श्री सुशील जालान
mysticpower * लघिमा चतुर्थ महासिद्धि है, अणिमा, महिमा और गरिमा के पश्चात्। इसका उपयोग लंघन के संदर्भ में, सदेह आकाशगमन के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान तक, वायुमार्ग से किसी भी काल में तथा षट्चक्र वेध के लिए भी, सक्षम योगी करता है।
गणपति की धोती की लांघ लंबी होती है। छ:लांघ (छलांग), मूलाधार सहित षट्चक्रों को एक बार में ही लांघ कर सहस्रार में प्रवेश गणपति ने सात बार किया। कुंडलिनी शक्ति मूलाधार चक्र में स्थित होती है। यही शक्ति षट्चक्रों, अर्थात्, मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि और आज्ञा चक्रों का वेध कर सहस्रार में शिव के साथ संयुक्त होती है।
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सात बार मूलाधार चक्र से सहस्रार तक छलांग लगा कर परिक्रमा करने से गणपति प्रथम पूज्य देव बने। ध्यान-योगी स्वयं गणपति है, जिसका दिव्य कुंडलिनी पथ मूलाधार से सुमेरु शीर्ष तक आवागमन के लिए खुला है और एक प्रयास में ही आत्मचेतना सहस्रार में स्थित हो जाती है। गणपति ऋद्धि-सिद्धि के देव हैं। सभी आध्यात्मिक सिद्धियां हस्तगत रहती हैं इस ध्यान-योगी के।
पौराणिक आख्यान है विष्णु के वामन अवतार के बारे में जिन्होंने त्रिपाद से लांघा, भूलोक से आकाश, आकाश से शीर्ष-सहस्रार। कथा है, राजा बलि के यज्ञ में छत्रधारी वामनदेव ने तीन पग भूमि दान में मांगी। प्रथम पग में समस्त पृथ्वी, द्वितीय में आकाश और तृतीय में बलि के शिर पर पग रखा वामनदेव ने।
यह रूपक है ध्यान-योग क्रिया का। पृथ्वी तत्त्व मूलाधार चक्र में, मेरुदंड के निम्न छोर में, स्थित है। आकाश तत्त्व है विशुद्धि चक्र में, स्वाधिष्ठान (जल तत्त्व), मणिपुर (अग्नि तत्त्व), अनाहत चक्र (वायु तत्त्व) से ऊर्ध्व में, कंठ में स्थित है। और शिर में स्थित हैं आज्ञा चक्र - सहस्रार। इस तरह ध्यान-योगी दिव्य यात्रा करता है मूलाधार चक्र से सहस्रार तक, सुमेरु शीर्ष तक।
वामनदेव के शिर के ऊपर छत्र धारण करने का अर्थ है,
छत्र का संधि विच्छेद होगा, छ + त्र,
- छ, है छ: की संख्या,षट्चक्रों के संदर्भ में,
- त्र, है त्रिगुणात्मिका प्रकृति, सत्त्व, रज तथा तम।
अर्थ हुआ,
षट्चक्रों में पंचमहाभूतात्मक त्रिगुणात्मिका प्रकृति के साथ वर्तता है योगी पुरुष जिसका सहस्रार जाग्रत है सुमेरु शीर्ष पर, शिर पर। यह छत्र अधोमुखी कमल/पद्म के स्वरूप में दर्शाया जाता है, कपाल के अधोमुखी अर्धगोल स्वरूप में।
अनाहत चक्र/सहस्रार में चैतन्य तत्त्व प्रकट होता है, जिसे जीवभाव त्याग कर निर्गुण आत्मा धारण करता है। यह चैतन्य आत्मा ही पुरुष है। कोई भी कामना यह योगी पुरुष करता है छत्र शीर्ष पर, सहस्रार में, वह फलित होती है जगत् में, सृष्टि में। छत्र शीर्ष के नीचे लगा हुआ दण्ड मेरुदंड का द्योतक है, जिसमें षट्चक्र विद्यमान हैं।
विष्णु के वामन अवतार का अर्थ है कि विष्णु धर्म के लिए ही कर्म में प्रवृत्त होते हैं। इसलिए ऐसे सक्षम ध्यान-योगी को धर्म के लिए ही लघिमा महासिद्धि का उपयोग करना चाहिए।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के पुरुष सूक्त में विराट पुरुष नारायण का वर्णन है, यथा -
"सहस्र शीर्षा पुरुष: सहस्राक्ष: सहस्रपात्।"
- ऋग्वेद (10.90.01)
"त्रिपाद् ऊर्ध्व उदैत् पुरुष: पादोऽस्येहाभवत्पुन:"
- ऋग्वेद (10.90.04)
यह विराट पुरुष नारायण वामनदेव के त्रिपाद से ही पुनः उदित हुआ है, जिसका सहस्रार, अर्थात् सहस्रशीर्ष, जाग्रत है।
त्रेतायुग में किष्किन्धा राज्य में बाली, अंगद, हनुमान आदि का वर्णन है रामायण में कि वह सदेह वायुमार्ग से आकाशगमन करने में सक्षम थे। बाली ने रावण को कांख में दबा कर पृथ्वी के चक्कर लगाए थे आकाश में लघिमा सिद्धि से। हनुमान ने सीताजी की खोज में समुद्र लांघा था वायुमार्ग, आकाशगमन, लघिमा सिद्धि से।
लक्ष्मण के लिए वर्णन है कि वह 14 वर्षों की वनवास अवधि में कभी भी नहीं सोया था। यह संभव होता है लघिमा महासिद्धि से। सोने के समय लक्ष्मण अपनी आत्मचेतना को ऊर्ध्व कर मणिपुर चक्र से सुषुम्ना नाड़ी जाग्रत कर हृदयाकाश में स्थित अनाहत चक्र में, सुषुप्तावस्था में, ध्यान-योग से आत्मप्रकाश में स्थित करता था।
* श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2, श्लोकार्ध 69, में कहती है -
"या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।"
संयमी योगी पुरुष योगनिद्रा का उपयोग करते हैं, जिसमें वह 'जागते' हैं आत्मप्रकाश में, ध्यान-योग के अनुशीलन से। मूलाधार चक्र से चेतना को अनाहत चक्र तक लांघ कर उसमें प्रकट हुए आत्मप्रकाश में स्थित होना लघिमा महासिद्धि का प्रयोग है।
लघिमा महासिद्धि का प्रयोग अनाहत चक्र में किया जाता है और सहस्रार में भी। सहस्रार सत्यम् लोक है, परम् शिव लोक है। यहां भगवान् श्रीराम और भगवान् श्रीकृष्ण का वैकुंठ धाम भी है। ब्रह्म ऋषियों की यह क्रीड़ा भूमि भी है।
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