मृत्यु है या नहीं है?

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  • मिस्टिक ज्ञान
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  • 31 October 2024
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श्री शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ )- Mystic Power-

धृतराष्ट्र का प्रश्न -- सनत्सुजात यदिदं शृणोमि 'न मृत्युरस्तीति' तव प्रवादम् । देवासुरा ह्याचरन् ब्रह्मचर्यं अमृत्यवे तत् कतरन्नु सत्यम् ।।२।। सनत्सुजात जी ! मैंने सुना है कि आपका कहना है - "मृत्यु है ही नहीं" । फिर यह भी सुना है कि देवताओं और असुरों ने मृत्यु पर विजय के लिए ब्रह्मचर्य का पालन किया अर्थात् कर्म किया । इन दोनों मतों में सत्य क्या है ? सनत्सुजात जी का उत्तर- अमृत्युः कर्मणा केचिन्मृत्युर्नास्तीति चापरे । शृणु मे ब्रुवतो राजन् यथैतन्मा विशङ्किथाः ।।३।। 

राजन् ! कुछ लोग कहते हैं कि कर्मों से मृत्यु पर विजय प्राप्त हो सकती है और कोई मानते हैं कि मृत्यु है ही नहीं अतः शङ्का रहित होकर सुनो । उभे सत्ये क्षत्रियैतस्य विद्धि मोहान्मृत्युः सम्मतोsयं कवीनाम् । प्रमादं वै मृत्युमहं ब्रवीमि तथाप्रमादममृतत्वं ब्रवीमि ।।४।। 

प्रमादाद्वै असुराः पराभव- न्नप्रमादाद् ब्रह्मभूताः सुराश्च । नैव मृत्युर्व्याघ्र इवात्ति जन्तून् न ह्यस्य रूपमुपलभ्यते हि ॥५।। 

धृतराष्ट्र! दोनो बातें सत्य हैं । कुछ विद्वानों ने मोहवश मृत्यु की सत्ता स्वीकार की है परन्तु मैं मानता हूँ कि प्रमाद ही मृत्यु है और अप्रमाद ही अमृत है । प्रमाद के कारण असुर मृत्यु से प्रभावित हुये और अप्रमाद से देवगण ब्रह्मस्वरूप हुये । वास्तव में मृत्यु व्याघ्र के समान प्राणियों का भक्षण नहीं करती और इसका कोई रूप नहीं है । 

यमं त्वेके मृत्युमतोsन्यमाहुः आत्मावसन्नममृतं ब्रह्मचर्यम् । पितृलोके राज्यमनुशास्ति देवः शिवः शिवानामशिवोsशिवानाम् ॥६।। 

कुछ लोग यमराज को मृत्यु कहते हैं जो पितृलोक में शासन करते हैं । 

अस्यादेशान्निःसरते नराणां क्रोधः प्रमादो लोभरूपश्च मृत्युः। अहंगतेनैव चरन्विमार्गगान् न चात्मनो योगमुपैति कश्चित् ॥७।।

 ते मोहितास्तद्वशे वर्तमाना इतः प्रेतास्तत्र पुनः पतन्ति । ततस्तान् देवा अनुविप्लवन्ते अतो मृत्युर्मरणाख्यामुपैति ॥८।।

 यमराज की आज्ञा से क्रोध,प्रमाद और लोभरूपी मृत्यु उन मनुष्यों के,जो अहंकार के वशीभूत हो परमात्मा की ओर नहीं चलते,नाश में प्रवृत्त होती है । इन दोषों के वशीभूत प्राणों के शरीर से निष्क्रमण को मृत्यु अथवा मरण कहते हैं । इसीप्रकार जन्म-मृत्यु चक्र चलता रहता है ।  

कर्मोदये कर्मफलानुरागास् तत्रानुयान्ति न तरन्ति मृत्युम् । सदर्थयोगानवगमात् समन्तात् प्रवर्तते भोगयोगेन देही ॥९।।... 

कामानुसारी पुरुषः कामाननु विनश्यति । कामान् व्युदस्य धुनुते यत्किञ्चित् पुरुषो रजः ॥१३।।

 कर्मफल में आसक्ति रखने वाले मृत्यु को पार नहीं कर पाते और भटकते रहते हैं । ज्ञानी पुरुष कामनाएँ समाप्त कर जन्म-मरण का दुःख भी नष्ट कर लेते हैं, ऐसे मनुष्यों के लिए मृत्यु नहीं है ॥ (महाभारत उद्योगपर्व अ० ४२ "सनत्सुजातीय उपदेश" ) यही उपदेश आद्यशङ्कराचार्य जी ने "विवेक-चूडामणि" में स्वीकृत किया है - 

"प्रमादो ब्रह्मनिष्ठायां न कर्तव्यः कदाचन । प्रमादो मृत्युरित्याह भगवान्ब्रह्मणः सुतः ।।३२२।। (आनन्द वर्द्धन दुबे, कन्नौज ०१/०९/२०१९ ।। 20 : 20 ) पुनश्च - यहाँ प्रमाद शब्द का अर्थ ऐसे समझिये -- "किसी बात को जानबूझकर याद होते हुए भी कहना कि मैं भूल गया" इसे आलस्य कहते हैं । दूसरी ओर - वास्तव में भूलने की प्रक्रिया प्रमाद के अन्तर्गत आती है । इसमें दो बातें हो सकती हैं । १- या तो बतलाने वाले के प्रति आपका सम्मान नहीं है, अथवा २- उस बात का, जो भले ही हितकर है, आपकी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं है । यहाँ द्वितीय स्थिति आध्यात्मिक उन्नति के लिए हानिकारक है । यहाँ इसी को मृत्युकारक/मृत्यु कहा गया है ।। ६/११/२०१९ई०।।



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