श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)-
Mystic Power - परशुराम के प्रायः ६०० वर्ष पूर्व बाक्कस या डायोनिसस ने भारत पर आक्रमण किया था उसमें मध्य भारत के हैहय तथा तालजंघ राजाओं ने उनकी सहायता की थी। पश्चिम भारत के यवन, पह्लव, पारद, शक, काम्बोज ने सहायता की थी। काम्बोज (काम = स्मर, भोज = खण्ड राज्य, समरकन्द), पारद, यवन, दरद पह्लव तथा शक जातियां तुषार, ऊर्ण, बाह्यतोदर आदि भारत से गये क्षत्रिय थे जो वर्णाश्रम से च्युत हो गये थे।
Megasthenes: Quotes from Indika-
FRAGM. L. C. Plin. Hist. Nat.VI. xxi. 4-5. Of the Ancient History of the Indians.
For the Indians stand almost alone among the nations in never having migrated from their own country. From the days of Father Bacchus to Alexander the Great, their kings are reckoned at 154, whose reigns extend over 6451 years and 3 months.
Solin. 52. 5.-- Father Bacchus was the first who invaded India, and was the first of all who triumphed over the vanquished Indians. From him to Alexander the Great 6451 years are reckoned with 3 months additional, the calculation being made by counting the, kings who reigned in the intermediate period, to the number of 153.
https://archive.org/details/AncientIndiaAsDescribedByMegasthenesAndArrianByMccrindleJ.W
Ancient India as described by Arrian-
[Excerpted from Arrian, "The Indica" in Anabasis of Alexander, together with the Indica, E. J. Chinnock, tr. (London: Bohn, 1893), ch. 1-16]
From Dionysus to Sandracottus the Indians reckoned 153 kings, and 6,042 years. During all these years they only twice asserted their freedom; the first time they enjoyed it for 300 years, and the second for 120. They say that Dionysus was earlier than Heracles by fifteen generations,
ततो वृकस्य बाहुः योऽसौ हैहय-तालजङ्घादिभिः पराजितो ऽन्तर्वत्न्या महिष्या सह वनं प्रविवेश॥२६॥ तस्य और्वः जातकर्मादि क्रिया निष्पाद्य सगर इति नाम चकार॥३६॥ पितृराज्य अपहरणात् अमर्षितो हैहय-तालजङ्घादि वधाय प्रतिज्ञामकरोत्॥४०॥ प्रायशश्च हैहयाः तालजङ्घान् जघान॥४१॥ शक-यवन-काम्बोज-पारद-पह्लवाः हन्यमानाः तत्कुलगुरुं वसिष्ठं शरणं जग्मुः॥४२॥ यवनान् मुण्डित शिरसो अर्द्धमुण्डितान् शकान् प्रलम्ब-केशान् पारदान् पह्लवाञ् श्मश्रुधरान् निस्स्वाध्याय वषट्कारान् एतानन्यांश्च क्षत्रियांश्चकार॥४७॥ (विष्णु पुराण,३/३)
परशुराम की सहायता कई जातियों ने की थी। इनको कामधेनु से उत्पन्न कहा गया है। इसका सामान्य अर्थ लगता है कि गौ हरण रोकने के लिए इन जातियों ने सहायता की। पर कामधेनु के अंग से उत्पन्न होने का अर्थ है विभिन्न क्षेत्रों की जातियां। उत्पादक भूमि को कामधेनु कहते थे। मुख्य उत्पादन या मूल यज्ञ कृषि है। इस यज्ञ को ही काम-धुक् कहा है।
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविध्यष्वमेषवोऽस्त्विष्टकामधुक्॥ (गीता ३/१०)
यज्ञाद् भवन्ति पर्जन्यो यज्ञः कर्म समुद्भवः॥१४॥
ये जातियां थीं-हुंभारव से पह्लव (पहलवान), हुंकार से काम्बोज, योनि देश (पश्चिमी अरब) से यवन, सकृद् देश से शक (पश्चिमोत्तर एशिया), खुर स्थान से खुरद (कुर्द), हारीत, किरातक, म्लेच्छ, हारीत। इनमें कुछ जातियां भारत पर असुर आक्रमण में सहायक बन गयीं थी, जिनको परशुराम ने पुनः भारत पक्ष में संगठित किया।
ब्रह्मवैवर्त पुराण (३/२४/५९-६४)-इत्युक्त्वा कामधेनुश्च सुषाव विविधानि च।
शस्त्राण्यस्त्राणि सैन्यानि सूर्यतुल्य प्रभाणि च॥५९॥
निर्गताः कपिलावक्त्रा त्रिकोट्यः खड्गधारिणाम्। विनिस्सृता नासिकायाः शूलिनः पञ्चकोटयः॥६०॥
विनिस्सृता लोचनाभ्यां शतकोटि धनुर्द्धराः। कपालान्निस्सृता वीरास्त्रिकोट्यो दण्डधारिणाम्॥६१॥
वक्षस्स्थलान्निस्सृताश्च त्रिकोट्यश्शक्तिधारिणाम्॥ शतकोट्यो गदा हस्ताः पृष्ठदेशाद्विनिर्गताः॥६२॥
विनिस्सृताः पादतलाद्वाद्यभाण्डाः सहस्रशः। जंघादेशान्निस्सृताश्च त्रिकोट्यो राजपुत्रकाः॥६३॥
विनिर्गता गुह्यदेशास्त्रिकोटिम्लेच्छजातयः। दत्त्वासैन्यानि कपिला मुनये चाभयं ददौ॥६४॥
वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड, सर्ग ५४-
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सुरभिः सासृजत् तदा। तस्या हुंभारवोत्सृष्टाः पह्लवाः शतशो नृप॥१८॥
भूय एवासृजद् घोराञ्छकान् यवनमिश्रितान्। तैरासीत् संवृता भूमिः शकैर्यवनमिश्रितैः॥२१॥
ततोऽस्त्राणि महातेजा विश्वामित्रो मुमोच ह। तैस्ते यवन काम्बोजा बर्बराश्चाकुलीकृताः॥२३॥
सर्ग ५५-तस्या हुंकारतो जाताः काम्बोजाः रविसंन्निभाः। ऊधसश्चाथ सम्भूता बर्बराः शस्त्रपाणयः॥२॥
योनिदेशाच्च यवनाः सकृद्देशाच्छकाः स्मृताः। रोमकूपेषु म्लेच्छाश्च हारीताः स किरातकाः॥३॥
ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/२९)-व्यथितातिकशापातैः क्रोधेन महतान्विता।
आकृष्य पाशान् सुदृढ़ान् कृत्वाऽत्मानममोचयत्॥१८॥
विमुक्तपाशबन्धा सा सर्वतोऽभिवृताबलैः। हुंहारवं प्रकुत्वाणा सर्वतोह्यपतद्रुषा॥१९॥
विषाणखुरपुच्छाग्रैरभिहत्य समन्ततः। राजमन्त्रिबलं सर्वं व्यवद्रावयदमर्पिता॥२०॥
विद्राव्य किंकरान्सर्वांस्तरसैव पयस्विनी। पश्यतां सर्वभूतानां गगनं प्रत्यपद्यत॥२१॥
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