श्रंगी ऋषि कृष्ण दत्त जी Mystic Power- महाराजा हनुमान पवन पुत्र कहलाते थे। वे अञ्जना के पुत्र थे। महाराजा महीवृत केतु राजा की कन्या का नाम अञ्जना था। अञ्जना के पुत्र जो हनुमान हुए पवन पुत्र कहलाते थे। महाराजा महीन्द्र राजा के राजकुमार पवन कहलाते थे मुझे वह काल स्मरण है जब वह बाल्यकाल से माता अञ्जना के गर्भ में क्रीड़ा करता रहता था। बाल्यकाल में वह विचारता रहता। बाल्यकाल में कि माता यह सूर्य क्या पदार्थ है?
यह सूर्य क्या है? तो माता उसे यह शिक्षा देती थी कि पुत्र! यह जो सूर्य है यह प्रकाशक है, यह प्रकाश को देने वाला है। नाना प्रकार की किरणें आ करके हमारे को प्रकाशित करती रहती हैं। माता जब यह विचार देती रहती तो एक समय बाल्यकाल में इस बालक ने यह कहा कि माता! मेरा हृदय तो ऐसा कह रहा है कि सूर्य की आभा को मैं अपने में निगलना चाहता हूँ। अपने में धारण करना चाहता हूँ। उन्होंने कहा कि पुत्र! वह भी समय आएगा।
माता के स्थल में होने वाला बालक हनुमान वह सारी सूर्य विद्या का विशेषज्ञ बना। माता की अनुपम शिक्षा थी। सूर्य के विज्ञान को जानने वाला, सूर्य की जितनी विद्या है, प्रकाश है उसे वह स्वयं अपने में निगलता रहता था। जब वह ब्रह्मचारी ४८ वर्ष का हुआ तो महाराजा सुग्रीव की कन्या से उसका संस्कार हुआ । उनकी कन्या से जो संस्कार हुआ तो उस संस्कार के पश्चात एक पुत्र को जन्म दे करके उस कन्या का निधन हो गया। निधन हो जाने के पश्चात माता ने पुनः कहा कि पुत्र!तुम संस्कार कराओ। उन्होंने कहा कि मातेश्वरी! अब मैं परमात्मा के विज्ञान में जाना चाहता हूँ, अब मैं इस प्रकृतिवाद को जानना चाहता हूँ, मुझे संस्कार की इच्छा नहीं। क्योंकि पितर याग का मेरा उद्देश्य पूर्ण हो गया है।
पितर याग क्या है? मेरे पितरों ने जो याग किया था मुझे उत्पन्न किया। मैंने एक पुत्र का जन्म दिया मेरी पत्नी समाप्त हो गई। उसका कार्य पूर्ण हो गया। वही क्रिया हनुमान जी ने ऋषि के द्वार पर प्राप्त की। उस विद्या को पान करने वाले हनुमान जी वे अपने शरीर को ऊर्ध्वा में भी बना लेते थे और आकुञ्चन कर लेते थे। जैसे प्रकृतिवाद को एक योगी सर्वत्र ब्रह्माण्ड को अपने अन्तरात्मा में दृष्टिपात करने लगता है, अपने में मन और प्राण को धारण करके संसार में मन और प्राण की रचना को दृष्टिपात करता है, इसी प्रकार एक योगी, एक साधक अपने शरीर को इतना सूक्ष्म बना लेता है। अपनी अस्थियों को प्राण को अर्पित करके, मन को अर्पित करके, अपने शरीर को आकुञ्चन बना करके वह सुरसा जैसे मुखारबिन्द में परिणित हो जाना और उससे बाहर आ जाना यह सब इन प्राणों की ही विशेषता है, आकुञ्चन क्रिया है जिसको जान करके मानव को आश्चर्य होता है। क्योंकि उसका अध्ययन न होने के कारण मानव नाना प्रकार की टिप्पणियां कर सकता है।
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