श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ )-
कन्या दान पर बहुत विवाद होते हैं। यहाँ दान का अर्थ है काटना। दो अवखण्डने (धातुपाठ)। विवाह के बाद कन्या अपने परिवार से कट जाती है तथा पति के परिवार से जुड़ जाती है। कोई भी समाज या परिस्थिति हो, कोई भी दो परिवारों में एक साथ नहीं रह सकता है। अपने परिवार तथा गोत्र से काटना ही कन्या दान है और इसका अधिकार उसके माता पिता को ही है। उसके बाद पति तथा उसके परिवार के गोत्र से जोड़ा जाता है।
पति से जोड़ने के लिये गठ-बन्धन कर एक साथ सप्तपदी करते हैं। एक फेरा या चक्र में कम-से-कम २ पद होंगे-एक आगे जाने के लिए तथा दूसरा लौटने के लिए। अतः ३.५ फेरा के लिए ४ फेरा लगाते हैं। कहीं कहीं पहले दो फेरा में पति आगे रहता है, बाकी दो में पत्नी। यह वास्तविक जीवन का प्रतीक है। अज्ञात परिवार में पहले पति या उसके परिवार से पूछना पड़ता है। धीरे-धीरे पत्नी घर की मालकिन हो जाती है। पति के गोत्र से जोड़ने के अतिरिक्त दोनों परिवारों का धान मिलाया जाता है, यह परिवारों का सम्बन्ध स्थापित करता है।
पत्नी के वेद में ४ रूप कहे गये हैं, जिसका कुरान में मनमाना नकल कर ४ पत्नी की अनुमति है। पत्नी तथा माता रूप में महिषी है (महान्, रानी, महारानी को पट्ट महिषी कहते थे)। ववाता का अर्थ है घर की मालकिन। यह पुरानी अरबी का शब्द था।
आजकल केन्या में प्रचलित है। दो परिवारों के बीच सम्बन्ध सूत्र के रूप में पत्नी को पालागली या तोता कहा गया है। वर्तमान संस्कृत में ये शब्द प्रचलित नहीँ हैं। देशज हिन्दी शब्दों के अनुसार दो पाला के बीच गली है तथा इसके इसके लिये तोता की तरह बोलती रहती है। इनसे अलग स्वतन्त्र व्यक्तित्व भी हो सकता है जैसे शिक्षक, डाक्टर आदि। इसे परिवृक्ता कहा गया है। सायण ने इसका अर्थ परित्यक्ता किया है, पर परित्यक्त होने पर वह पत्नी नहीं रहेगी।
होताध्वर्युस्तथोद्गाता हस्तेन समयोजयन्। महिष्या परिवृत्त्याथ वावातामपरां तथा॥ (रामायण १/१४/३५)
चतस्रो जाया उपक्लृप्ता भवन्ति । महिषी वावाता परिवृक्ता पालागली । सर्वा निष्किण्योऽलङ्कृताः । मिथुनस्यैव सर्वत्वाय । (शतपथ ब्राह्मण १३/४/१/८)
सायण भाष्य-चतस्रो भार्याः उप समीपे क्लृप्ताः स्थिताः भवन्ति । पालागली दूतदुहिता ।
टिप्पणी-पत्न्यश्चायंत्यलङ्कृताः निष्किण्यो महिषी वावाता परिवृक्ता पालागलीति । (कात्यायन श्रौत सूत्र २०/१२)- प्रथम परिणीता पत्नी, वावाता वक्लमा, परिवृक्ता अवक्लमा, पालागली दूत पुत्री ।
चतस्रश्च जायाः कुमारी पञ्चमी…..(शतपथ ब्राह्मण १३/५/२/१-८)
परिवृक्ता च महिषी स्वस्त्या च युधङ्गमः । अनाशुरश्चायामि तोता कल्पेषु सम्मिता ॥१०॥
वावाता च महिषी स्वस्त्या च युधङ्गमः । श्वाशुरश्चायामि तोता कल्पेषु सम्मिता ॥११॥ (अथर्व २०/१२८)
प्रास्मै गायत्रमर्चत वावातुर्यः पुरन्दरः । याभिः काण्वस्योप बर्हिरासदं यासद् वज्री भिनत् पुरः ॥ (ऋक् ८/१/८)
आ त्वाद्यः सधस्तुतिं वावातुः सख्युरा गहि । उपस्तुतिर्मघोनांप्रत्वावत्वधातेवश्मिसुष्टुतिम् ॥ (ऋक् ८/१/१६)
या वा अपुत्रा पत्नी सा परिवृत्ती (परिवृक्ती)- (शतपथ ब्राह्मण ५/३/१/१३)
सुवरीति परिवृक्ती । (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/९/४/५)
प्रहेयो वै पालागलो (दूतः) व्वानं वै प्रहित एति । (शतपथ ब्राह्मण ५/३/१/१)
यैव प्रथमा वित्ता (भार्य्या) सा महिषी । (शतपथ ब्राह्मण ६/५/३/१)
महिषी धाय्या । (कौषीतकि ब्राह्मण १५/४) भुव इति वावाता (पत्नी) । (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/९/४/५)
तष्टासि तृष्टिका विषा विषातक्यसि । परिवृक्ता यथा सस्यृषभस्य वशेव ॥ (अथर्व ७/११३/२)
परिवक्ते पति विद्यमानट् (ऋक् १०/१०२/११) सं ते वावाता जरतामियं गीः (ऋक् ४/४/८)
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