‘धर्म’ कभी नष्ट नहीं हो सकता ?

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  • मिस्टिक ज्ञान
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  • 31 October 2024
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कृपा शंकर बावलिया मुग्दल- धर्मग्रन्थों में दी गई “धर्म” की परंपरागत परिभाषाओं और मान्यताओं से परे हटकर हम स्वतंत्र रूप से विचार करें कि “धर्म” क्या है? 

धर्म से ही यह सृष्टि निर्मित हुई है, धर्म ने ही इसे धारण कर रखा है, और धर्म से ही इसका संहार होगा। धर्म कभी नष्ट नहीं हो सकता। धर्म है तभी तो सृष्टि का अस्तित्व है। धर्म नहीं होगा तो यह सृष्टि भी नहीं होगी। 

गंभीरता से विचार करें तो इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि धर्म कोई बाहरी अनुष्ठान नहीं है। धर्म एक आंतरिक अनुष्ठान है। जो सभी प्राणियों का धारण और पोषण करे वही धर्म है। अब प्रश्न यह उठता है कि वह क्या है जिसने इस सृष्टि को धारण कर रखा है?गंभीरता से चिंतन करता हूँ तो पाता हूँ कि इस सृष्टि का निर्माण तो “ऊर्जा” से हुआ है, लेकिन इसे “प्राण” ने धारण कर रखा है। 

ऊर्जा (Energy) के प्रवाह (Flow) की गति (Speed), स्पंदन (Vibration), और आवृति (Frequency)  से इस भौतिक जगत की सृष्टि हुई है। लेकिन बिना प्राण के यह सृष्टि भी निर्जीव है। अन्ततः मैं इस निर्णय पर पहुंचा हूँ कि ऊर्जा के पीछे भी प्राण-तत्व है, बिना प्राण के कोई ऊर्जा भी नहीं है। 

इस सृष्टि का उद्भव, इसकी स्थिति और इसका संहार “प्राण-तत्व” पर ही निर्भर है। हम अनेक देवी-देवताओं की उपासना करते हैं। उन सब देवी-देवताओं का अस्तित्व भी प्राण ही है। यदि उनमें से प्राण-तत्व निकाल दें तो वे सब देवी-देवता भी निर्जीव, शून्य और अस्तित्वहीन हैं। उनका अस्तित्व प्राण से ही है। अतः प्राण ही धर्म है, और प्राण की सृष्टि जिस विचार से हुई है, वह विचार ही परमात्मा है। यह मेरा अब तक का निष्कर्ष है कि — प्राण-तत्व को जानना/समझना, प्राण-तत्व की उपासना, और प्राण-तत्व के साथ एकाकार होना ही “धर्म” है। 

“प्राण ही धर्म है।” जहाँ हमारी बुद्धि काम नहीं करती वहाँ विवेक काम आता है। जहाँ विवेक भी काम नहीं करता, वहाँ हम एक अज्ञात शक्ति को परमात्मा कह देते हैं। अन्ततः असहाय होकर उस अज्ञात परमात्मा को समर्पित हो जाते हैं। अपनी सुविधा और स्वार्थ की पूर्ति के हेतु हम अनेक मत-मतांतरों, मज़हबों और रिलीजनों की सृष्टि कर लेते हैं, पर उनसे कभी किसी को तृप्ति, संतोष व आनंद नहीं मिलता है। ये हमें परमात्मा की प्राप्ति नहीं करा सकते। मेरा विवेक कहता है कि पहले प्राण-तत्व को समझो, यही धर्म है। फिर प्राण-तत्व ही परमात्मा का बोध करायेगा। 

मुझे तो परमात्मा की अनुभूति — परमप्रेम और आनंद के रूप में होती है। उनका कोई भौतिक रूप नहीं है। सारे भौतिक रूप उनके ही हैं। प्राण-तत्व की अनुभूति मुझे “कुंडलिनी” महाशक्ति के रूप में होती है, जो प्राण का घनीभूत रूप है। परमात्मा की ऊंची से ऊंची जो परिकल्पना मैं कर सकता हूँ, वह “परमशिव” की है। परमशिव का बोध भी कुछ-कुछ आंशिक रूप में होता है। यह अनुभवजन्य आस्था भी है कि कुंडलिनी महाशक्ति का परमशिव से मिलन ही योग है। इस प्राण-तत्व की साधना ही एक न एक दिन परमशिव से मिला देगी। 

परमशिव से प्रार्थना :— हे मेरे प्राण और अस्तित्व परमशिव, मैं एक सलिल-बिन्दु हूँ और आप महासागर हो। मुझे अपने साथ एक करो। सब तरह की बाधाओं को दूर करो, और मुझे अपना परमप्रेम दो। और कुछ भी मुझे नहीं चाहिए। ॐ ॐ ॐ !! मैं नहीं चाहता कि मैं किसी पर भार बनूँ  — न तो जीवन में और न ही मृत्यु में। मैं नित्य मुक्त हूँ, मेरे परमप्रिय परमात्मा परमशिव की इच्छा ही मेरा जीवन है। मेरा आदि, अंत और मध्य — सब कुछ वे ही हैं। मेरा अंतःकरण, सारे बुरे-अच्छे कर्मफल, पाप-पुण्य, और कर्म परमशिव परमात्मा को अर्पित हैं। मुझे कोई उद्धार, मुक्ति या मोक्ष नहीं चाहिए। मेरी अभीप्सा सिर्फ उनका परमप्रेम पाने की है। 

“उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्। 

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।६:५।। (गीता) 

अर्थात् — मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिये और अपना अध: पतन नहीं करना चाहिये; क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा (मनुष्य स्वयं) ही आत्मा का (अपना) शत्रु है॥ 

श्रुति भगवती कहती है — 

“एको हंसो भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्नि: सलिले संनिविष्ट:। 

तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेSयनाय॥” (​श्वेताश्वतरोपनिषद् ६/१५). 

अर्थात् — इस ब्रह्मांड के मध्य में जो एक “हंसः” यानि एक प्रकाशस्वरूप परमात्मा परिपूर्ण है; जल में स्थितअग्नि: है। उसे जानकर ही (मनुष्य) मृत्यु रूप संसार से सर्वथा पार हो जाता है। दिव्य परमधाम की प्राप्ति के लिए अन्य मार्ग नही है॥ 

गुरुकृपा से इस सत्य को को समझते हुए भी, यदि मैं अपने बिलकुल समक्ष परमात्मा को समर्पित न हो सकूँ तो मेरा जैसा अभागा अन्य कोई नहीं हो सकता।  हे परमशिव, मैं तो निमित्तमात्र आप का एक उपकरण हूँ। इसमें जो प्राण, ऊर्जा और उसके स्पंदन, आवृति और गति आदि हैं, वे तो आप स्वयं हैं। मैं एक सलिल-बिन्दु हूँ तो आप महासागर हो। मैं जो कुछ भी हूँ वह आप ही हो। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!



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