- धर्म-पथ
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31 October 2024
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महामण्डलेश्वर स्वामी सहजानन्द गिरिजी महाराज-
शारदीय नवरात्र प्रारम्भ है, भगवती उपासना के प्रथम दिन मां शैलपुत्री का पूजन किया जाता है, ध्यान योगी नवरात्र के प्रथम दिन मूलाधार-चक्र पर ध्यान लगाते है, यह चक्र रीढ़ की हड्डी के अंतिम छोर पर होता है, इसे आधार-चक्र भी कहते हैं, निरंतर ध्यान लगाने से मुलाधार-चक्र के वास्तविक स्थान का पता चल जाता है। कुल-कुण्डलिनी शक्ति मूलाधार-चक्र में ही स्थित होती है, आत्मकल्याण की कामना से युक्त साधक को आराम से सुखासन में बैठकर अपने मन को मूलाधार-चक्र पर केंद्रित करना चाहिए और साक्षीभाव मे रहना चाहिए। ऐसा कम से कम तीस मिनट तक दिन में दो तीन बार करना चाहिए।
(आधार-चक्र) कुंडलिनी-शक्ति जागरण साधना के अति महत्वपूर्ण सप्तचक्रों में से प्रथम यह आधार-चक्र मनुष्य शरीर के पृष्ठभाग में रीढ़ की हड्डी के अंतिम छोर पर तथा सामने की ओर से जन्नेन्द्रिय और गुदामार्ग के ठीक बीच में स्थित होता है, इस स्थान पर श्याम आभा से युक्त लाल वर्ण की एक ब्रह्मग्रंथि होती है, इसका लाल रंग जीवन और भौतिक ऊर्जा का द्योतक है, मूलाधार-चक्र चतुर्भुज के आकार में चार पंखुड़ियों वाले कमल के फूल के समान होता है, जिसके निचले भाग में सुषुम्ना नाड़ी का मुख होता है, तथा इस कमल के अन्दर (योनि का प्रतिरूप त्रिकोण) होता है, तथा त्रिकोण में एक गुप्त शिवलिंग अवस्थित होता है, जिस पर सर्पाकार कुण्डलिनी लिपटी होती है, मूलाधार-चक्र में चार ध्वनियों –वं, शं, षं, सं से युक्त चार नाड़ियां होती हैं, जो मस्तिष्क और हृदय से जुड़ी होती हैं, जिसके कारण मनुष्य के मस्तिष्क और ह्रदय इन चारों ध्वनियों से कंपित रहते हैं, तथा मनुष्य के शरीर का स्वास्थ्य भी इन्हीं ध्वनियों पर निर्भर करता है।
मूलाधारचक्र पृथ्वी, मातृभूमि, संस्कृति, जीवन से सम्बंधित ऊर्जा और जीवन का महत्वपूर्ण केन्द्र और रूप, रस, गंध, स्पर्श, भावों व शब्दों का मेल तथा अपानवायु का स्थान है, तथा मल, मूत्र, वीर्य, प्रसव आदि से संबंधित विसर्जन की समस्त क्रियाओं का संचालन केन्द्र भी है, तथा समस्त योगशास्त्रों में इसको विश्व निर्माण का मूल केन्द्र भी माना गया है, और प्रत्येक मनुष्य की दिव्य शक्ति का विकास, मानसिक विकास, और परम चैतन्यता का मूल स्थान भी मुलाधार-चक्र ही है, इसलिए मूलाधार-चक्र को स्वस्थ रखने के लिए ध्यान-योग साधना के माध्यम से सांसारिक व आध्यात्मिक शक्तियों के बीच तालमेल बनाए रखना चाहिये। शारीरिक रूप से मूलाधार-चक्र काम-वासना को, मानसिक रूप से स्थायित्व को, भावनात्मक रूप से इंद्रिय सुख को और आध्यात्मिक रूप से सुरक्षा की भावना को नियंत्रित करता है, यह प्रवृत्ति, रक्षा, अस्तित्व और मानव की मौलिक क्षमता से संबंधित होती है, तथा प्राणीमात्र के मन में स्थित भय, क्रोध, संताप, लालसा और अपराध-बोध आदि भी मुलाधार-चक्र से सम्बंधित अवस्थाएं है। इसलिए यह स्वर्ग और नर्क दोनों का ही द्वार माना जाता है, तथा मूलाधार-चक्र में सुशुप्तावस्था में स्थित कुण्डलिनी उर्जा-शक्ति ही मनुष्य जीवन की परम चैतन्य शक्ति है, तथा ब्रह्माण्ड के निर्माण में आवश्यक सभी तत्व व इनका तत्त्वज्ञान आधार-चक्र में कुण्डलिनी उर्जा-शक्ति के रूप में स्थाई रूप में स्थित होते हैं।
ध्यान-योग साधना क्रिया द्वारा इस उर्जा-शक्ति को जाग्रत कर साधक द्वारा अदभुत शारीरिक और आध्यात्मिक परिवर्तनों का अनुभव किया जा सकता है, मुलाधार-चक्र के देवता भगवान् गणेश और इसका बीज मंत्र ‘ लं ‘ है, इसका परम शुद्ध रूप से निरंतर ध्वन्यात्मक उच्चारण करने से साधक की असुरक्षित होने की भावना दूर होती है और उसमें सुरक्षा जाग्रति एवं उच्च मनोबल का प्रसारण होता है, (लं) बीजमंत्र की सही ध्वनि होठों को भींचकर जिव्हा द्वारा तालु में आघात करने से उत्पन्न होती है, तथा ध्वनि की शुद्धि के परिणामस्वरूप मुलाधार-चक्र की समस्त नाड़िया उत्तेजित होकर अवरोधक बन जाती हैं जिसके फलस्वरूप अधोमार्गी उर्जाशक्ति की उर्ध्वगति प्रारंभ होती है।
इस चक्र का संतुलन बिगड़ने पर इसके दुष्प्रभाव से प्रभावित व्यक्ति परम आलसी, कामचोर, डरपोक, निर्धन, आत्मबलहीन, निरंतर आत्महनन के विचार करने वाला तथा शारीरिक रूप से कमजोर, व डिप्रेशन से ग्रस्त होता है, जो मानसिक असंतुलन जनित क्रोध, व्यग्रता शारीरिक असंतुष्टि व कामुकता संबंधित दोषों से युक्त होता है। तथा इसके दुष्प्रभाव से रक्त-अल्पता, थकावट, पीठ के निचले हिस्से में दर्द, हड्डियों के रोग, शियाटिका, अवसाद, सर्दी, हाथ-पैर ठंडे रहना आदि व्याधियां मनुष्य शरीर में उत्पन्न हो जाती हैं, इन दुर्गुणों तथा व्याधियों से मुक्त होने के लिए सर्वप्रथम साधक को विधि-विधान से मुलाधार-चक्र पर ध्यान केंद्रित करके गणपति साधना (गं) बीजमंत्र के द्वारा प्रारंभ कर (ॐगं गणपतये नमः) मंत्र का 600 बार जप करना चाहिए, फिर उसके पश्चात मुलाधार-चक्र के बीजमंत्र (लं) के अवधान से साधना करनी चाहिए। सद्गुरु कृपा से नित्य-निरंतर साधना के परिणामस्वरूप साधक इन समस्त मानसिक विकारों व शारीरिक व्याधियों से सहजता और सरलता से मुक्त हो जाता है।