त्रिस्कन्धज्योतिर्विद् शशांक शेखर शुल्व- (वेद-व्याकरण-निरुक्त-छन्दः-साहित्य-ज्योतिषायुर्वेदाद्यनेका-शास्त्रपारावारीणः) -
१. एकादशी एकात् + अशी = (एक + ङस) + (अश् + घञ + ङीप् एक का अर्थ है विष्णु (विष्णु सहस्र नाम) अतः एकात् विष्णोः । अशी का अर्थ है-भोक्ता। भोक्ता जीव अश् स्वादि आत्मने अश्नुते क्र्यादि परस्मै अश्नाति । एकदादशी का अर्थ हुआ- एकात् विष्णोर्वा जीवः। जीव का अलग कोई अस्तित्व नहीं है। जीव है, विष्णु से (अपादान)। जीव, विष्णु का अंश है। विष्णु वा ईश्वर अंशी है। एक (विष्णु) से निकला हुआ (अलग हुआ) जीव, अशी (भोक्ता) है।
२. पुनः एकादशी एका + दशी एक च दशी च एका प्रकृति वा माया। दशी = जीव_दश इन्द्रियों वाला। एकादशी का अर्थ हुआ- अविकृत प्रकृति (एका) एवं दश इन्द्रियों वाले जीव वा दश दिशाओं के अधिपाति विष्णु (पुरुष) की सृष्टि । पुनः एकादशी कुम्भा एकादश ११ = कुंभराशि। = शनि कुंभ राशि का स्वामी होने के कारण। = यम सर्वाधिक मारक क्षमता से युक्त होने से। इस प्रकार एकादशी का अर्थ हुआ प्राणियों का यमन करने वाला, संहार करने वाला नियंत्रण करने वाला, अनुशासन करने वाला।
3. एकादशी लाभ कुण्डली का ग्यारहवाँ भाव = इच्छापूर्ति इच्छापूर्ति होना ही वास्तविक लाभ है। = आत्मज्ञान । ।’ को लाभ ? आत्मावगमो हि यो वै शंकराचार्य इस प्रकार एकादशी का अर्थ हुआ आत्म साक्षात्कार का
4. एकादशी रुद्रगणों का दर्शन रुद्रगण ग्यारह हैं। = सुख से वञ्चित होना वा रुदन करना। = सय्या सुख एवं स्वाइन्न का अभाव।
5. एकादशी का वास्तविक अर्थ है- एक दिन के भोजन से अपने को अलग-थलग रखना भोजन करने में सुख है। सुख का कारक शुक्र है। काल चक्र में शुक्र, पक्ष (१५ दिन) का द्योतक है। अतः पक्ष में एक दिन और केवल एक दिन अपने को सुस्वादु भोजन से वाञ्चित रखना एकादशी है।
6. एकादशी ११ = २ [१ + १ =२/ = वृष अतः एकादशी का अर्थ हुआ सुख समृद्धि की वर्षा करने वाला अर्थात् धर्म
7. एकादशी ११ स्थिर राशि है। १ + १२ स्थिर राशि है। अतः एकादशी का तात्पर्य है- स्थैर्य चित्तवृत्तियों का अचाज्वल्य स्थित प्रज्ञता, समाधि, सम्यक् शान्ति
8. ११ और २ राशियाँ परस्पर केन्द्रस्थ हैं। इनके स्वामी क्रमशः शनि और शुक्र परस्पर मित्र हैं। इस लिये एकादशी का भाव हुआ केन्द्रस्थिति स्वरूपस्थिति, आत्मसंस्थता, सभी प्राणियों से मैत्री भाव, सभी में ईश्वरदर्शन है, निर्वैरता ‘निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव [गीता]
9. एकादशी प्रथम भाव दशम भाव = लग्न कर्म = स्व + पद (प्रतिष्ठा) स्वस्थता आधिदैविक, आधिभौतिक, अध्यात्मिक स्थिति में रहना ही स्वस्थता है। यही श्रेष्ठ पद है। यही श्रेष्ठ कर्म है। यहाँ स्वधर्म है। ‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मः भयावहः ।।
१0. भूतिः क्षमा दमोएस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः धीविद्यासत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्। मनुस्मृति इन दश लक्षणों वाले धर्म को ‘दशी’ कहते है। इन दश लक्षणों में एकता (एकीकृत भाव) का होना ही ‘एका’ है। इस ‘एका’ और ‘दशी’ का सामासिक रूप है एकादशी। और एकादशी का अर्थ है- एकही साथ, एक ही व्यक्ति में, एकही समय धर्म के दश लक्षणों का भाव।
१1. एकादशी = ए का + द शी = (इ + वि) + (कच् + इ + टाप) + (दा + ड) + (शी + क्विप) (विष्णु) + (ज्योति) + (दान)) + शान्ति) = वैष्णवी शान्ति। ‘शी’ अदादि आत्मने शेते। शी + क्विप् शी। शी निद्रा, विश्राम, शान्ति। ‘दा’ ध्वादि परस्मै यच्छति अदादि परस्मै दाति जुहोत्यादि उभय ददाति दत्ते ‘दै’ भ्वादि परस्मै दायति, पवित्र करना पवित्र होना शुद्ध करना। ‘दो’ दिवादि परस्मै यति, (फसल) काटना बांटना प्रेरणा दायरति इच्छा दित्सति दा+ क द । देने वाला स्वीकार करने वाला दै+ क द उत्पादन करने वाला काट कर दो कद फेंकने वाला दूर करने वाला, बाँटने वाला। भ्वादि परस्मै कचति, चिल्लाना रोना। भ्वादि उभय कचति-ते, बाँधना जकड़ना, चमकना कच् कच् + + टापू का।
चमक प्रकाश ज्योति किरण भा अदादि परस्मै एति ।। भ्वादि उभय अयति ते ३ + विच् = ए ए = विष्णु, स्मरण ईष्या करुणा आमन्त्रण घृणा निन्दा व्यञ्जक अव्यय । इस प्रकार एकादशों का अर्थ हुआ वैष्णवी ज्योति का प्रादुर्भाव अथवा वैष्णव ज्ञान का उदय होने पर व्यक्ति दान देता है और दान देकर शांति पाता वा लेता है। किसी से कुछ न लेना, केवल देना ही देना और ऐसा करने में शांति विश्राम का अनुभव होना वैष्णव जीवन है। इसी वैष्णव जीवन का नाम एकादशी है।
हमारे धार्मिक क्रिया कलाप आचार व्यवहार तिथि परक हैं। एकादशी तिथि को व्रत रखा जाता है। इस व्रत में भोजन लिया नहीं जाता, दिया जाता है, विश्राम किया जाता है।
वर्ष में कुल २४ एकादशियों होती हैं। मानो ये २४ तीर्थ है। इन एकादशियों का व्रत करने वाला २४ तीर्थंकरों सम्मिलित अंशभूत है। साररूप में कहा जाय तो एकादशी दानधर्म का नाम है। जो प्रतिदिन देता है, उसकी प्रतिदिन की एकादशी है। आप की एकादशी प्रतिदिन होती है। आप देते हैं। सब को देते हैं। मुझे आप का स्नेह मिलता है। यह ब्रह्मण्य दान है। मैं इसे ग्रहण करता हूँ। देना कठिन है।
तुलसीदास कहते हैं
तुलसी देवो कठिन है, जो काहू को देय ।
सुजस लेय संसार में, फेर आपनो लेय ॥
एकादशी का दान, परलोक की यात्रा में काम में आता है। इस दान से इस लोक में कीर्ति तथा परलोक में पुण्य की लब्धि होती है। ऐसा सुधीजन कहते हैं। मैं इस में विश्वास करता हूँ। मैं व्रत रहता हूँ। भजन करता हूँ। भज् + ल्युट भजनम्। प्राप्त अंश का बंटवारा करता हूँ। एक अंश इतर जीवों को देता हूँ। पाँच अंश पंच प्राणों को देता हूँ। एक अंश आकाश को देता हूँ। शेष अग्नि को समर्पित करता हूँ। यही भजन है। आप नित्य भजनानन्दी है। इसलिये आप को बार-बार प्रणाम कर रहा हूँ। अंशुधर अंशुपति अंशुभृत् अंशुबाण अंशुस्वामी अंशुहस्त अंशुमान अंशुकोष अंशुवृत अंशुगर्भ अंशुमाली भगवान् सूर्य अपने इन एकादश नामों से मेरे एकादशी व्रत को कृतार्थ करें।
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