गोविन्द स्वधर्म रहस्य

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  • मिस्टिक ज्ञान
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  • 31 October 2024
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श्री सुशील जालान (ध्यान योगी )-   आद्य शंकराचार्य अपनी प्रसिद्ध रचना "भज गोविन्दम्" में कहते हैं, "पुनरपि जन्मं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्"।   -  मृत्यु और पुनर्जन्म के इस दुष्चक्र को तोड़ने के लिए, भगवान् श्रीकृष्ण की उपाधि गोविंद का भजन कर है मूढ़ मन, यथा -   "भज‌गोविनदम्भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् मूढ़ मते"।

  

*  गोविन्द का अर्थ है, गो + विन्द,   गो धर्म की द्योतक है, तथा विन्द स्वामी का, अर्थात्, जो धर्म रूपी तत्त्व का स्वामी है, वह गोविंद है।   प्रकारान्तर से, जो धर्म का पालन करता है, वही स्वामी है, विन्द है, वन्दन योग्य है।   -  इसलिए गोविंद वह है जो धर्म के सिद्धांतों का पालन करता है, धर्मानुसार आचरण करता है। अत: स्वधर्म का पालन करने से मनुष्य को पुनर्जन्म से मुक्ति मिल जाती है, इस जन्म में ही मोक्ष उपलब्ध होता है।   *  कर्त्तव्य पालन ही स्वधर्म है, स्थान, काल तथा पात्र को‌ ध्यान में रख कर किया गया कर्म, कर्मफल में आश्रित हुए बिना। इसे ही निष्काम कर्मयोग भी कहा गया है।   -  श्रीमद्भगवद्गीता (6.1) -   "अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य:।"   स्वधर्म पालन श्रेष्ठ कर्म है, हर परिस्थिति में। श्रीमद्भगवद्गीता (3.35) कहती है,   "स्वधर्मे निधनं श्रेय:" अर्थात्, स्वधर्म पालन करने में मृत्यु भी हो जाए तो‌ वह वरण योग्य है, श्रेयस्कर है।   योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण का नित्य स्मरण, गोविन्द नाम का बार-बार भजन, जप करने से साधक गोविंद शब्द में निहित गुणों को धारण करता है, यानि कि स्वधर्म का पालन करता है, सभी काल व परिस्थितियों में, कर्मफल में अनासक्ति के साथ, अनाश्रित होकर।   स्वधर्म का पालन करनेवाले को भगवान् श्रीकृष्ण की अनुकम्पा सहज ही प्राप्त होती है, जीवन में सुख, शान्ति तथा समृद्धि और जीवन के बाद मोक्ष व आध्यात्मिक आनंद श्रीकृष्ण के स्वधाम गोलोक में।



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