मणि पद्म

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  • मिस्टिक ज्ञान
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  • 09 April 2025
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लेखक श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)

मणि पद्म-आकाश गंगा के समुद्र में उसकी सर्पाकार भुजा शेषनाग है, जिसके ७ खण्डों को ऋग्वेद (९/५४/२) में आकाशगंगा की ७ धारा कहा गया है। उस पर सूर्य रूपी विष्णु शयन कर रहे हैं। उनके आकर्षण की कक्षा में पृथ्वी है जिस पर मनुष्य ब्रह्मा द्वारा सृष्टि का विकास हुआ। इसे प्रतिमा रूप में शयन स्थिति में विष्णु के नाभि कमल पर ब्रह्मा की मूर्ति बनती है (जैसे तिरुअनन्तपुरम का पद्मनाभ मन्दिर)।

आकाश और शरीर के चक्र-शरीर के भीतर मेरुदण्ड के ५ चक्र नीचे से आरम्भ कर भूमि, जल, तेज, वायु और आकाश तत्त्वों के स्वरूप है। विश्व के ५ पर्व भी इन्हीं के स्वरूप है। विश्व पर्वों के संकेत माहेश्वर सूत्र के ५ स्वर हैं-अइउण्। ऋलृक्। उनकी प्रतिमा रूप सुषुम्ना के ५ चक्र के बीज मन्त्र इनके सवर्ण अन्तःस्थ वर्ण हैं-हयवरट्। लण्।
मेरुदण्ड के ऊपर आज्ञा चक्र भ्रूमध्य के पीछे है जिसमें शिव-शक्ति का समन्वय है-अर्द्धनारीश्वर रूप। इसका आकाश में प्रतीक कह सकते हैं पदार्थ-ऊर्जा का मिश्र रूप। यह विस्तार ब्रह्माण्ड के आवरण रूपी कूर्म तक है। उसके बाहर अनन्त आकाश की प्रतिमा सिर के ऊपर सहस्रार चक्र है।


आकाश के पर्व       चिह्न     तत्त्व  शरीर के चक्र   चिह्न
१. अव्यक्त अनन्त   एक ॐ   अव्यक्त  सहस्रार        एक ॐ
२. हिरण्यगर्भ    विभक्त ॐ पदार्थ-ऊर्जा आज्ञा     विभक्त ॐ
३. स्वयम्भू मण्डल   अ     आकाश   विशुद्धि        ह
४. ब्रह्माण्ड             इ      वायु        अनाहत       य
५. सौरमण्डल         उ     तेज          स्वाधिष्ठान   व
६. चान्द्र मण्डल     ऋ     अप्         मणिपूर        र
७. भूमण्डल           लृ      भूमि       मूलाधार       ल


यहां स्वाधिष्ठान-मणिपूर का क्रम सृष्टि क्रम में है। साधना नीचे से ऊपर होती है, अन्नमय कोष से परमात्मामय कोष तक, उसमें मूलाधार के बाद मेरुमूल में स्वाधिष्ठान तब नाभि के पीछे मणिपूर चक्र होता है।


अन्नमय कोष से उत्थान का वर्णन पुरुष सूक्त में है-उतामृतत्वस्येशानो तदन्नेनातिरोहति (वाज. सं. ३१/२)
सृष्टि क्रम से चक्र तथा तत्त्वों का वर्णन शंकराचार्य ने किया है-


महीं मूलाधारे, कमपि मणिपूरे हुतवहं, स्थितं स्वाधिष्ठाने, हृदि मरुतमाकाशमुपरि।
मनोऽपि भ्रूमध्ये, सकलमपि भित्वा कुलपथं, सहस्रारे पद्मे, सह रहसि पत्या विहरसि॥
(सौन्दर्य लहरी, ९)


हिमालय में अधिक ठण्ड है, अतः वहां मणिपूर चक्र से साधना आरम्भ होती है जिससे पहले शरीर में शक्ति तथा ताप मिले। मणिपूर चक्र पाचन केन्द्र है, अतः वह अग्नि (हुतवह, अन्न का वहन या पाचन) केन्द्र है। अतः साधना आरम्भ ’मणिपद्मे हुं’ मन्त्र से होता है।


गुरु दीक्षा से उन्नति के लिये मस्तिष्क केन्द्र के आज्ञा चक्र से साधना आरम्भ करते हैं, जो भ्रूमध्य के पीछे है (गीता, ५/२७, ८/१०)। 
भौगोलोक रूप में भारत विश्व सभ्यता केन्द्र रूप में विष्णु रूप है। हिमालय के पूर्व छोर पर नाभि रूप मणिपुर है, जिसके बाद ब्रह्मा का देश है।



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