अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)-
(१) भारत मे २५ से अधिक शक तथा संवत्सर प्रचलित हुये। पर भारतीय लोग तिथि नहीं देते थे। तिथि केवल ग्रीक/रोमन लोग देते थे जिनके यहां विक्रमादित्य संवत् से पूर्व कोई कैलेण्डर नहीं था (टालेमी का अल-मैजेस्ट, अल बरूनी का प्राचीन देशों की कालगणना)।
(२) भारत की सभ्यता भारतीय नहीं थी केवल सिन्धु घाटी की थी। वह भी पहाड़ की घाटी नहीं, मरुभूमि भाग का मैदान था। सभ्यता का आरम्भ नदी जल से नहीं, सरस्वती नदी सूखने से हुआ। "सिन्धु घाटी" में भी वही लेख प्रामाणिक है जिसका आज तक एक भी वाक्य नहीं मिला है। मिट्टी के कुछ खिलौनों को १५ से अधिक विद्वान लिपि के रूप में पढ़ चुके हैं।
(३) भारतीय लोग सदा से झूठे थे। हजारों वर्षों तक इतिहास के नाम पर रामायण, महाभारत, पुराण, राजतरंगिणी आदि द्वारा झूठ लिखते रहे। सत्य केवल वह है जो यूरोप के लोगों ने कहा। उसमें भी वही मेगास्थनीज प्रामाणिक है, जो या तो कभी हुआ नहीं, या उसने कभी पुस्तक नहीं लिखी। विलियम जोन्स, श्वानबेक, मैक्रिण्डल आदि द्वारा मेगास्थनीज को जन्म दिया गया तथा अन्य लेखकों के कथनों के मनमाने संग्रह का १०० से अधिक संशोधन तथा परिवर्तन किया।
(४) सभी भारतीय विदेशी हैं। अफ्रीका से यहां की खानों में काम करने के लिए आये व्यक्ति ही मूल निवासी हैं, जिनका चेहरा स्पष्ट रूप से अफ्रीकी लोगों जैसा है।
(५) भारतीय शिलालेखों की तिथियों को नष्ट किया गया-कर्नल टाॅड आदि द्वारा, या बच गये तो अविश्वसनीय कहा गया। नासा द्वारा कैलेण्डर साॅफ्टवेयर बनने के बाद सभी भारतीय तिथियों को बदलने का अभियान चल रहा है। स्वयं नासा साॅफ्टवेयर ३००० ईपू में ३ दिन तथा ५००० ईपू में ७ दिन की अशुद्धि स्वीकार करता है।
(६) कहीं कोई पुरानी ईंट मिल जाये, वह या तो गुप्त काल की होगी, या वैदिक सभ्यता का आरम्भ।
(७) युधिष्ठिर, शूद्रक, विक्रमादित्य, शालिवाहन आदि २५ से अधिक राजाओं ने जितने शक या संवत्सर आरम्भ किये, वे कभी पैदा नहीं हुये थे। भारतीय लोग सम्मिलित षडयन्त्र द्वारा उनकी तिथियों को मान रहे हैं।
(८) लौह अयस्क की खोज तथा उससे लोहा निकालना सबसे सहज है। ताम्बा का अयस्क खोजना आज तक किसी वैज्ञानिक या नासा द्वारा भी सम्भव नहीं है। उससे ताम्बा निकालना भी कठिन है। पर ताम्र युग पिछड़ा था। विकसित होने पर लौह युग आरम्भ हुआ।
(९) सभ्यता के केवल दो चिह्न हैं-खुदाई में मिले कच्ची या पक्की मिट्टी के बर्तन। उसी से पुल निर्माण, ९ मंजिले भवन बन जाते थे, ग्रहण की गणना भी हो जाती थी जो किसी गणित प्राध्यापक को भी समझ नहीं आयेगा। ब्रह्माण्ड के आकार की भी पक्की मिट्टी के बर्तन द्वारा माप हो गयी थी। नार्लीकर-रस्तोगी की पुस्तक के अनुसार बकरे की बलि देकर पुरोहित ग्रहण गणना करते थे।
(१०) इतिहास या किसी भी अन्य विषय में किसी भारतीय लेखक का विचार तब तक सत्य नहीं माना जा सकता जब तक वह अंग्रेज लेखक द्वारा स्वीकृत नहीं हो।
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