जानिये हनुमान शब्द की व्याख्या

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  • महापुरुष
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  • 31 October 2024
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सुन्दर कुमार (प्रधान  संपादक )-

हनुमान शब्द की व्याख्या यद्धपि आसान नही है। फिर भी इस  पोस्ट मे ‘हनुमान’ जी को समझने का  प्रयास करते हुए आईये चंचल  कपि मन और बुद्धि को केंद्रित कर  सत्संग का ही आश्रय लेते  हैं ।

हनुमान शब्द  में ‘ह’ हरि  यानी विष्णु स्वरुप है,  जो पालन कर्ता के रूप में वायु द्वारा शरीर,मन  और बुद्धि का पोषण करता है।कलेशों का हरण करता है । हनुमान शब्द  में ‘नु’ अक्षर  में ‘उ’ कार है, जो शिव स्वरुप है। शिवतत्व कल्याणकारक है ,अधम वासनाओं का संहार कर्ता है।शरीर ,मन और बुद्धि को निर्मलता प्रदान करता है । हनुमान शब्द  में ‘मान’ प्रजापति ब्रह्मा स्वरुप ही  है । जो सुन्दर स्वास्थ्य,सद्  भाव और सद् विचारों का सर्जन कर्ता है । निष्कर्ष हुआ कि  ह-अ,   न्- उ , म्-त  यानि हनुमान में  अ   उ   म्  अर्थात परम अक्षर ‘ऊँ’  विराजमान है  जो एकतत्व  परब्रहम  परमात्मा का प्रतीक है। 

जन्म मृत्यु तथा सांसारिक वासनाओं की मूलभूत माया का विनाश ब्रह्मोपासना के बिना संभव ही नही है। हनुमान का आश्रय लेने से मन की गति स्थिर होती है ,जिससे शरीर में स्थित पाँचो प्राण (प्राण , अपांन, उदान, व्यान ,समान) वशीभूत हो जाते हैं और साधक ब्रह्मानंद रुपी अजर प्याला पीने में सक्षम हो जाता है ।  

हनुमान जी  वास्तव में ‘जप यज्ञ’  व ‘प्राणायाम’ का  साक्षात ज्वलंत  स्वरुप ही हैं । आयुर्वेद मत के अनुसार शरीर में तीन तत्व  वात । पित्त  व कफ यदि सम अवस्था में रहें तो शरीर निरोग रहता है। इन तीनों मे वात  यानी वायु तत्व अति सूक्ष्म और प्रबल है। जीवधारियों का सम्पूर्ण पोषण-क्रम वायु द्वारा ही होता है ।

आयुर्वेदानुसार शरीर में दश वायु (१) प्राण (२) अपान (३) व्यान (४) उदान (५) समान (६) देवदत्त (७) कूर्म (८) कृकल (९) धनंजय  और (१०) नाग  का संचरण होना माना गया है । शरीर मे इन दशों वायुओं के कार्य भिन्न भिन्न हैं। हनुमान जी पवन पुत्र हैं । वायु से उनका घनिष्ठ सम्बन्ध है । शास्त्रों में उनको ग्यारहवें रूद्र का अवतार भी कहा गया है । एकादश रूद्र  वास्तव में आत्मा सहित उपरोक्त दश वायु ही माने गए हैं । अत : हनुमान आत्मा यानि प्रधान वायु के अधिष्ठाता  हैं । वात  या  वायु  के अधिष्ठाता होने के कारण हनुमान जी की आराधना से सम्पूर्ण वात व्याधियों का नाश होता है । प्रत्येक दोष वायु के माध्यम से ही उत्पन्न और विस्तार पाता है। यदि शरीर में वायु शुद्ध रूप में स्थित है तो शरीर निरोग रहता है । कर्मों,भावों और विचारों की अशुद्धि से भी  वायु दोष उत्पन्न होता है। 

वायु दोष को  पूर्व जन्म व इस जन्म में किये गए पापों के रूप में भी जाना जा सकता है । अत: असाध्य से असाध्य रोगी और जीवन से हताश व्यक्तियों के लिए भी हनुमान जी की आराधना  फलदाई है। 

गोस्वामी तुलसीदास की भुजा में जब वायु  प्रकोप के कारण  असाध्य पीड़ा हो रही थी , उस समय उन्होंने ‘हनुमान बाहुक’ की रचना करके उसके  चमत्कारी प्रभाव का  प्रत्यक्ष अनुभव किया । वास्तव में चाहे ‘हनुमान चालीसा’ हो या ‘हनुमान बाहुक’ या ‘बजरंग बाण’ ,इनमें से प्रत्येक रचना का मन लगाकर पाठ करने से अति उच्च प्रकार का प्राणायाम होता है। प्राण वायु को सकारात्मक बल की प्राप्ति होती है । पापों का शमन होता  है। 

इन रचनाओं के प्रत्येक शब्द में आध्यात्मिक गूढ़ अर्थ भी छिपे हैं । जिनका ज्ञान जैसे जैसे होने लगता है तो हम आत्म ज्ञान की प्राप्ति की ओर भी स्वत: उन्मुख होते जाते हैं । हनुमान जी सर्वथा मानरहित हैं, वे  अपमान या सम्मान  से परे हैं । ‘मैं’  यानि  ‘ego’  या अहं के तीन स्वरुप हैं । शुद्ध स्वरुप में  मै ‘अहं ब्रह्मास्मि’  सत् चित आनंद  स्वरुप ,निराकार परब्रह्म  राम  हैं । साधारण अवस्था में जीव को ‘अहं ब्रह्मास्मि’ को समझना  व अपने इस शुद्ध स्वरुप तक पहुंचना आसान नही। परन्तु, जीव जब दास्य भाव ग्रहण कर सब कुछ राम को सौंप केवल राम के  कार्य यानि आनंद का संचार और विस्तार करने के लिए पूर्ण रूप से भक्ति,जपयज्ञ , प्राणायाम  व कर्मयोग द्वारा नियोजित हो राम के अर्पित हो जाता है तो उसके अंत: करण में ‘मैं’ हनुमान भाव  ग्रहण करने लगता है । तब वह  भी मान सम्मान से परे होता जाता है और ‘ऊँ  जय जगदीश हरे  स्वामी जय जगदीश हरे …तन मन धन  सब है तेरा स्वामी सब कुछ है तेरा, तेरा तुझ को अर्पण क्या लागे मेरा ।।’  के शुद्ध  और सच्चे  भाव उसके  हृदय में  उदय हो  मानो वह हनुमान ही होता  जाता है । लेकिन जब सांसारिकता में लिप्त हो  ‘मैं’ या अहं को   तरह तरह का  आकार दिया  जाता  हैं तो हमारे अंदर यही मैं  ‘अहंकार’ रुपी रावण हो  विस्तार पाने लगता है। जिसके दसों सिर भी हो जाते हैं । धन का , रूप का , विद्या का , यश का  आदि आदि। 

यह रावण या अहंकार तरह तरह के दुर्गुण रुपी राक्षसों को साथ ले हमारे स्वयं के अंत;करण में ही लंका नगरी का अधिपति हो  सर्वत्र आतंक मचाने में लग जाता है । अत:  अहंकार रुपी रावण की इस लंका पुरी को ख़ाक करने के लिए और परम भक्ति स्वरुप सीता का पता लगाने के लिए ‘मैं’ को हनुमान का आश्रय ग्रहण करने  की परम आवश्यकता है । 

अहंकार की लंका नगरी को  शमन कर ज्ञान का प्रकाश करने का प्रतीक  यह हनुमान रुपी ‘मैं ‘ ही हैं । कबीर दास जी की वाणी में कहें तो सर राखे सर जात है,सर काटे सर होत जैसे बाती दीप की,जले  उजाला   होत अर्थात  सर या अहंकार के रखने से हमारा  मान सम्मान सब चला जाता, परन्तु अहंकार का शमन करते रहने से हमें स्वत; ही मान सम्मान मिलता  है। जैसे दीप की बाती  जलने पर उजाला करती है,वैसे ही अहंकार का शमन करने वाले व्यक्ति के भीतर और बाहर  ज्ञान का उजाला होने लगता है



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