डॉ. विजय शंकर पाण्डेय। Mystic Power- नाद के माध्यम से ही श्रोता प्राकृत ध्वनियों के ग्रहण में समर्थ होता है। नाद को ध्वनि का विवर्त माना गया है। प्राकृत ध्वनि को ध्वनि एवं वैकृत ध्वनि को नाद भी कहा जा सकता है। उच्चारणावयवों के सम्पर्क से वायु में उत्पन्न होने वाला स्पन्दन प्राकृत अवस्था है तथा उससे श्रुतिगोचर होने वाला तत्त्व अर्थात् 'नाद' ध्वनि की वैकृत अवस्था है। इस प्रसंग में यह भी कह देना आवश्यक है कि जितना समय वक्ता को ध्वनि के उच्चारण करने में लगता है, उतना ही समय श्रोता को उसके ग्रहण करने में भी लगता है। उच्चारण की पूर्णता पर ही नाद-ग्रहण की पूर्णता निर्भर करती है। जब तक हम उच्चारण करते हैं, तब तक ये ध्वनियाँ वर्ण ही होती हैं। उच्चारण समाप्त होते ही ये शब्द बन जाती हैं।
भतृहरि के अनुसार नाद और ध्वनि दोनों से बुद्धि में शब्द का अवधारण होता है। नाद और स्फोट में अन्तर यह है कि नाद व्यञ्जक है, तथा स्फोट व्यङ्ग्य है।प्रातिशाख्यों में नाद और श्वास को वर्णों की मूलप्रकृति माना गया है।' यह विचार भी अत्यन्त वैज्ञानिक सिद्ध हुआ है। वायु जब पुरुष-प्रयत्न के अनुसार स्वर तन्लियों से टकराती है, तभी वह नादरूप में परिणत हो जाती है। इस अवस्था तक ध्वनि उत्पन्न हो तो जाती है, परन्तु वह वर्ण के रूप में अभिव्यक्त नहीं हो पाती ।
तात्पर्य यह है कि जब वायु स्वरतन्लियों से घर्षण करती है तो घर्षण के फलस्वरूप एक प्रकार की ध्वनि होती है। वही ध्वनि नाद रूप में परिवर्तित हो जाती है। तीसरी स्थिति में वही नाद वर्णों के रूप को ग्रहण कर लेता है । वस्तुतः वायु को वर्ण के रूप में परिवर्तित होने में तोन स्थितियों में विकृत होना पड़ता है । सर्वप्रथम स्वरतन्त्रियों के साथ संघर्षण करके यह वायु ध्वनि के रूप में परिर्वोतत होती है, पुनः ध्वनि नाद के रूप में परिणत हो जाती है तथा अन्तिम अवस्था में नाद वर्ण के रूप को ग्रहण करता है ।
व्याकरणदर्शन के अनुसार स्वरतन्त्रियों के माध्यम से वायु में होने वाला स्पन्दन ही प्राकृत ध्वनि है तथा उससे उत्पन्न होने वाली ध्वनि वैकृत है। प्राकृत ध्वनि जब मुखविवर अथवा नासिका-विवर मार्ग से बाहर निकलने के लिए उद्यत होती है, तभी उसमें पुरुषकृत विभिन्न प्रयत्नों से विकार लाकर उसे वैकृत ध्वनि का रूप प्रदान कर दिया जाता है। उपर्युक्त विवेचन के आधार पर निष्कर्ष स्वरूप यह कहा जा सकता है कि प्राचीन वेयाकरणों ने ध्वनि के सम्बन्ध में अत्यन्त सूक्ष्म विचार किया है ।
वास्तव में मनुष्य के मस्तिष्क में ध्वनि उत्पत्ति के पूर्व भी कई प्रकार की क्रियाएँ होती है । उन सबका सम्बन्ध प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में ध्वनि के साथ अवश्य रहता है। ध्वनि-उत्पत्ति की प्रक्रिया के सम्बन्ध में शिक्षाकारों ने आत्मा को सर्वाधिक सक्रिय माना है। बात्मा ही कथनीय शब्द या वाक् को बुद्धि को प्रदान करता है। अर्थात् उसे बुद्धि के साथ संयुक्त करता है। तब बुद्धि उसे मन से संयुक्त करती है मन कायाग्नि को प्रेरित करता है। इतनी प्रक्रिया हो जाने के बाद कायाग्नि के चलायमान होने से वायु ऊपर उठता है, और ध्वनि के रूप में परिणत होने के योग्य बनता है। इन सभी क्रियाओं में ध्वनि-उत्पन्न करने का ही प्रयोजन निहित रहता है। अतः वाक् की सत्ता किसी न किसी रूप में ध्वनि के श्रुतिगोचर होनेके पूर्व भी अवश्य रहती है। इस प्रकार भतृहरि का वाणी-विभाजन भी पूर्णत ध्वनि-विज्ञान पर आधारित है ।
भाषा-विज्ञान में मनुष्य के मुख से निःसृत एवं श्रोलेन्द्रिय द्वारा गृहीत सार्थक ध्वनियों को ही अध्ययन का विषय बनाया गया है। क्योंकि ध्वनि का सम्बन्ध भाषा से है तथा भाषा का कार्य है-विचारों का आदान-प्रदान । इसलिये ध्वनिशास्त्र के अन्तर्गत केवल उन्हीं ध्वनियों का अध्ययन किया जाता है, जिनका सम्बन्ध मनुष्य की वागिन्द्रिय एवं श्रोलेन्द्रिय से होता है। आधुनिक भाषा-वैज्ञा- निकों ने उसी गुण को ध्वनि माना है, जिसकी निष्पत्ति पुरुष की इच्छानुसार उसको वागिन्द्रिय से होती है और जिसका ग्रहण श्रोता के श्रोलेन्द्रिय द्वारा होता है। डॉ० सुनीति कुमार चटर्जी ने ध्वनि का अर्थ बोल-चाल को ध्वनि किया है तथा उसे उच्चारणावयवों से उत्पन्न होने वाला गुण स्वीकार किया है। ध्वनि- विज्ञान के अन्तर्गत उन्हीं ध्वनियों का अध्ययन किया जाता है जो मनुष्य की वागिन्द्रिय से उत्पन्न होती हैं ।
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