क्या देवी को पशुबलि प्रिय है ?

img25
  • मिस्टिक ज्ञान
  • |
  • 31 October 2024
  • |
  • 0 Comments

 

श्री सुशील जालान ( ध्यान योगी )- Mystic Power - 

देवी की प्रतिमा के समक्ष बलि देने का विधान अनेक सनातन धर्म शास्त्रों में उल्लिखित है। पशु की बलि निमित्त मात्र है, मुख्य बलि है पशुत्व की। देवी की प्रसन्नता पुरुष में अभिव्यक्त होती है। भोजन , निद्रा, मैथुन, यह तीन मुख्य आयाम हैं पशुत्व के, - भोजन, अर्थात् जठराग्नि/अग्नि तत्त्व को क्षीण करना, - निद्रा, अर्थात् सांसारिक विषयों में आसक्ति/ आत्मप्रकाश से, पुरुषत्व से वंचित, - मैथुन, अर्थात् कामना के वशीभूत होना/स्खलन।   सांसारिक विषयों में मानसिक वैराग्य तथा त्याग से, ब्रह्मचर्य पालन करने से, योगाभ्यास तथा प्राणायाम साधनों से, अग्नि तत्त्व प्रकट होता है नाभि में स्थित मणिपुर चक्र में। यही सभी देवी-देवताओं के पूजन, योग, यज्ञ, व्रत, उपवास आदि का प्रयोजन है, कि अग्नि तत्त्व के तेज को प्राप्त किया जाए, जिससे अभिष्ट काम्य कर्मों को संपादित किया जा सके। 

इन तीनों पशुत्व आयामों से ऊपर उठने से पुरुषत्व जाग्रत होता है। पुरुष, अर्थात् पुर् + उष, - पुर् है देह [ नवद्वारे पुरे देही/गीता 5.13 ], - उष का पदच्छेद है उ + ष (ष् + अ) - उ है ओंकार की द्वितीय मात्रा, विष्णु ग्रंथि, महर्लोक, हृदयस्थ अनाहतचक्र, - ष् है मूर्धा में चेतना का ऊर्ध्वारोहण, अ है स्थायित्व प्रदान करने के संदर्भ में। अर्थ हुआ- सक्षम ध्यान-योगी साधक अपनी देह में स्थित चेतना/शुक्राणु को ऊर्ध्व कर हृदयस्थ महर्लोक, अनाहत चक्र में ले जाता है, मुंड में, मूर्धा में स्थिर करता है, जहां उषाकाल जैसा प्रकाश प्रकट होता है।   

कुंडलिनी शक्ति जाग्रत होने से उषाकाल जैसा प्रकाश प्रकट होता है साधक के चित्त में, हृदय में, अनाहत चक्र में। कुंडलिनी शक्ति ही देवी स्वयं है, विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त होती है, सिद्धियों तथा अस्त्रों को धारण करती है। साधक स्वयं पशु है, वह इंद्रियों के वश में रहता है। साधना का ध्येय है इन्द्रियातीत ध्यान जहां दशों इन्द्रियों का वह स्वयं स्वामी बन जाता है। - निद्रा के संदर्भ में श्रीमद्भगवद्गीता का श्लोक (2.69) अवलोकनीय है, 

"या निशा सर्व भूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:॥" बाह्य जगत् जिसमें सभी जीव जागते हैं, व्यवहार करते हैं, वह रात्रि के समान है योगी साधक के लिए। तथा जो रात्रि समान है उनके लिए, उसमें वह पश्यन् करता है, अर्थात् इन्द्रियों का संयमन कर पश्यन्ती वाणी साधना में लीन होता है। पश्यन्ती वाणी में आत्मप्रकाश है हृदयस्थ अनाहतचक्र में, परा शक्ति का प्राकट्य है। मैथुन प्रधान कामजन्य क्रिया है, रजोगुण से प्रेरित है, श्रीमद्भगवद्गीता (3.37) का कथन है,

 "काम एष क्रोध एष रजोगुण समुद्भव:। महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनं इह वैरिणम्॥" काम तथा इसकी पूर्ति न होने से उपजा क्रोध रजोगुण प्रधान हैं। काम में अधिक मनोवृत्ति महापाप है, इसलिए यह महाशमन योग्य है, इसका वैरी के समान हनन करना चाहिए। मैथुन में अतिशय लिप्तता पौरुष को क्षीण करती है, शुक्राणुओं की अधोगति होती है। ऊर्ध्व शुक्राणु से उषा का प्राकट्य होता है, साधक पुरुष संज्ञा से विभूषित होता है। भोजन जीवन के लिए आवश्यक है। तथापि आध्यात्मिक उन्नति के लिए, कुंडलिनी शक्ति जागरण के लिए अल्पाहार उपयुक्त माना गया है। भोजन जठराग्नि को मंद करता है, जबकि प्रदीप्त जठराग्नि कुंडलिनी शक्ति जागरण में सहायक होती है। उपवास का अर्थ ही है उप(र) वास करना चेतना का। यही उषा के प्राकट्य का रहस्य है, पुरुष होने का रहस्य है, कि योग तथा प्राणायाम का अभ्यास खाली पेट ही किया जाता है, जिससे ध्यान में उषा का प्रकाश प्रकट हो। इसलिए, देवी को बलि प्रिय है, लेकिन पशुत्व की, भोजन, निद्रा तथा मैथुन की, पशु की नहीं।  



Related Posts

img
  • मिस्टिक ज्ञान
  • |
  • 05 September 2025
खग्रास चंद्र ग्रहण
img
  • मिस्टिक ज्ञान
  • |
  • 23 August 2025
वेदों के मान्त्रिक उपाय

0 Comments

Comments are not available.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Post Comment