न्यास का अर्थ है स्थापन। बाहर और भीतर के प्रत्येक अङ्ग में इष्टदेवता और मन्त्र का स्थापन ही न्यास है। इस स्थूलशरीर में अपवित्रता का ही साम्राज्य है, इसलिये इसे देवपूजा का तबतक अधिकार नहीं जबतक यह शुद्ध एवं दिव्य न हो जाय। जबतक इसकी अपवित्रता बनी रहती है, तबतक इसके स्पर्श और स्मरण से चित्त में ग्लानि का उदय होता रहता है। ग्लानियुक्त चित्त प्रसाद और भावोद्रेक से शून्य होता है, विक्षेप और अवसाद से आक्रान्त होने के कारण बार-बार प्रमाद और तन्द्रा से अभिभूत हुआ करता है। यही कारण है कि न तो वह एकतार स्मरण ही कर सकता है और न विधि-विधान के साथ किसी कर्म का साङ्गोपाङ्ग अनुष्ठान ही। इस दोष को मिटाने के लिये न्यास सर्वश्रेष्ठ उपाय है। शरीर के प्रत्येक अवयव में जो क्रियाशक्ति सुषुप्त हो रही है, हृदय के अन्तराल में जो भावनाशक्ति मूछित है, उनको जगाने के लिये न्यास अव्यर्थ औषधि है।
न्यास कई प्रकार के होते हैं। मातृकान्यास, स्वर और वर्णों का होता है। मन्त्रन्यास पूरे मन्त्र का, मन्त्र के पदों का, मन्त्र के एक-एक अक्षर का और एक साथ ही सब प्रकार का होता है। देवतान्यास शरीर के बाह्य और आभ्यन्तर अगों में अपने इष्टदेव अथवा अन्य देवताओं के यथास्थान न्यास को कहते हैं। तत्त्वन्यास वह है, जिसमें संसार के कार्य-कारण के रूप में परिणत और इनसे परे रहनेवाले तत्त्वों का शरीर में यथास्थान न्यास किया जाता है। यही पीठन्यास भी है। जो हाथों की सब अङ्गुलियों में तथा करतल और करपृष्ठ में किया जाता है, वह करन्यास है। जो त्रिनेत्र देवताओं के प्रसङ्ग में षडङ्ग और अन्य देवताओं के प्रसङ्ग में पञ्चाङ्ग होता है, उसे अङ्गन्यास कहते हैं। हृदय, शिर, शिखा, कवच, नेत्र एवं करतल इन छः अंगों में मन्त्र का न्यास करना षडंगन्यास कहलाता है। कुलार्णव तन्त्र में लिखा है कि जो व्यक्ति न्यासरूपी कवच से आच्छादित होकर मन्त्र का जप करता है, उसकी साधनामें विघ्न-बाधाएँ स्वयं दूर हो जाती हैं तथा उसे निश्चित सिद्धि मिलती है। जो व्यक्ति अज्ञान या प्रमादवश न्यास नहीं करता उसे पग-पग पर विघ्नों का सामना करना होता हैं-
यो न्यासकवचच्छन्नो मन्त्रं जपति तं प्रिये। दृष्ट्वा विघ्नाः पलायन्ते सिंह दृष्टवा यथा गजाः ।।
अकृत्वा न्यासजालं यो मूढात्मा कुरुते जपम्। विघ्नः स बाध्यते नूनं व्याप्रैदृगशिशुर्यथा ।। (पुरश्चर्यार्णव पृ. 187)
सामान्यतया अंगन्यास का क्रम एवं इनके मन्त्रों का वर्णन अपने कल्प या आगम ग्रन्थों में मिल जाता है। किन्तु जहाँ अंगन्यास के मन्त्र निर्दिष्ट न हों वहाँ देवता के नाम या बीज द्वारा न्यास कर लेना चाहिये। जो किसी भी अङ्ग का स्पर्श किये बिना सर्वाङ्ग में मन्त्रन्यास किया जाता है, वह व्यापकन्यास कहलाता है। ऋष्यादिन्यास के छः अङ्ग होते हैं सिर में ऋषि, आदि अक्षर मुख में छन्द, हृदय में देवता, गुह्यस्थान में बीज, पैरों में शक्ति और सर्वाङ्ग में कीलक। और भी बहुत-से न्यास हैं, जिनका वर्णन प्रसङ्गानुसार किया जायगा।
न्यास चार प्रकार से किये जाते हैं। मन से नियत स्थानों में देवता, मन्त्रवर्ण, तत्त्व आदि की स्थिति की भावना की जाती है। अन्तर्यास केवल मन से होता है। बहिर्त्यास केवल मन से भी होता है और नियत स्थानों के स्पर्श से भी। स्पर्श दो प्रकार से किया जाता है, किसी पुष्प से अथवा अङ्गुलियों से। अङ्गुलियों का प्रयोग दो प्रकार से होता है। एक तो अगुष्ठ और अनामिका को मिलाकर सब अगों का स्पर्श किया जाता है और दूसरा भिन्न-भिन्न अङ्गों के स्पर्श के लिये भिन्न-भिन्न अङ्गुलियों का प्रयोग किया जाता है।
विभिन्न अङ्गुलियों के द्वारा न्यास करने का क्रम इस प्रकार है- मध्यमा, अनामिका और तर्जनी से हृदय, मध्यमा और तर्जनी से सिर, अगूठे से शिखा, दसों अगुलियों से कवच, तर्जनी, मध्यमा और अनामिका से नेत्र, तर्जनी और मध्यमा से करतल करपृष्ठ में न्यास करना चाहिये। यदि देवता त्रिनेत्र हो तो तर्जनी, मध्यमा और अनामिका से, द्विनेत्र हो तो मध्यमा और तर्जनी से नेत्र में न्यास करना चाहिये। पञ्चाङ्गन्यास नेत्र को छोड़कर होता है। वैष्णवों के लिये इसका क्रम भिन्न प्रकार का है। ऐसा कहा गया है कि अगूठे को छोड़कर सीधी अगुलियों से हृदय और मस्तक में न्यास करना चाहिये। अगूठे को अंदर करके मुट्ठी बाँधकर शिखा का स्पर्श करना चाहिये। सब अङ्गुलियों से कवच, तर्जनी और मध्यमा से नेत्र, नाराचमुद्रा से दोनों हाथों को ऊपर उठाकर अगूठे और तर्जनी के द्वारा मस्तक के चारों ओर करतलध्वनि करनी चाहिये।" कहीं-कहीं अङ्गन्यास का मन्त्र नहीं मिलता, ऐसे स्थान में देवता के नाम के पहले अक्षर से अङ्गन्यास करना चाहिये।
शास्त्र में यह बात बहुत जोर देकर कही गयी है कि केवल न्यास के द्वारा ही देवत्व की प्राप्ति और मन्त्रसिद्धि हो जाती है। हमारे भीतर बाहर अङ्ग-प्रत्यङ्ग में देवताओं का निवास है, हमारा अन्तस्तल और बाह्य शरीर दिव्य हो गया है - इस भावना से ही अदम्य उत्साह, अद्भुत स्फूर्ति और नवीन चेतना का जागरण अनुभव होने लगता है। जब न्यास सिद्ध हो जाता है, तब तो भगवान् से एकत्व स्वयंसिद्ध ही है। न्यास का कवच पहन लेने पर कोई भी आध्यात्मिक अथवा आधिदैविक विघ्न पास नहीं आ सकते; जब कि बिना न्यास के जप, ध्यान आदि करने पर अनेकों प्रकार के विघ्न उपस्थित हुआ करते हैं।
आचारेन्दुः में कहा गया है कि ध्यान, जप, होम तथा मन्त्रसिद्धि बिना अंगन्यास के नहीं होती। पुनः ऋषि, छन्द एवं देवता के न्यास के बिना अगरजप किया भी जाय तो उसका तुच्छ फल होता है-
ध्यानं जपार्चना होमाः सिद्धमन्त्रकृता अपि । अङ्गविन्यासविधुरा न दास्यन्ति फलान्यमी ।।
ऋषिच्छन्दोदेवतानां विन्यासेन विना यदा । जपः संसाधितोऽप्येष तत्र तुच्छफलं भवेत् ।।
(आचारेन्दुः पृ. 124 तथा थोड़े अन्तर के साथ पुरश्चर्यार्णव पृ. 187)
अर्थात् उत्तम फल की प्राप्ति के लिये न्यास करने के बाद ही मन्त्रजप करना चाहिये। इसी प्रकार मन्त्र का उचित तरीके से विनियोग भी करना चाहिये। मन्त्र को फल की दिशा का निर्देश देना विनियोग कहलाता है। तान्त्रिक परम्परा में ऋषि आदि की जानकारी के साथ-साथ उसका यथार्थ विनियोग करना आवश्यक माना गया है। गौतमीय तन्त्र में कहा गया है कि ऋषि एवं छन्द का ज्ञान न होने पर मन्त्र का फल नहीं मिलता' तथा उसका विनियोग न करके मात्र मन्त्र जप करने से मन्त्र दुर्बल हो जाता है।
प्रत्येक मन्त्र के, प्रत्येक पद के और प्रत्येक अक्षर के अलग-अलग ऋषि, देवता, छन्द, बीज, शक्ति और कीलक होते हैं। मन्त्रसिद्धि के लिये इनके ज्ञान, प्रसाद और सहायता की अपेक्षा होती है। मन्त्रमहोदधिः के प्रथम तरंग (पृ. 11-12) में कहा गया है कि जिस ऋषि ने भगवान् शङ्कर से मन्त्र प्राप्त करके पहले पहल उस मन्त्र की साधना की थी, वह उसका ऋषि है। वह गुरुस्थानीय होने के कारण मस्तक में स्थान पाने योग्य है। मन्त्र के स्वर - वर्णों की विशिष्ट गति, जिसके द्वारा मन्त्रार्थ और मन्त्रतत्त्व आच्छादित रहते हैं और जिसका उच्चारण मुख के द्वारा होता है, छन्द है और वह मुख में ही स्थान पाने का अधिकारी है। मन्त्र का देवता, जो अपने हृदय का धन है, जीवन कासञ्चालक है, समस्त भावों का प्रेरक है, हृदय का अधिकारी है; हृदय में ही उसके न्यास का स्थान है। मन्त्रशक्ति को उद्भावित करनेवाला तत्त्व बीज कहलाता है। अतः बीज का गुप्तांग (सृजनांग) में न्यास किया जाता है। जिसकी सहायता से बीज मन्त्र बन जाता है, वह तत्त्व शक्ति कहलाता है। उसका पादस्थान में न्यास करते हैं। मन्त्र को धारण करनेवाला या मन्त्रशक्ति को सन्तुलित करनेवाला तत्त्व कीलक कहलाता है। इसका सर्वांग में न्यास किया जाता है।
इस प्रकार जितने भी न्यास हैं, सबका एक विज्ञान है और यदि ये न्यास किये जायँ तो शरीर और अन्तःकरण को दिव्य बनाकर स्वयं ही अपनी महिमा का अनुभव करा देते हैं। काफी दिनों की बात है गङ्गा और सरयू के सङ्गम के पास ही एक ब्रह्मचारी रहते थे, जिनका साधन ही था न्यास। दिनभर वे न्यास ही करते रहते थे। उनमें बहुत-सी सिद्धियाँ प्रकट हुई थीं और उन्हें -
ऋषिच्छन्दोऽपरिज्ञानान्न मन्त्रफलभाग्भवेत्। (पुरश्चर्यार्णव पृ. 184)
डॉ० दीनदयाल मणि त्रिपाठी ( प्रबंध संपादक )
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