सिद्धार्थ बुद्ध के पूर्व ७ मुख्य बुद्ध थे, जिनका वर्णन सप्ततथागत में है-विपश्यि, शिखि, विश्वभू, क्रकुच्छन्द, कनकमुनि, कश्यप (द्वितीय), गौतम। इनमें ४ बुद्धों की शिक्षा लिखित रूप में नहीं रहेने के कारण नष्ट हो गयी
अतीत बुद्धानं जिनानं देसितं। निकीलितं बुद्ध परम्परागतं।
पुब्बे निवासा निगताय बुद्धिया। पकासमी लोकहितं सदेवके॥ (बुद्ध वंश, १/७९)
इन ४ बुद्धों की शिक्षा लिखित उपदेश के अभाव में नष्ट हो गयी-
विपश्यि, शिखि, विश्वभू, तिष्य।
अन्य ३ बुद्धों के ३ दर्शन मार्ग थे-वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार।
सिद्धार्थ बुद्ध द्वारा चतुर्थ माध्यमिक दर्शन आरम्भ हुआ। सिद्धार्थ बुद्ध ने मगध के राजा बिम्बिसार से मिल कर अपने मत का प्रचार किया। अजातशत्रु ने पिता की हत्या कर शासन पर अधिकार किया और सिद्धार्थ की सहायता से उत्तर बिहार के गणतन्त्रों पर अधिकार किया। उस काल में काशी क्षेत्र में वहां के पूर्व राजा पार्श्वनाथ (युधिष्ठिर की ८वीं पीढ़ी के निचक्षु के समकालीन) के कारण बहुत से जैन मठ थे। उन पर बौद्धों ने कब्जा किया। कपासिय मठ में जैन लोगों को नात-पुत्त कह कर गाली देते थे। यह गाली (नतिया के बेटा) आज भी रोहतास जिले के कपसिया थाना क्षेत्र में प्रचलित है।
वेद मार्ग के विरोध के कारण आज भी मगध पर संस्कार हीनता का प्रभाव दीखता है।
सिद्धार्थ बुद्ध का प्रभाव गोरखपुर से गया तह ही था। मध्य और उत्तर भारत में इसका प्रचार गौतम बुद्ध (५६३ ईपू) तथा उनके शिष्यों द्वारा हुआ। ये लोग गिरोह बना कर चलते थे तथा राजाओं को प्रभावित कर वैदिक मन्दिरों मठों पर अधिकार करते थे। उस समय वेद मार्ग के नष्ट होने पर एक राजकुमारी रो रही थी, तो कुमारिल भट्ट (५५७-४९३ ईपू-ओड़िशा में महानदी के दक्षिण तट पर जय मंगला ग्राम में यज्ञेश्वर-चन्द्रगुणा के पुत्र) ने वेद मार्ग की पुनः स्थापना की प्रतिज्ञा की। उन्होंने उज्जैन के जैन मुनि कालकाचार्य (वीर, ५९९-५२७ ईपू) के पास २ वर्ष शिक्षा ली। कालकाचार्य जानते थे कि वह जैन नहीं है और कुमारिल उनके प्रिय शिष्य थे। उनकी मृत्यु के ३४ वर्ष बाद जब कुमारिल भट्ट ने वेद मार्ग का प्रचार किया, तब उन पर जैन लोगों ने आक्षेप किया कि वे गुरु द्रोही हैं, तो उन्होंने गुरु के प्रति सम्मान प्रदर्शित करते हुए प्रयाग संगम पर ४९३ ईपू में आत्मदाह किया।
उस समय शंकराचार्य उनसे मिले और आत्मदाह रोकने की प्रार्थना की। उस समय शंकराचार्य १५ वर्ष की आयु में ब्रह्म सूत्र के भाष्यकार रूप में विख्यात हो चुके थे। कुमारिल ने कहा कि उनके शिष्य विश्वरूप (शोण नद के तट पर तत्कालीन मगध में) से मिल कर वेद मार्ग की स्थापना करें।
शंकराचार्य खण्डन करते थे, विश्वरूप मण्डन करते थे अतः मण्डन मिश्र नाम से विख्यात थे। धर्म स्थापना के लिए खण्डन-मण्डन दोनों आवश्यक हैं।
मण्डन मिश्र (५४८-४४७ ईपू) ने अपने पुत्र आयु के शंकराचार्य का शिष्यत्व स्वीकार किया यद्यपि १७ दिनों तक शास्त्रार्थ में तर्क द्वारा उनकी पराजय नहीं हुई थी। एक सन्त का समाज में अधिक सम्मान होता है, गृहस्थ कितना भी विद्वान् हो उसकी आज्ञा समाज नहीं मानता है। अतः अंग्रेजों ने भी गान्धी माध्यम से अपना प्रचार कराने के लिए उनको पहले वकील, सेना में सार्जेण्ट बनाने के बाद अन्त में साधु वेष में रखा।
शंकराचार्य ने अपनी बृहदारण्यक पद्धति तथा मण्डन मिश्र की छान्दोग्य पद्धति के समन्वय के लिए सम्बन्ध वार्त्तिक लिखने को कहा। यह मण्डन मिश्र माध्यम से मण्डन कार्य हुआ।
शंकराचार्य ने नास्तिक दर्शनों का खण्डन किया, यद्यपि राजनीति, कृषि, वाणिज्य के लिए चार्वाक को भी उपयोगी माना है। जैन दर्शन गौतम न्याय शास्त्र पर आधारित है, जिसमें २ ही विकल्प हैं-सत्य, असत्य। इसका सुधार जैन लोगों ने सप्तभंगी न्याय या अनेकान्त वाद से किया। पर सबके समन्वय रूप में वेदान्त दर्शन ही सर्वोच्च है। इसे समझने में पूर्व मीमांसा आदि अन्य आस्तिक दर्शन सहायक हैं।
दर्शनों का क्रम माधवीय सर्वदर्शन संग्रह में समझाया गया है। वेद मार्ग की स्थापना के लिये चाहमान वंश के राजा सुधन्वा की सहायता से भारत के ४ पीठों की स्थापना की। सामान्य लोगों के लिए दैनिक पञ्चदेव पूजा का विधान किया तथा तन्त्र मार्ग के भी शिष्य बनाये।
श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ )-
Comments are not available.