कुलमार्तण्ड पं० योगीन्द्रकृष्ण दौर्गादत्ति शास्त्री की पुरश्चरण पद्धति से-
इष्टशक्ति के विकास और संचार करने का मौलिक रहस्य मन्त्र की पुरश्चरण रूपी वैज्ञानिक क्रिया है। श्री गुरूदेव से दीक्षा द्वारा मन्त्र प्राप्ति के अनन्तर मन्त्र-सिद्धि के लिए पुरश्चरण करना अथवा अनुष्ठान करना नितांत आवश्यक है। जब तक मन्त्र का पुरश्चरण नहीं किया जाता, तब तक वह इस प्रकार निरर्थक है जिस प्रकार जीव से रहित देह। अर्थात् जैसे हम जीव-रहित शरीर से कोई काम नहीं ले सकते, वैसे ही बिना पुरश्चरण किये हम गुरू-कृपा द्वारा प्राप्त मन्त्र से भी कोई कार्य नहीं ले सकते। अतः पुरश्चरण ही मन्त्र का जीव है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार जीव से (प्राणों से) रहित शरीर निष्क्रिय होता है, एवमेव पुरश्चरण-रहित मन्त्र निर्जीव है और उससे किसी प्रकार की क्रिया का सम्पादन नहीं हो सकता। अत:एव यामल में लिखा है:-
जीवहीनो यथा देहो सर्व कर्मसु न क्षमः ।
पुरश्चरण हीनोपि तथा मन्त्रः प्रकीर्तितः ।।
कि होमैः कि जपैश्चैव किं मन्त्र न्याय विस्तरैः ।
रहस्यानाञ्च मन्त्राणां यदि न स्यात् पुरष्क्रिया।
पुरष्क्रिया हि मन्त्राणां प्रधानं जीव उच्यते ।
इस प्रकार पुरश्चरण की आवश्यकता दिखाकर उसका स्वरूप अथवा लक्षण लिखा जाता है:-
पुरश्चरण लक्षण जपो होमस्तर्पणञ्चाऽभिषेको ब्रह्म भोजनम्। पञ्चाङ्गोपासनं लोके पुरश्चरणमुच्यते ।।
पुरश्चरणकं देवि पञ्चांग प्रोच्यते बुधैः। जपो होमस्तर्पणञ्च मार्जनं ब्रह्मभोजनम् ।।
पूर्व सर्व दशांशेन चाङ्ग स्यादुत्तरोत्तरम् । पूजा त्रैकालिको नित्य जपस्तर्पणमेव च ।।
होमो ब्राह्मण भुक्तिश्च पुरश्चरणमुच्यते ।। (हंस माहेश्वर तथा कुलार्णव)
अर्थात् मन्त्र का जप, हवन, तर्पण, अभिषेक (मार्जन) और ब्राह्मण भोजन इस पञ्चांग-उपासना को पुरश्चरण कहते है। पुरश्चरण के साथ कालिकी -पूजा का भी विधान है। पुरश्चरण में जप का दशांश हवन, हवन का दशांश तर्पण, तर्पण का दशांश मार्जन, मार्जन का दशांश ब्रह्म भोजन, ब्रह्म-भोजन दशांश तो पुरश्चरण का अत्यन्त आवश्यक अंग है।
यदि ब्रह्म-भोजन में दशमांश से अधिक ब्राह्मणों का भोजन कराया जाय तो 'अधिकस्याऽधिकं फलम्' वाली बात चरितार्थ होती है।
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