्तु “विग्रह” केवल प्राणप्रतिष्ठित मूर्ति को ही कहा जा सकता है । “विग्रह” उपनिषदों में प्रयुक्त हुआ है,अतः वेद के ज्ञानकाण्ड का शब्द है ।
“मूर्ति” के अनके अर्थ हो सकते हैं,जैसा कि ऊपर दर्शाया गया है । निष्प्राण पाषाण आकृति को भी मूर्ति कह सकते हैं,जीवित प्राणी की देह भी मूर्ति है,प्राणप्रतिष्ठा से पहले की प्रतिमा भी मूर्ति है तथा प्राणप्रतिष्ठित विग्रह भी मूर्ति है । अतः “मूर्ति” शब्द है तो सही किन्तु इसका अर्थ व्यापक है जिसे प्राणप्रतिष्ठित विग्रह के लिए ही प्रयुक्त करना हो तो केवल “मूर्ति” न कहकर अमुक देव वा देवी की मूर्ति कहना अनिवार्य है । किन्तु “विग्रह” का अर्थ सीमित एवं स्पष्ट होता है ।
अर्थववेद प्रातिशाख्य में “विग्रह” का जो अर्थ है वही अर्थ संस्कृत व्याकरण में सर्वमान्य है । समास पदों को उनके स्वतन्त्र अवयवों में विखण्डन को विग्रह प्रक्रिया कहते हैं । जिन समास पदों का अर्थ विग्रह द्वारा सम्भव नहीं उनको “नित्य” पद कहते हैं,जैसे कि “जमद्+अग्नि” । विग्रह प्रक्रिया द्वारा हमें ऐसे मूल पद मिलते हैं जो स्वतन्त्र सत्ता रख सकें,जैसे कि क्रियापद के धातु ।
अतः “विग्रह” का अर्थ हुआ किसी वस्तु का अनेक रूपों में वितरण वा विखण्डन वा विश्लेषण । फलतः “विग्रह” का अर्थ उस “मूर्ति” के लिए किया जाता है जो किसी एक मूल सत्ता के अनेक मूर्त रूपों में से एक मूर्त रूप हो । यह तभी सम्भव है जब उस मूर्त रूप में मूल सत्ता की प्राण प्रतिष्ठा हो चुकी हो । जीव ऐसा गुण नहीं रखते । केवल कोई देवता ही एक ही समय में सहस्रों शिरों में स्थित होकर सहस्रों चक्षुओं का उपयोग कर सकता है । अतः केवल देवता का ही विग्रह सम्भव है । प्राणप्रतिष्ठित देवमूर्ति को ही “विग्रह” कह सकते हैं ।
देवता सर्वव्यापी हैं,मूर्ति में भी हैं और अमूर्त भी हैं । किन्तु विशिष्ट अनुष्ठानों में विशिष्ट विग्रहों में स्थित होकर वे विशिष्ट पूजन आदि के विशिष्ट फल देते हैं । “विग्रह” का यही प्रयोजन है । अपने मूल स्वरूप में वे अमूर्त हैं । किन्तु मनुष्य के कल्याणार्थ वे “विग्रह” में स्थित होने का अनुग्रह करते हैं ।
“विग्रह” का एक विशेष अर्थ भी है । ग्रहण के समाप्त होने पर जब सूर्य वा चन्द्र अपने पूर्ण स्वरूप में प्रकट होते हैं तो कहा जाता है कि उनका “विग्रह” हो गया । अतः देवमूर्ति का “विग्रह” भले ही सीमित आकार की मूर्ति है,उसमें जिस देव की प्राण प्रतिष्ठित है वे अपने पूर्ण स्वरूप में ही “विग्रह” में अवस्थित होते हैं । एक ही देवता के अनगिनत “विग्रह” हो सकते हैं और उन सभी विग्रहों में वे पूर्ण रहते हैं,खण्ड में नहीं रहते । एक पूर्ण में अनेक पूर्ण जोड़ें तब भी पूर्ण ही रहता है,पूर्ण घटाते जायें तब भी पूर्ण ही बचता है । संसार के सारे विग्रहों को महामदासुर यदि तोड़ भी डालें तो पूर्ण ही बचेगा ।
अमूर्त पूर्ण में से पृथक होकर जब एक वा अनेक प्राणप्रतिष्ठित पूर्ण मूर्त बनते हैं तो उन अनेक रूपों को विग्रह कहते हैं । अमूर्त चैतन्य भी पूर्ण है और उनके अनेक विग्रह भी अलग−अलग पूर्ण हैं क्योंकि अलग−अलग होकर भी वे एक ही प्राण से प्रतिष्ठित हैं ।
किन्तु “विग्रह” का जब विखण्डन हो जाय जब देवत्व चला जाता है । उन खण्डों को जोड़ने पर देवत्व वापस नहीं आता । शास्त्रीय पद्धति द्वारा पुनः प्रतिमा बनाकर उसमें प्राणप्रतिष्ठा करके विग्रह बनाना पड़ेगा । हर विग्रह के निर्माण एवं प्रतिष्ठा की अपनी−अपनी शास्त्रीय पद्धति होती है । कुछ स्थायी होते हैं तो कुछ का सीमित अवधि के उपरान्त विसर्जन होता है । कुछ किसी स्थानविशेष पर ही स्थापित हो सकते हैं,तो कुछ सार्वभौम होते हैं ।
सामान्यतः मानवशरीर को मूर्ति कहने की परम्परा नहीं है । किन्तु साधु के शरीर से जब देव का संवाद वा सम्पर्क हो तो उस साधु को मूर्ति कहते हैं । किन्तु उसे विग्रह नहीं कहते क्योंकि मनुष्यों द्वारा अर्पित हवि,पूजन,स्तुति आदि का विशिष्ट−ग्रहण करने के लिए देवता की प्राणप्रतिष्ठा उसमें नहीं हुई है । ऐसे विशिष्ट−ग्रहण का माध्यम ही विग्रह है जो सहस्रशीर्षा का एक शीर्ष है । हर देवता सहस्रशीर्षा है क्योंकि एक ही सत् के विविध नाम हैं ।
शतपथ ब्राह्मण के आरम्भ में ही कहा गया है कि देवता सत् है और मनुष्य असत्,अतः जबतक यज्ञ चले तबतक यजमान को सत् में स्थित रहना है । यज्ञ हेतु जितनी शुद्धि चाहिए वह कलियुग में दुर्लभ है । अतः कलियुग के असत् मानवों के लिए विग्रह के माध्यम से सत् जनसुलभ होता है । परन्तु विग्रह का पुरोहित पूजनादि पद्धतियों का ज्ञाता भी हो तथा यथासम्भव शुद्ध भी रहे यह अनिवार्य है,वरना प्राणप्रतिष्ठित विग्रह की मूर्ति अखण्ड भी हो तो देवत्व चला जाता है । नास्तिकों द्वारा मनुवाद−विरोध के नाम पर पुरोहित बनने की अर्हता को नष्ट करने का षडयन्त्र चलाया जा रहा है,ताकि कुपात्रों को पुरोहित बनाकर सनातन धर्म का बचा−खुचा यह जनसुलभ माध्यम भी नष्ट कर दिया जाय । मन्दिर दूषित होते जा रहे हैं,अतः यदि दैनिक अग्निहोत्र न कर सकें तो अपने गृहों में ही विग्रह स्थापित करें और नियमित पूजन की सरल विधि सीख लें ।
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