वामपन्थियों की द्रविड़ यात्रा
२२ से २५ दिसम्बर, २०२४ को तंजाउर में भारतीय ज्ञान पद्धति के सम्मेलन में भाग लेने का अवसर मिला। अपनी तरफ से कुछ कहने की अनुमति नहीं मिली किन्तु कई विशेषज्ञों से व्यक्तिगत रूप से विचारों का आदान प्रदान हुआ। भारतीय ज्ञान पद्धति के प्रचारक भी वही साहित्य पढ़े हैं जो ऑक्सफोर्ड निर्देश से वामपन्थियों ने लिखा था। केवल २०१४ में सत्ता परिवर्तन से इनका राजनैतिक हृदय परिवर्तन हो गया है। संघ प्रचारक हों या नये भारतीय, इनके लिए कोई बात तभी प्रामाणिक है जब कोई विदेशी इसे स्वीकार करे।
एक विद्वान् ने पहली बार न्यूजीलैण्ड में गीता के विषय में सुना। अमेरिका में उनको पता चला कि एडविन अर्नाल्ड ने इसकी टीका भी लिखी है। शंकराचार्य ने भी गीता पढ़ी थी इसका अभी पता नहीं चला। एक सामान्य बहाना है कि उनको संस्कृत नहीं आती है। किसी विदेशी ने आज तक नहीं कहा कि उनको संस्कृत नहीं आती अतः भारत के विषय में कुछ नहीं कह सकते।
भारत की एकमात्र भाषा संस्कृत ही है, सभी भाषायें उसी का क्षेत्रीय रूप हैं। किसी इतिहास लेखक ने अभी तक किसी भारतीय संवत्सर या शक का नाम नहीं सुना है। युधिष्ठिर से शालिवाहन तक के शकों को विदेशी शक घोषित कर दिया, जिन्होंने आज तक कोई कैलेण्डर नहीं बनाया (अल बरूनी की पुस्तक-प्राचीन देशों की कालगणना)। काल गणना का एकमात्र आधार मेगास्थनीज की सन्दिग्ध पुस्तक है, जिसे अपनी सुविधा के अनुसार बदलते रहते हैं। टालेमी के अनुसार वहां कोई कैलेण्डर नहीं था, केवल राजाओं की शासन अवधि से उसने ऐतिहासिक काल गणना की है। पर कहते हैं कि ग्रीक और रोमन तिथि देते थे, भारतीय लोग तिथि नहीं देते थे। अभी केवल नासा के कैलेण्डर सॉफ्टवेयर द्वारा भारतीय तिथियों को बदलने का अभियान चला है। उसमें स्वयं स्पष्ट किया गया है कि ३००० ईपू की गणना में ३ दिन तथा ५००० ईपू की गणना में १० दिन तक की भूल हो सकती है। भारत में इस त्रुटि के शोधन के लिए ५ प्रकार से दिन निर्धारण तथा ५ प्रकार से युग निर्धारण की व्यवस्था थी-पञ्चसंवत्सरमयं युगं (वेदाङ्ग ज्योतिष)। ब्रह्मगुप्त तथा भास्कराचार्य ने १२,००० वर्ष के चक्र में बीज संस्कार का आगम अनुसार उल्लेख किया है जिससे स्पष्ट है कि १२,००० वर्षों के ऐतिहासिक युग में काल गणना होती थी।
भागवत माहात्म्य में कहा जाता है कि भक्ति तथा उसकी सन्तान ज्ञान और वैराग्य का जन्म द्रविड़ में हुआ, वृद्धि कर्णाटक में हुयी, महाराष्ट्र तक विस्तार हुआ, तथा गुर्जर पहुंचने तक समाप्त हो गया।
उत्पन्ना द्रविडे साहं वृद्धिं कर्णाटके गता। क्वचित् क्वचित् महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता॥ (पद्म पुराण, उत्तर खण्ड, भागवत माहात्म्य, १/४८)
इन क्षेत्रों का नामकरण इसी आधार पर है। कर्णाटक अलग से कहा है, अतः द्रविड़ का अर्थ आन्ध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु है।
ऋग्वेद के प्रथम सूक्त में ही २ शब्द हैं जिनका प्रयोग केवल द्रविड़ में है-दोषा-वस्ता = रात-दिन। रात्रि भोजन दोषा है, वस्ता के स्वामी सूर्य कि लिए एक पुराना तेलुगू गीत हिन्दी में था-रमैया वस्ता वैया, मैंने दिल तुझको दिया। २००१ के श्रीशैलम के वैदिक सम्मेलन में लोकों की माप पर मैंने लेख पढ़ा तो आरम्भ में मैंने कह दिया कि भारत वेद भूमि है। माप कितना सही है, इसकी चर्चा के बदले अंग्रेजी माध्यम के संस्कृत विद्वान् केवल इसी का विरोध करने लगे। इसका मेरे विषय से कोई सम्बन्ध नहीं था अतः चुप रहा। अचानक एक प्रसिद्ध प्राध्यापक ने आन्ध्र को द्रविड़ भूमि सिद्ध करने के लिए ऋग्वेद का एक मन्त्र कहा जिसके २ शब्दों का प्रयोग केवल तेलुगू में होता है-कृषक के लिए रेड्डी, नौसेना प्रमुख के लिए सुपर्ण (सुवन्ना)-नायक (गुणवन्त आचार्य का तेलुगू उपन्यास-विजय नगर)।
एकः सुपर्णः स समुद्रमाविवेश स इदं भुवनं वि चष्टे ।
तं पाकेन मनसापश्यमन्तितस्तं, माता रेऴ्हि स उ रेऴ्हि मातरम् ॥ (ऋक्, १०/११४/४)
पूछना पड़ा कि जो उद्धृत कर रहे हैं उसका अर्थ पता है कि नहीं? वह क्रुद्ध हुये और कहा कि प्रोफेसर इमेरिटस हैं तथा ३८ शोध उनके निर्देश में हो चुके हैं। पर अपने मन्तव्य के विपरीत उद्धरण दे रहे थे।
वेद निसर्ग (प्रकृति) से प्राप्त ज्ञान होने के कारण निगम है। यह श्रुति आदि ५ ज्ञानेन्द्रियों तथा २ प्रकार के अतीन्द्रिय ज्ञान होने के कारण श्रुति कहते हैं। श्रुति का ग्रहण कर्ण से होता है, अतः शब्दों के अर्थ की जहां वृद्धि हुयी, वह कर्णाटक हुआ। यहां वृद्धि का अर्थ वृद्धि सन्धि नहीं है. भौतिक शब्दों के अर्थ का ७ संस्थाओं में विस्तार है-आधिदैविक, आध्यात्मिक, तथा आधिभौतिक की ५ संस्थायें-भौगोलिक, ऐतिहासिक (निपात आदि), वैज्ञानिक, व्यावसायिक।
सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक्। वेद शब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे॥(मनु स्मृति, १/२१)
यास्सप्त संस्था या एवैतास्सप्त होत्राः प्राचीर्वषट् कुर्वन्ति ता एव ताः। (जैमिनीय ब्राह्मण उपनिषद्, १/२१/४)
छन्दांसि वाऽअस्य सप्त धाम प्रियाणि । सप्त योनीरिति चितिरेतदाह । (शतपथ ब्राह्मण, ९/२/३/४४, वाज. यजु ,१७/७९)
अध्यात्ममधिभूतमधिदैवं च (तत्त्व समास,
स्पष्ट रूप से समुद्र सम्बन्धित शब्दों को उत्तर प्रदेश और राजस्थान में खोजना उचित नहीं है, वे दक्षिण भारत के समुद्र तट पर ही प्रचलित होंगे। परिवेश को महर् (महल) कहते हैं, अतः जहां तक वेद का विस्तार हुआ वह महाराष्ट्र हुआ। गुर्ज (लाठी) से माप होती है, अतः वैदिक क्षेत्र सीमा गुर्जर (गुजरात) हुयी।
आज भी भारतीय ज्ञान तथा शोध परम्परा दक्षिण भारत में ही अधिक है। शिल्प शास्त्र की परम्परा तमिलनाडु में ही अधिक सुरक्षित है। स्वर्गीय गणपति स्थपति ने इसके उद्धार के लिए कई पुस्तकें लिखी हैं तथा उनके कई शिष्य भारत तथा विदेश में हैं। ओड़िशा में भी पण्डित सदाशिव रथ शर्मा ने इसकी कुछ व्याख्या की थी पर उनसे प्राप्त कर जर्मनी की बेट्टिना बाउमर की ही ख्याति हुई। तंजाउर सम्मेलन में शिल्पशास्त्र के कई शोध पत्रों आये थे, प्रायः सभी आधुनिक आर्किटेक्चर के विशेषज्ञ थे। पिंगल छन्द शास्त्र तथा चित्र बन्ध पर भी शोध लेख मिले।
एक अन्य योजना के विषय में चर्चा हुई-पाण्डु लिपियों को मशीन द्वारा पढ़ने की। भारतीय लोगों ने प्रायः आत्म प्रशंसा में समय बिताया। वास्तविक कार्य जापान के श्री काटो ने किया है। जापानी लिपि बहुत कठिन है, उसे मशीन द्वारा पढ़ने की पद्धति को देवनागरी के लिए थोड़ा परिवर्तित किया है। उनके अनुसार प्रायः ९८% शुद्धता से मशीन द्वारा पढ़ सकते हैं। अंग्रेजी (रोमन लिपि) बहुत सरल है, अक्षर अलग अलग हैं। भारतीय लिपियों में ४-५ वर्ण संयुक्त हो जाते हैं तथा उनको भिन्न भिन्न प्रकार से लिखते हैं।
कम्प्यूटर (कृत्रिम बुद्धि) द्वारा वेद व्याख्या की योजना भी तिरुवनमलै में चल रही है, जिसे कैलिफोर्निया की नापा संस्था का सहयोग है। मुझे भी आमन्त्रण मिला था तथा प्रति मास ५ लाख तक देने का प्रस्ताव था (अमेरिका के लिए यह सामान्य वेतन है)। पर मुझे यह सम्भव नही लगता, अतः स्वीकार नहीं किया। हर स्तर पर विशेष कठिनाई है। पहले तो अक्षर पढ़ने की है जिसमें ४-५ वर्ण संयुक्त होते हैं। उसके बाद शब्दों का कोष बनाना भी अंग्रेजी जैसा सरल नहीं है। शब्दों के मूल रूप के ही अर्थ हैं, संज्ञा के ७ कारक तथा ३ वचनों के रूप नहीं हैं। धातु के १० लकार, ३ पुरुष, ३ वचन रूप नहीं है। सन्धि, समास, पद-वाक्य रचना से १२ प्रकार की शब्द शक्ति (मीमांसा) आदि कई समस्या हैं। संख्या का निर्देश कटपयादि सूत्र या कूट शब्दों में समस्या आती है कि संख्या कहां पूर्ण हुयी। द्वि-रद को २ शब्द मानें तो इसका अर्थ ३२२ है, एक शब्द मानें तो ८ है। वेद मन्त्रों के अर्थ छन्द तथा पाद अनुसार होते हैं, उनको मिला कर अपने मत अनुसार अर्थ नहीं बदल सकते। भिन्न प्रकार के अर्थ ३ या ७ संस्था, विनियोग अनुसार होंगे। यजुर्वेद में यज्ञ अनुसार, सामवेद में साम (महिमा) और संगीत अनुसार अर्थ होंगे। इनकी कल्पना भी कठिन है। यदि स्वयं नहीं समझे तो मशीन को नहीं समझा सकते हैं।
अरुण कुमार उपाध्याय धर्मज्ञ
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