ब्रह्म के विज्ञानमय पुरुष का रहस्य

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  • मिस्टिक ज्ञान
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  • 04 July 2025
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डॉ० दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबंध संपादक)

अन्तस्तद्धर्मोपदेशात् ॥ १। १। २०॥

अन्तः- हृदय के भीतर शयन करने वाला विज्ञानमय तथा सूर्यमण्डल के भीतर स्थित हिरण्यमय पुरुष ब्रह्म है; तद्धर्मोपदेशात्-क्योंकि (उसमें) उस ब्रह्म के धर्मो का उपदेश किया गया है।

व्याख्या- उपर्युक्त बृहदारण्यक श्रुति में वर्णित विज्ञानमय पुरुष के लिये इस प्रकार विशेषण आये हैं- 

 

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'सर्वस्य वशी सर्वस्येशानः सर्वस्याधिपतिः एष सर्वेश्वर एष भूतपालः' इत्यादि । तथा छान्दोग्यवर्णित सूर्यमण्डलान्तर्वर्ती पुरुष के लिये 'सर्वेभ्यः पाप्मभ्य उदितः' (सब पापोंसे ऊपर उठा हुआ) यह विशेषण दिया गया है। ये विशेषण परब्रह्म परमेश्वर में ही सम्भव हो सकते हैं। किसी भी स्थिति को प्राप्त देव, मनुष्य आदि योनियों में रहने वाले जीवात्मा के ये धर्म नहीं हो सकते। इसलिये वहाँ परब्रह्म परमेश्वर को ही विज्ञानमय तथा सूर्यमण्डलान्तर्वर्ती हिरण्मय पुरुष समझना चाहिये; अन्य किसी को नहीं। 

सम्बन्ध - इसी बातको सिद्ध करनेके लिये दूसरा हेतु प्रस्तुत करते हैं-भेदव्यपदेशाच्चान्यः ॥ १ । १ । २१॥

च-तथा; भेदव्यपदेशात्-भेद का कथन होने से; अन्यः सूर्यमण्डलान्तर्वर्ती हिरण्यमय पुरुष सूर्य के अधिष्ठाता देवता से भिन्न है।


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व्याख्या- बृहदारण्यकोपनिषद्‌ के अन्तर्यामिब्राह्मण में कहा कि-'य आदित्ये तिष्ठन्नादित्यादन्तरो यमादित्यो न वेद यस्यादित्यः शरीरं य आदित्यमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ।' 'अर्थात् जो सूर्यमें रहनेवाला सूर्यका अन्तर्वर्ती है, जिसे सूर्य नहीं जानता, सूर्य जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर सूर्य का नियमन करता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है।' इस प्रकार वहाँ सूर्यान्तर्वर्ती पुरुष का सूर्य के अधिष्ठाता देवता से भेद बताया गया है; इसलिये वह हिरण्मय पुरुष सूर्य के अधिष्ठाता से भिन्न परब्रह्म परमात्मा ही है।

सम्बन्ध - यहाँ तक के विवेचन से यह सिद्ध किया गया कि जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का निमित्त और उपादान कारण परब्रह्म परमेश्वर ही है; जीवात्मा या जड प्रकृति नहीं। इसपर यह जिज्ञासा होती है कि श्रुति (छा० उ० १।९।१)-में जगत्‌ की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का कारण आकाश को भी बताया गया है, फिर ब्रह्म का लक्षण निश्चित करते हुए यह कैसे कहा गया कि जिससे जगत्के जन्म आदि होते हैं, वह ब्रह्म है। इस पर कहते हैं-

आकाशस्तल्लिंगात् ॥ १। १। २२॥

आकाशः = (वहाँ) 'आकाश' शब्द परब्रह्म परमात्मा का ही वाचक है, तल्लिंगात् क्योंकि (उक्त मन्त्रमें) जो लक्षण बताये गये हैं, वे उस ब्रह्म के ही हैं।

व्याख्या- छान्दोग्य (१।९।१) में इस प्रकार वर्णन आया है-

 

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'सर्वाणि ह वा इमानि भूतान्याकाशादेव समुत्पद्यन्त आकाशं प्रत्यस्तं यन्त्याकाशो ह्येवैभ्यो ज्यायानाकाशः परायणम्।' अर्थात् 'ये समस्तभूत (पंचतत्त्व और समस्त प्राणी) निःसन्देह आकाश से ही उत्पन्न होते हैं और आकाश में ही विलीन होते हैं। आकाश ही इन सबसे श्रेष्ठ और बड़ा है। वही इन सबका परम आधार है।' इसमें आकाश के लिये जो विशेषण आये हैं वे भूताकाश में सम्भव नहीं हैं; क्योंकि भूताकाश तो स्वयं भूतों के समुदाय में आ जाता है। अतः उससे भूतसमुदाय की या प्राणियों की उत्पत्ति बतलाना सुसंगत नहीं है। उक्त लक्षण एकमात्र परब्रह्म परमात्मा में ही संगत हो सकते हैं। वही सर्वश्रेष्ठ, सबसे बड़ा और सर्वाधार है; अन्य कोई नहीं। इसलिये यही सिद्ध होता है कि उस श्रुति में 'आकाश' नाम से परमेश्वर को ही जगत्‌ का कारण बताया गया है।


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सम्बन्ध - अब प्रश्न उठता है कि श्रुति (छा० उ० १।११।५) में आकाश की ही भाँति प्राण को भी जगत्का कारण बतलाया गया है; वहाँ 'प्राण' शब्द किसका वाचक है? इसपर कहते हैं-

अत एव प्राणः ॥ १।१। २३॥

अत एव इसीलिये अर्थात् श्रुतिमें कहे हुए लक्षण ब्रह्म में ही सम्भव हैं, इस कारण वहाँ; प्राणः प्राण (भी ब्रह्म ही हैं)।

व्याख्या- छान्दोग्य० (१।११।५) में कहा है कि 'सर्वाणि ह वाइमानि भूतानि प्राणमेवाभिसंविशन्ति प्राणमभ्युज्जिहते ।' अर्थात् 'निश्चय ही ये सब भूत प्राणमें ही विलीन होते हैं और प्राण से ही उत्पन्न होते हैं।' ये लक्षण प्राणवायु में नहीं घट सकते; क्योंकि समस्त प्राणियों की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का कारण प्राणवायु नहीं हो सकता। अतः यहाँ 'प्राण' नाम से ब्रह्म का ही वर्णन हुआ है, ऐसा मानना चाहिये।

 



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