भारतीय इतिहास के अनछुए पहलु

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  • मिस्टिक ज्ञान
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  • 31 October 2024
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श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ )- Mystic Power- 

हड़प्पा का नाम सुनते ही क्या याद आता है ? पुरानी सभ्यता, भारतीय इतिहास और इन सब का बंटवारे में पकिस्तान चले जाना ? 1947 के बाद से इनषपर काफी सर्वे हुआ है। पाकिस्तान में करीब 800 और इसी कालखंड के अवशेषों वाली जगहें मिली थी और भारत में ASI ने करीब 2000 इलाकों की निशानदेही की है। इनमें से 1000 सिर्फ हरयाणा में हैं। जिस इलाके में ये सबसे ज्यादा दिखते हैं उसे घग्गर- हकरा बेसिन कहा जाता है, ये वो इलाका है जिसे कई लोग वेदों में वर्णित सरस्वती नदी का इलाका मानते हैं। अच्छा अच्छा आपने इस जगह के बारे में नहीं सुना ? इतिहास की किताबों में भी नहीं था क्या?फिर तो आपको इतिहासकारों से पूछना चाहिए कि ये सारा हिस्सा किताबों से कहां गया ? 

अगर किसी साईट पर जाकर आप लोगों को वहां काम करते देखेंगे तो लगभग सोना छानने जैसा दृश्य दिखेगा।

मिट्टी को खोद कर निकाला जाता हैऔर उसके अलग अलग ढेर लगाये जाते हैं 

कोयले जैसे टुकड़ों को अलग,हड्डी के नमूनों का अलग,चूड़ियों जैसे टुकड़ों का अलग और बर्तनों के टुकड़ों का अलग वर्गीकरण होता है फिर।भारत की अलग अलग फोरेंसिक लेबोरेटरी में यहां से कई संदूक भर भर कर भेजे जा चुके हैं। कैंप में एक छोटा सा म्यूजियम भी है।वहां अक्सर मालविका चैटर्जी होती हैं।वो कहती हैं की ज्यादातर गांव वाले उनके मिट्टी के बर्तनों के शौक पर अचरज जताते हैं।यहां से जो चीजें निकली हैं उनमे कई जानवरों की मूर्तियां हैं।हाथी है,चिड़िया है,बैल हैं और गले में पट्टा लगाये एक कुत्ता भी है।

हड़प्पा वाले कुत्ते पालते थे ! आश्चर्य ! प्रोफेसर वसंत शिंदे हड़प्पा के जानकारों में जाने माने नाम हैं। पुणे यूनिवर्सिटी के डेक्कन कॉलेज के ये प्रोफेसर इस खुदाई अभियान के प्रमुख हैं।उनके हिसाब से 5500 से 5000 BCE की तारीखें मिल रही हैं और उस से पहले की भी।जहां तक वो मान के चले थे ये सभ्यता उस से कम से कम 1000 साल पुरानी है।अब ये तो इतिहास की हमारी अवधारणा के बारे में काफी कुछ बदल देगा।करीब दो तिहाई खुदाई की जगहें उस इलाके में मिली हैं जिसे सरस्वती नदी का बेसिन माना जाता है।

प्रोफेसर शिंदे ये ढूंढने में जुटे हैं कि कैसे प्रारंभिक,मध्य और उन्नत रूप में ये सभ्यता आगे बढ़ी, खेती करने वाले छोटे समुदायों से ये विकसित नगरों तक पहुंचे कैसे ? प्रोफेसर शिंदे का मानना है की ये लोग बड़े निर्माण में सक्षम थे और अपने संसाधनों का इस्तेमाल सबके लिए सामान्य सुविधाएं बनाने में करते थे। जैसे जैसे नई खोजें होती जाती हैं वैसे वैसे पता चलता जाता है कि ये एक काफी तेज़ी से बदली सभ्यता थी। 

शुरू में इतिहासकारों का ध्यान उनके शहरों,गांव की स्थिति का पता लगाना था,फिर उनके शहरों की योजना और लोगों के दिनचर्या पर ध्यान गया। हड़प्पा के लोग शायद पुनर्जन्म में विश्वास करते थे।वहां एक जगह चार कंकाल भी मिले हैं, उनके साथ ही कुछ बर्तनों में खाने के अवशेष भी थे।इनमें दो पुरुष कंकाल हैं,एक महिला का है और एक बच्चे का।

साउथ कोरिया की सीओल नेशनल यूनिवर्सिटी के साथ इन पर DNA की जांच का काम चल रहा है।इसके पूरा होते ही ये बताया जा सकेगा कि हड़प्पा की सभ्यता के लोग कौन थे। अगर वो कहीं और से आये थे तो कहां के थे ? मध्य या पश्चिमी एशिया के थे क्या ? हड़प्पा के लोग दिखते कैसे थे ? हरियाणा और पंजाब के लोग क्या हड़प्पा के लोगों के वंशज हैं ? खाते क्या थे ? कौन सी बीमारियां होती थी उन्हें ?DNA की जांच में संभावनाएं तो अपार है। रहा किताबों में हरियाणा के राखी गढ़ी का जिक्र,तो ये उन बहुत से मुद्दों में से है जिस पर एक पूर्व प्रधानमंत्री कहते थे कि भारतीय लोगों को शर्म आती थी।शर्म आती होगी तभी तो किताबों में नहीं लिखा न ? वरना ढूंढ तो इस जगह को 1963 में ही लिया था ? 

कृष्ण,विष्णु के अन्य कई अवतारों जैसे अंशावतार नहीं होते। वो पूर्णावतार हैं।एक साथ ही वो कई रूपों में दिखते हैं, चतुर्भुज,शंख-चक्र-पद्म-गदा धारी है तो सखा भी हैं।राधा, सत्यभामा,रुक्मिणी के प्रेमी पति हैं तो भगवद्गीता के दार्शनिक सखा भी हैं।

महाभारत के हिसाब से वो एक राजनीतिज्ञ और योद्धा होते हैं।पुराणों में वो लीलाधर हो जाते हैं । महाभारत में कृष्ण का जिक्र आदि पर्व से शुरू होता है। उनके बाल काल का वहां वर्णन नहीं है। मगर कृष्ण स्वयं ही कहते हैं कि अगर गीता को समझना है तो उनके पूरे जीवन को देखना होगा।उनकी बाल लीलाओं का वर्णन भागवत और महाभारत का आखरी हिस्सा माने जाने वाले हरिवंश पुराण में है। इन दोनों पुराणों में यमलार्जुन नाम का प्रसंग आता है। वो कहानी लगभग सभी को पता है।रोज रोज की कृष्ण की शिकायतों से परेशान माता यशोदा एक दिन बाल-कृष्ण को एक उखल में बांध देती हैं माता की नजर हटते ही कृष्ण उखल घसीट का ले चले। थोड़ी दूर में दो यमल और अर्जुन के यानि यमलार्जुन का वृक्ष था। कृष्ण ने उनमें उखल फंसाया और लगे खींचने ! उनके खींचने से पेड़ उखड़ गए और दो गंधर्व नलकूबर और मणिग्रीव प्रकट हुए। दोनों गंधर्व शाप के कारण वृक्ष हो गए थे और कृष्ण ने उन्हें मुक्ति दे दी थी।

ये किस्सा पौराणिक है,ऐतिहासिक नहीं है।आश्चर्यजनक रूप से ये मोहनजोदड़ो की खुदाई में भी मिला है। डॉ. इ.जे.एच. मक्के जब मोहनजोदड़ो की खुदाई कर रहे थे तो उन्हें एक साबुन पत्थर का बना टेबलेट मिला।ये लरकाना, सिंध में मिला पत्थर का टेबलेट यमलार्जुन प्रसंग दर्शाता है। बाद में प्रोफेसर वी.एस. अग्रवाल ने भी इसकी पहचान इसी रूप में की है। प्लेट नंबर 90,ऑब्जेक्ट नंबर डी.के. 10237 के नाम से जाने जाने वाले इस टेबलेट का जिक्र कई किताबों में है।

 वासुदेव शरण अग्रवाल सहित कई विद्वानों और इतिहासकारों की किताबों में Mackay report Page 334-335 पर वर्णित plate no.90, object no. D.K.10237 का जिक्र आता है।ऐसा कहा जा सकता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के लोगों को कृष्ण सम्बन्धी कथाओं का पता था।बाकी आपको इस प्लेट के बारे में क्यों नहीं बताया गया ये तो कृष्ण ही जानें ! राधे-कृष्ण, राधे-कृष्ण !! भारत में अभ्यास हो गया है कि हम अपनी भाषा और क्षेत्र बिल्कुल नहीं देखते हैं। केवल यही देखते और समझते हैं कि अंग्रेजों ने क्या लिखा है।

अपनी तरह भारतीयों को भी विदेशी सिद्ध करने के लिये सिन्ध में खुदाई कर उसके मनमाने अर्थ निकाले।आज तक नई नई कल्पनायें हो रही हैं।केवल महाराष्ट्र नाम और उसके विशेष शब्दों अजिंक्या,विट्ठल आदि पर ध्यान दिया जाय तो भारत का पूरा इतिहास स्पष्ट हो जायगा। इन शब्दों का मूल समझा जा सकता है पर यह क्यों महाराष्ट्र में ही हैं यह पता लगाना बहुत कठिन है। जो कुछ हमारे ग्रन्थों में लिखा है, उसका ठीक उलटा हम पढ़ते हैं। इन्द्र को पूर्व दिशा का लोकपाल कहा है,उसके बारे में अब कहते हैं कि यहआर्यों का मुख्य देवता था जो पश्चिम से (अंग्रेजों की तरह) आये थे। कहानी बनाई है कि पश्चिम उत्तर से आकर आर्यों ने वेद को दक्षिण भारत पर थोप दिया। पर पिछले ५००० वर्षों से भागवत माहात्म्य में पढ़ते आ रहे हैं कि ज्ञान विज्ञान का जन्म दक्षिण से हुआ और उसका उत्तर में प्रसार हुआ। 

अहं भक्तिरिति ख्याता इमौ मे तनयौ मतौ। ज्ञान वैराग्यनामानौ कालयोगेन जर्जरौ॥४५॥ उत्पन्ना द्रविडे साहं वृद्धिं कर्णाटके गता। क्वचित् क्वचित् महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता॥४८॥ तत्र घोर कलेर्योगात् पाखण्डैः खण्डिताङ्गका। दुर्बलाहं चिरं जाता पुत्राभ्यां सह मन्दताम्॥४९॥ वृन्दावनं पुनः प्राप्य नवीनेव सुरूपिणी। जाताहं युवती सम्यक् श्रेष्ठरूपा तु साम्प्रतम्॥५०॥ (पद्म पुराण उत्तर खण्ड श्रीमद् भागवत माहात्म्य, भक्ति-नारद समागम नाम प्रथमोऽध्यायः)

 यह समझने पर भारत और वैदिक परम्परा के विषय में समझा जा सकता है। सृष्टि का मूल रूप अव्यक्त रस था। ब्रह्माण्ड (गैलेक्सी) में इसका रूप अप् (जल जैसा) हुआ। तरंग-युक्त अप् सलिल या सरिर (शरीर, पिण्ड रूप) है। निर्माण-रत अप् को अम्भ कहते हैं,इसके साथ चेतन तत्त्व शिव मिलने से साम्ब (स + अम्भ)-सदाशिव है। भारत में दक्षिण समुद्र तट से ज्ञान का आरम्भ हुआ।द्रव से उत्पन्न होने के कारण यह द्रविड़ हुआ। सृष्टि का आरम्भ आकाश से हुआ,पर भाषा का आरम्भ पृथ्वी से हुआ।  

कर्म और गुण के अनुसार ब्रह्मा ने नाम दिये थे, इन अर्थों का आकाश(आधिदैविक)और शरीर के भीतर(अध्यात्म) में विस्तार करने से वेद का विस्तार हुआ।आगम की २ धारा हैं। प्रकृति (निसर्ग) से निकला ज्ञान वेद निगम है। उसका प्रयोग गुरु से सीखना पड़ता है, वह आगम है। अतः निगम वेद श्रुति कहा है। श्रुति का अर्थ है शब्द आदि ५ माध्यमों से प्रकृति के विषय में ज्ञान। इसका ग्रहण कर्ण से होता है,अतः जहां भौतिक अर्थों का आकाश और अध्यात्म में विस्तार हुआ वह क्षेत्र कर्णाटक है।

ब्रह्म की व्याख्या के लिये जो लिपि बनी वह ब्राह्मी लिपि है। इसमें ६३ या ६४ अक्षर होते हैं क्योंकि दृश्य जगत् (तपः लोक) का विस्तार पृथ्वी व्यास को ६३.५ बार २ गुणा करने से मिलता है (आधुनिक अनुमान ८ से १८ अरब प्रकाश वर्ष)। 

इस दूरी ८.६४ अरब प्रकाश वर्ष को ब्रह्मा का दिन-रात कहा है।ध्वनि के आधार पर इन्द्र और मरुत् ने इसका वर्गीकरण किया वह देवनागरी लिपि है। इसमें क से ह तक के ३३ वर्ण ३३ देवों का चिह्न रूप में नगर (चिति = city) है। १६ स्वरों को मिलाने पर ४९ मरुत् हैं।ध्वनि रूप में लिपि का प्रचार का दायित्व जिस पर दिया गया उसे ऋग्वेद (१०/७१) में गणपति कहा है। 

इस रूप में वेद का जहां तक प्रभाव फैला वह महाराष्ट्र है। महर् = प्रभाव क्षेत्र। उसके बाद गुजरात तक वेद का प्रचार हुआ। कालक्रम में लुप्त हो गया था। भगवान् कृष्ण का अवतार होने पर पुनः उत्तर भारत से प्रचार हुआ। वर्तमान रूप कृष्णद्वैपायन व्यास द्वारा निर्धारित है। महर् = प्रभाव क्षेत्र दीखता नहीं है। पृथ्वी दीखती है पर इसका गुरुत्व क्षेत्र नहीं दीखता है। अतः महः को अचिन्त्य कहा है। महाराष्ट्र में अचिन्त्य = अजिंक्या नाम प्रचलित है। उसका केवल भाव हो सकता है, अतः भाऊ सम्मान सूचक सम्बोधन है। पश्चिम दिशा के स्वामी वरुण को अप्-पति कहा है अतः पश्चिमी भाग महाराष्ट्र में अप्पा साहब सम्मान सूचक शब्द है। विट् = विश् या समाज का संगठन जहां होता है वह विट्-स्थल = विट्ठल है। विश् का पालन कर्त्ता वैश्य है।



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