वेदों की भाषा संस्कृत है। सर्वप्रथम हम संस्कृत भाषा के कुछ विशेष अक्षरों के नाम तथा उनके उच्चारण की विधि लिखते हैं
इस ( ं) आकृति वाले अक्षर को "अनुस्वार" कहा जाता है तथा नाक से वायु निकालते हुए बोला जाता है, उस समय मुँह बन्द रहता है, जैसे रार्म।
इस (") आकृति वाले अक्षर को "अनुनासिक" कहा जाता है और यह अक्षर भी नासिका से वायु निकालते हुए बोला जाता है। उस समय मुँह से भी कुछ वायु निकलती है। जैसे बोलूँ, कहूँ
यह (२७) अक्षर "अयोगवाह हस्व" कहा जाता है। इस अक्षर का उच्चारण कांसे के पात्र पर डण्डा मारने से जो ध्वनि निकलती है वैसे होता है जैसे "अग्न आयूपि "
यह (९) अक्षर "अयोगवाह दीर्घ" कहा जाता है। इस अक्षर का उच्चारण भी कांसे के पात्र पर डण्डा मारने से जो ध्वनि निकलती है वैसे होता है किन्तु इसका उच्चारण लम्बा करना चाहिए जैसे "सर्व वै पूर्ण ...."
इस (ळ) अक्षर को "यम" कहते हैं। इसका उच्चारण हिन्दी के ड और ल को मिलाकर करने के समान होता है अर्थात् जीभ को ऊपर से नीचे पटकते हुए किया जाता है।
इस (:) अक्षर को "विसर्ग" कहा जाता है इसका उच्चारण "ह" अक्षर से मिलता है जैसे रामः।
यह (5) चिह्न "अवग्रह" कहा जाता है। यह चिह्न खाली स्थान का प्रतीक है।
इसका उच्चारण कुछ भी नहीं होता।
किसी अक्षर के नीचे () इस प्रकार की टेढी लकीर होती है उसे "हलन्त" कहते हैं। जिस अक्षर के नीचे हलन्त हो उस अक्षर को बिना स्वर के अर्धमात्रिक रूप से बोलना चाहिए यथा तस्मात्, सम्यक्, विद्वान् आदि
इस (प) अक्षर को "मूर्धन्य पकार" कहते हैं। इसका उच्चारण मुँह में मूर्धास्थान अर्थात् तालु के ऊपर से जीभ लगाकर करना चाहिए।
इस (श) अक्षर को "तालव्य शकार" कहते हैं। इस अक्षर की मुँह के अन्दर तालु स्थान से अर्थात् दान्तों के ऊपर वहाँ से जीभ लगाकर उच्चारण करना चाहिए।
इस (स) अक्षर को "दन्त्य सकार" कहते हैं। इसका उच्चारण दान्तों में जीभलगाकर करना चाहिए।
संस्कृत भाषा में (ज्ञ) इस आकृति वाले अक्षर में तीन अक्षर मिले होते हैं, वे हैं (ज् + ञ् + अ) अतः इसका उच्चारण ज् + ञ् + अ को ही मिला कर करना चाहिए न कि (ग्य) या (ग्न) या (ढून)।
संस्कृत भाषा में अ, इ, उ, ऋ, ल, ए, ओ, औ आदि अक्षर स्वर कहलाते हैं। इनके तीन भेद हस्व, दीर्घ, प्लुत होते हैं।
हस्व - इसका उच्चारण "एकमात्रिक" होता है अर्थात् जितने समय में हाथ की कलाई की नाड़ी एक बार धड़कती है उतने समय में इसका उच्चारण करना चाहिए। उदाहरण अ, इ, उ।
दीर्घ - इसका उच्चारण "द्विमात्रिक" होता है अर्थात् जितने समय में हाथ की कलाई की नाड़ी दो बार धड़कती है उतने समय में इसका उच्चारण करना चाहिए। उदाहरण आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।
प्लुत - इसका उच्चारण "त्रिमात्रिक" होता है अर्थात् जितने समय में हाथ की कलाई की नाड़ी तीन बार धड़कती है उतने समय तक उच्चारण करना चाहिए। उदाहरण ओ३म् ।
संस्कृत भाषा में क्, खु, ग् घ् आदि अक्षर व्यञ्जन कहलाते हैं। ये सभी व्यञ्जन अर्धमात्रिक होते हैं, और इनका उच्चारण बिना स्वर के नहीं हो सकता। संस्कृत और हिन्दी भाषा में व्यञ्जनों का उच्चारण प्रायः व्यञ्जन के साथ स्वर को मिलाकर सिखाया जाता है जैसे क् + अ क, खू अख, इत्यादि । बिना स्वर को संयुक्त किये व्यञ्जनों का उच्चारण ठीक प्रकार से होना कठिन होता है।
ऋग्वेद और अथर्ववेद के मन्त्र शीघ्रगति से, यजुर्वेद के मन्त्र मध्यम (ऋग्वेद से आधी गति) और सामवेद के मन्त्र धीमी गति (ऋग्वेद से एक तिहाही गति) से बोलने चाहिए।
व्यञ्जन (आधे अक्षर) को पूरा न बोलें यथा तत् को तत, स्वः को सवः न बोलें। इसी प्रकार से स्वर सहित पूरे अक्षर को आधा न बोलें जैसे मम को मम्, बह्म को बह्यू। ये अशुद्ध उच्चारण हैं।
दीर्घ अक्षरों को हस्व अक्षरों के समान न बोलें यथा 'भूः' का भुः, 'भूतस्य' को भुतस्य, 'पृथिवी' को पृथिवि न बोलें।
जो शब्द जैसे लिखा हो उसे वैसा ही बोलें यथा 'भुवः' को भवह और 'करतलकरपृष्ठे' को कर्तल्कपृष्ठे न बोलें। 'यो३स्मान्' में आये इस ३ स्वर चिह्न को प्लुत न बोलें।
विराम चिह्न पर जहाँ मन्त्र का एक भाग समाप्त होता है, वहाँ थोड़ा रुकें। यथा ओम् अग्नये स्वाहा। इदं .... यहाँ (।) विराम चिह्न पर रुकें। और जहाँ मन्त्र के मध्य में (-) ऐसा चिह्न आये वहाँ पर भी थोड़ा सा रुकें, यथा 'इदमग्नये - इदन्न मम' यहाँ (-) इस चिह्न पर थोड़ा सा रुकें।
वेद मन्त्र के अन्तिम भाग को भी उसी गति से बोलें, जिस गति से पहले भाग को बोला गया है यथा 'ओम् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये इदन्न मम। यहाँ 'इदमग्नये - इदन्न मम' को शीघ्र न बोलें अपितु पूर्वगति के समान धीरे-धीरे ही बोलें।
दो पृथक् शब्दों को मिलाकर (एक बनाकर न बोलें। यथा 'स दाधार' को सदाधार तथा 'स नो' को सनो बोलना अशुद्ध है।
ऋ अक्षर को र वा रि के समान न बोलें यथा 'हृदयम्' को हिरदयम्, 'सृष्टि' को सरिष्टि या सिरष्टि बोलना अशुद्ध है।
एक कर्म के मन्त्र समूह यथा 'ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना', 'स्वस्तिवाचन', 'शान्तिकरण', 'अघमर्पण', 'मनसापरिक्रमा', 'उपस्थान' आदि में आये मन्त्रों के प्रथम मन्त्र के पूर्व ही "ओ३म्" का उच्चारण करें, न कि प्रत्येक मन्त्र के पूर्व। उसओ३म् को 'प्लुत' लम्बा करके भी बोलें।
किसी भी मन्त्र से यज्ञ में आहुति देते समय मन्त्र के अन्त में 'स्वाहा' ही बोलें।
स्वाहा से पूर्व 'ओ३म्' को न जोड़े।
डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबंध सम्पादक )
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