- तंत्र शास्त्र
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31 October 2024
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डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबंध संपादक) –
मन्त्रजप से पूर्व जो-जो शास्त्रीय क्रियाएँ की जाती हैं ये बहुत लम्बी, समय लेने वाली, कष्टसाध्य एवं दुरुह है। आम आदमी तो क्या पेशेवर आचार्यों द्वारा भी ये सभी क्रियाएँ संपादित करना अगर असंभव नहीं तो अवश्य कठिनता से पूरी होने वाली हैं। सभी प्रकार के मन्त्रानुष्ठान के क्रमिक सोपान निम्नलिखित हैं। यहाँ पर इन अंगों की केवल रूप-रेखा ही दी जायगी।
मन्त्रजप के सोपान
1-अगर व्यक्ति स्वयं मन्त्रानुष्ठान के योग्य नहीं है अथवा असमर्थ है तो सबसे पहले उसे आचार्य को वरण करना होगा। सभी शास्त्रीय विधियों को सम्पन्न करके ही आचार्य का वरण किया जाता है।
2- स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त हो पूजा स्थान पर जाकर पैर धोकर आचमन के अनन्तर द्वार की पूजा शास्त्रीय विधि से करें।
3- तदनन्तर देवताविशेष से संबंधित द्वारपालों की विधिपूर्वक पूजा करें। उदाहरण के लिये शिवमन्त्रों के अनुष्ठान के समय नन्दी, महाकाल, गणेश, भृंगी, स्कंद, चण्डेश्वर आदि की पूजा करें।
4- द्वारपालों के बाद इन्द्रादि सभी दिग्पालों की शास्त्रीय रीति से पूजा करें।
5- अब दसों दिशाओं में इष्ट मन्त्र तथा ‘ॐ शिवाज्ञया इतोऽन्यत्र वजन्तु सर्व एव हि’ मन्त्र पढ़कर जल छिड़कें। और निम्नलिखित मन्त्र को बोलकर आसन के चारों ओर काले तिल, उड़द आदि लेकर बिखेर दें।
ॐ अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भूमि संस्थिताः ।
ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया ।। अपक्रामन्तु भूतानि पिशाचा: सर्वतो दिशम् । सर्वेषामविरोधेन ब्रह्मकर्म समार।।
(अनुष्ठानप्रकाश पू. 63) 6- अब जपमण्डप में प्रवेश कर घटावादन के पश्चात् ‘अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्था गतोऽपि वा। यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं सबाह्याभ्यन्तरः शुचिः । मन्त्र से मंडप का जलादि से प्रोक्षण करें और ब्रह्म, वास्तुपुरुष एवं क्षेत्रपालों की पूजा करें तथा मन्त्र जप या उपासना के लिये अधिकार प्राप्त करने के लिये भैरव से निवेदन करें।’ निवेदन के लिये शास्त्रीय विधि का प्रयोग करें।
7- आगे आसन आदि के लिये शास्त्रोक्त तरीके से कूर्मशोधन करें। कूर्म के मुखस्थान पर दीप की स्थापना करें। इन सबके लिये शास्त्रीय रीति का अनुसरण करें।
8- तदनन्तर कुश आदि के उपयुक्त आसन पर पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके स्वस्तिक, वीर अथवा पद्मासन पर बैठकर आसनशुद्धि का निम्नलिखित मन्त्र पढ़ें।
‘ॐ पृथ्वीति मन्त्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषिः। कूर्मो देवता। सुतलं छन्दः।
आसनपवित्रकरणे विनियोगः ।’
तदनन्तर नीचे लिखा मन्त्र पढ़कर आसन पर जल छिड़कें। ॐ पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता ।
त्वं च धारय मां देवि पवित्र करु चासनम् ।।
9- अब मूलमन्त्र (अथवा शिखा बन्धनमन्त्र) से शिखा बाँधकर तिलक वा भस्म का त्रिपुण्ड्र लगावें तथा आवश्यकता के अनुसार तुलसी वा रुद्राक्ष धारण करें। शैवीउपासना में त्रिपुण्ड्र एवं रुद्राक्ष धारण करना चाहिये स्त्रियाँ शिखास्थान पर गीले हाथ से स्पर्श करते हुए मूलमन्त्र को पढ़ें। रुद्राक्ष, त्रिपुण्डू तथा शिखा बाँधने आदि की शास्त्रीय विधि का पालन करना चाहिये।
10- पूजा के लिये पाद्य, अर्ध्य, आचमनी, मधुपर्क – स्नान के लिये पाँच पात्र, फूल आदि दाहिनी तरफ तथा जलपात्र, व्यंजन, छत्र चामर आदि बायीं तरफ रखें।
11- दोनों हाथ की अनामिकाओं में कुश की पवित्री या सोने की अंगूठियाँ पहनकर स्मार्त विधि से दो बार आचमन कर प्राणायाम करें। स्मार्त आचमन तथा प्राणायाम के लिये शास्त्रीय विधि का अनुकरण करना चाहिये। तदनन्तर मन्त्र के देवता की विविध उपचारों से अथवा मानसपूजा करें।
नारदमहापुराण (पूर्वभाग अ. 66) तथा मन्त्रमहोदधिः (तरंगे 21/56-57) के अनुसार सामान्य रूप से शवों के आचमन मन्त्र इस प्रकार है –
(1) हां आत्मतत्वाय स्वाहा (2) हीं विद्यालच्चाय स्वाहा तथा (3) हू शिवतत्त्वाय स्वाहा।
तथा शाक्तों के आचमन मन्त्र इस प्रकार हो
(1) ऐ आत्मतत्त्वाय स्वाहा (2) ह्रीं विद्यालत्त्वाय स्वाहा तथा (3) श्रीं (या क्लीं) शिवतत्त्वाय स्वाहा।
12-तदनन्तर देश –काल का कीर्तन करते हुए ‘श्रुतिस्मृतिपुराणोक्तफल प्राप्तयार्थमुक-कामनासिद्धयर्थम् अमुकदेवताप्रीतये ऽमुकमन्त्रपुरश्चरणान्तर्गतामुकसंख्यापरिमित विहितामुकमन्त्रजपं करिष्ये इति। तदङ्गत्वेन भूतशुद्धिप्राणप्रतिष्ठाऽन्तर्मातृका बहिर्मात्रि कान्यासांश्च करिष्ये’ संकल्पवाक्य पढ़ें।
अगर आचार्य को करना है तो वह ‘करिष्ये’ की जगह ‘यजमानेन वृतोऽहं करिष्यामि’ बोलकर संकल्प ले।
13- संकल्प के बाद भूतशुद्धि करें। भूतशुद्धि से पहले ‘ॐ सूर्यः सोमो यमः कालः संध्या भूतानि पञ्च च एते शुभाशुभस्येह कर्मणो मम साक्षिणः।। भो देव प्राकृतं चित्तं पापाक्रान्तमभून्मम। तन्निस्सारय चित्तान्मे पापं तेऽस्तु नमोनमः ।।’- इस प्रकार प्रार्थना कर बाँयीं तरफ गुरु तथा दाहिनी तरफ गणेशजी को क्रमशः ‘ॐ गुरुभ्यो नमः’
तथा ‘ॐ गणेशाय नमः’ इस प्रकार बोलकर नमस्कार करें। तथा ‘अस्त्राय फट्’ से न्यास करके तीन बार ताली एवं चुटकी बजाकर ‘ॐ नमः सुदर्शनाय अस्त्राय फट्’ मन्त्र से दिग्बन्धन करें।
14- दिग्बन्धन के अनन्तर पुन: आचमन एवं प्राणायाम कर शास्त्रोक्त रीति से भूतशुद्धि करें। भतशुद्धि की क्रिया बहुत जटिल है। जिसको प्राणायाम एवं ध्यान का पर्याप्त अभ्यास नहीं है वह व्यक्ति इसे नहीं कर सकता।
15- भुतशद्धि के पश्चात् शास्त्रीय विधि से ‘स्व’ की प्राणप्रतिष्ठा करें।
16- इसके बाद अन्तर्मात्रिकान्यास एवं बहिर्मात्रिकान्यास करें। अन्तर्मात्रिकान्यास भी भूतशुद्धि की तरह एक जटिल प्रक्रिया है। इसमें भी प्राणायाम एवं ध्यान के अभ्यास की आवश्यकता है अन्यथा इसका सम्पादन संभव नहीं है। बहिर्माविकान्यास के बाद शास्त्रोक्त रीति से ध्यान करें।
17- ध्यान के उपरान्त जिस देवता का मन्त्र है उससे संबंधित कला का न्यास करना होता है। उदाहरण के लिये शिवमन्त्र के लिये ‘श्रीकण्ठादिमातृकाकलान्यास’ तथा वैष्णवमन्त्र के लिये ‘केशवादिन्यास करना पड़ता है। कलान्यास के बाद शास्त्रानुसार ध्यान करें और मूलमन्त्र से प्राणायाम करो
18 – तदनन्तर अपने जप्य मूलमन्त्र का ऋषि, छन्द एवं देवता का तत् तत् अंगो में न्यास, करन्यास एवं हृदयादि षडंगन्यास करें।
19- इसके बाद शास्त्रोक्त रीति से पीठन्यास कर पीठदेवता की मानसिक उपचारों से पूजा करें तथा कल्पोक्त पीठशक्ति का न्यास एवं पूजन करें।
शेवपीठदेवता एवं पीठशक्ति की पूजा इस प्रकार की जाती है-
शैवपीठदेवता की पूजा
शैवपीठदेवता की पूजा पीठन्यास के मन्त्रों के आधार पर की जाती है, जो अनुष्ठानप्रकाश: ‘
के अनुसार इस प्रकार हैं
ॐ मंडूकाय नमः । ॐ कालाग्निरुद्राय नमः । ॐ कूर्माय नमः । ॐ आधारशक्तये नमः। ॐ अनन्ताय नमः। ॐ धरायै नमः। ॐ सुधासिंधवे नमः। ॐ श्वेतद्वीपाय नमः। ॐ सुराधिपाय नमः । ॐ मणिहर्म्याय नमः । ॐ हेमपीठाय नमः । ॐ धर्माय नमः । ॐ ज्ञानाय नमः । ॐ वैराग्याय नमः । ॐ ऐश्वर्याय नमः। ॐ अधर्माय नमः । ॐ अज्ञानाय नमः । ॐ अवैराग्याय नमः । ॐ अनैश्वर्याय नमः । ॐ अनन्ताय नमः । ॐ तत्त्वपद्माय नमः । ॐ आनन्दमयकन्दाय नमः । ॐ संविन्नालाय नमः । ॐ विकारमयकेसरेभ्यो नमः । ॐ प्रकृत्यात्मकपत्रेभ्यो नमः । ॐ पंचाशद्वर्णकर्णिकायै नमः । ॐ सूर्यमण्डलाय नमः । ॐ इन्दुमण्डलाय नमः । ॐ पावकमण्डलाय नमः । ॐ सत्त्वाय नमः । ॐ रजसे नमः। ॐ तमसे नमः । ॐ आत्मने नमः । ॐ अन्तरात्मने नमः । ॐ परमात्मने नमः । ॐ ज्ञानात्मने नमः । ॐ मायातत्त्वाय नमः । ॐ कलातत्त्वाय नमः । ॐ विद्यातत्त्वाय नमः । तथा ॐ परतत्त्वाय नमः । (अनुष्ठानप्रकाश, पृ. 67-68)
शैवपीठशक्ति की पूजा
अनुष्ठानप्रकाश: के अनुसार पीठशक्ति की पूर्वादिक्रम से पूजा निम्न मन्त्रों को बोलते
हुए करें-
ॐ वामायै नमः । ॐ ज्येष्ठायै नमः । ॐ रौद्रय नमः । ॐ काल्यै नमः । ॐ कलविकरिण्यै नमः । ॐ बलविकरिण्यै नमः । ॐ बलप्रमथिन्यै नमः। ॐ सर्वभूतदमन्यै नमः । तथा मध्य में मनोन्मन्य नमः बोलें। (अनुष्ठानप्रकाश प. 126)
20- इसके बाद मन्त्र पाठपर्वक आसन प्रदान कर गेल मन्त्र से मन्त्र के देवता की मूर्ति की कल्पना करे अथवा सोने की मूर्ति स्थापित करें।
21- तदनन्तर ध्यान तथा आवाहन आदि षोडश उपचारों से मूर्ति की पुजा करके पुष्पांजलि देकर शास्त्रीय ढंग से आवरणपूजा करें। आवरणपूजा के बाद जप्यमन्त्र की भी पूजा करें।
22 इसके पश्चात उपयुक्त संस्कारित जप माला को शुद्ध जल से मूलमन्त्र द्वारा प्रोक्षणकर ‘ॐ मां’ माले महामाये सर्वशक्तिस्वरूपिणि । चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भवा।’ मन्त्र से प्रार्थना कर ‘हीं सिद्धये नमः’ मन्त्र से उसकी गन्ध, पुष्णादि पंचोपचार से पूजा कर ‘गं अविघ्नं कुरु माले त्वं गृह्णामि दक्षिणे करे। जपकाले तु सततं प्रसीद नम सिद्धये।’ इस प्रकार प्रार्थना कर माला को दाहिने हाथ में लेकर वस्त्र से ढक ले अथवा गोमुखी के अन्दर रख लें।
23 तदनन्तर जप से पहले देवी का ध्यान कर अपने मन्त्र का अभीष्ट संख्या में शास्त्रोक्त तरीके से अथवा गुरु के उपदेशानुसार जप करें।
24 जप के अन्त में माला को मस्तक से लगा कर (स्पर्श कराकर) नमस्कार करते हुए इस प्रकार प्रार्थना करें। ‘ॐ त्वं माले सर्वदेवाना प्रीतिदा शुभदा भव। शिवं कुरुष्व मे भद्रे यशो वीर्य च सर्वदा।’ (आचारेन्द्रपू134)
25- उपर्युक्त प्रार्थना कर ‘ह्रीं सिद्धये नमः’ मन्त्र को पढ़ते हुए माला को सिर से लगा कर पवित्र एवं गुप्त स्थान पर रख दें।
26- अन्त में पुन: आचमन करके ऋषि आदि की मानसपूजा करके जप के फल को शास्त्रोक्त तरीके से देवता के दाहिने हाथ तथा देवी के बाँये हाथ में निवेदन करें और जप की समाप्ति पर शास्त्रीय तरीके से।
27- जप की संख्या का दशाश हवन, हवन का दशांश तर्पण, तर्पण का दशाश नार्जन तथा मार्जन का दशांश ब्राह्मणभोजन कराये।
उपर्युक्त विस्तृत एवं चरणबद्ध तरीके से जप करना अगर संभव नहीं है तो व्यक्ति को जप की संक्षिप्त विधि को अपनानी चाहिये। अर्थात् ऊपर के जितने अंग है उनमें से जितना अंग संभव हो सके उसे अवश्य करना चाहिये। परन्तु मन्त्र के ऋषि , छ्ंद देवता का विनियोग पूर्वक उल्लेख तथा तदनुसार अंगन्यास एवं परंगन्यास को अवश्य ही करना चाहिये।
उपर्युक्त लेख (अनुष्ठप्रकाश: तथा आचारेन्दु: आदि ग्रंथ पर आधारित है)