डा. दिलीप कुमार नाथाणी (विद्यावाचस्पति)-
जिस समय विदुर जी अपने बड़े भाई के आदेश रूपी द्यूत का प्रस्ताव लेकर युधिष्ठिर के पास गए उस समय ही युधिष्ठिर ने अक्षसूक्त कहा था कि काका श्री आप यह प्रस्ताव लेकर आए हैं क्या आप जानते नहीं कि द्यूत कितना भयानक है द्यूत खेलने वाले की सम्पत्ति ही नहीं जाती वरन् उसके स्त्री व पुत्र भी अन्य के सेवक बन जाते हैं।
पर विदुर व युधिष्ठिर दोनों ही आदेश व धर्म पालना में बंधे थे।
युधिष्ठिर को ज्ञात था कि अब छल होगा और उसने यह ही द्यूत खेला कि हर दांव अपने बड़े पिता से खेला कि सम्भव है कि अब तो यह जिसे मैं अपना पिता कह रहा हूं वह कह दे कि अब बस करो पर धृतराष्ट्र ने यह नहीं किया वह तो गांधारी के उस सभा में उपस्थित होने पर वह सभी कुछ लौटाने को विवश हुआ।
पर दुर्योधन ने पुनः अन्तिम दांव के लिए अपने पिता को विवश किया या कहें कि वह महत्त्वकांक्षी धृतराष्ट्र दुर्योधन के माध्यम से अपनी महत्तवकाक्षाओं को पूरा कर रहा था।
इसलिए युधिष्ठिर जी को धर्मराज कहा है कि सभी अनिष्टों को एवं स्वयं पर लगने वाले लांछनो को जानते हुए भी धर्म का मार्ग नहीं त्यागा।
आवश्यकता है हम सभी 100000 श्लोकों वाली महाभारत का बिना प्रक्षिप्तांश आदि किसी पूर्वाग्रह के अध्ययन करें।
शंका हो सकती है कि उन्होंने प्रस्ताव ठुकराया क्यों नहीं ? आपने पूरा उत्तर पढ़ा नहीं वे धर्म भीरु थे। यह ही कारण है कि उन्हें धर्मराज कहा जाता है ।
इसलिए प्रातः श्लोकों में कहा है -
पुण्य श्लोको नलो राजा पुण्य श्लोक जनार्दन:। पुण्य श्लोका च वैदेही पुण्य श्लोको युधिष्ठिर:।
एक अन्य श्लोक है -जिसमें कहा है धर्मो विवर्धति युधिष्ठिर कीर्तनेन
अतः वे प्रस्ताव ठुकरा नहीं सकते थे।
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