डॉ. रूद्रदेव त्रिपाठी- Mystic Power-
यन्त्रों के प्रति भारतीय जनमानस में ही नहीं, अपितु विश्व मानव के मन में पूर्ण सम्मान और बढ़ा है। धर्म और देवता में श्रद्धा न रखने वाले लोग भी यन्त्र के रूप में विकसित आकार-प्रकारों की वस्तुवों को अपने पास रखकर अथवा धारण करके प्रसन्न होते हैं। यन्त्रों की महाप्रभावशालिता से मुग्ध मानव ने अपने उपयोग की समस्त वस्तुओं में उनके रूपों को अंकित किया है।
हम देखते हैं कि विश्व की विशालतम स्थापत्य कला की प्रति- कृतियों में आकृतिमूलक विभिन्नताओं के कारणं ही जनसमुदाय उसके प्रति आकृष्ट बना रहता है। इस तत्त्वत को भले ही आज का मानव भूल गया हो, पर प्राचीन, मनीषी यन्त्रों के तात्त्विक अनुसन्धान से भली-भाँति परिचित थे और यही कारण था कि वे उसी प्रकार की संरचना किया करते थे ।
मानव शरीर की रचना स्वयं यन्त्रमय है। इसके अंग-प्रत्यंगों का सूक्ष्म रूप से अध्ययन करने पर त्रिकोण, चतुष्कोण आदि बने हुए स्पष्ट प्रतीत होने लगते हैं। इतना ही क्यों ? जब हम बैठने, उठने और झुकने आदि की क्रियाएं करते हैं तो उनसे भी यन्त्रात्मक आकृतियां सहज ही बन जाती हैं। ये आकृतियां बाह्य और आम्यन्तर दोनों ही रूपों में हमारे लिए लाभप्रद होती हैं। शारीरिक आसन, योगासन के रूप में किए जाने पर शरीर को स्वस्थ बनाने में जितने सहायक होते हैं उतने ही आध्यात्मिक चेतना जागृत करने में भी सहायता करते हैं। यह बात शास्त्रों में बड़ी स्पष्टता से कही गई है--'सिद्धि के लिए कामना- नुसार आसनों का आधार अवश्य ग्रहण करना चाहिए ।'
सो में से पचास प्रतिशत व्यक्ति ऐसे मिल जाएंगे जो किसी भी धर्म के अनुयायी होने पर यन्त्रशक्ति के प्रति पूर्ण श्रद्धावान् होते हैं। किसी के गले में,किसी की भुजा पर, किसी की उंगली में दीवार पर, चित्रों में यन्त्र अवश्य होंगे। प्रतीक भी इसी प्रकार अनेक मिल जाएंगे। धार्मिक देव-प्रतिमाएं हैं, जितने भी धार्मिक तो किसी के घर में पूजा में, धार्मिक, प्रतीक के रूप में यन्त्रमय जितनी भी सुप्रसिद्ध प्रतिष्ठित भवन मन्दिर हैं, सभी के मूल में यन्त्रों की स्थापना अवश्य है। तिरुपति नाथद्वारा, जगन्नाथ पुरी, अम्बाजी, कान्ची आदि में विराजमान यन्त्रराजों की प्रसिद्धि तो सभी को विदित ही हैं। ऐसे यन्त्रों के बारे में जनोक्तियों और किवदन्तियों की भी कमी नहीं है। भिन्न-भिन्न प्रकार के ऐसे उदाहरणों से हमारी आस्था सुदृढ़ बन जाती है। यहां दो-चार उदाहरण देना हम उचित मानते हैं। यथा -
(१) एक नगर में एक साधक रहते थे। वे अपनी साधना के कारण सर्वमान्य थे। एक बार उस नगर के महाराजा की शोभायात्रा निकली और उस साधक के घर के आगे हाथी से उतर कर साधक को प्रणाम करने के लिए उसके सचिवों ने आग्रह किया, किन्तु अभिमानवश राजा ने वैसा नहीं किया । साधक ने परम्परा का त्याग एवं अपमान की भावना को निर्मूल बनाने के लिए शिष्यों के आग्रह से एक यन्त्र लिखकर सड़क पर रखवा दिया। फल यह हुआ कि राजा जिस हाथी पर बैठा हुला था, वह दिग्भ्रान्त हो गया और वहीं घूमने लगा। लाख प्रयत्न करने पर भी आगे नहीं बढ़ता था। अन्त में राजा ने उतर कर साधक से क्षमा-याचना की और यन्त्र हटाया गया तभी वह आगे बढ़ा ।
(२) एक यन्त्रसाधक सापों का विष अपने यन्त्रों के प्रभाव से उतारा करता था। एक बार कोई उच्च जाति का सापं उस पर रुष्ट हो गया और उसने साधक को काट लिया और वह कहीं दूर चला गया। साधक ने अपनी अर्ध चेतनावस्था में एक यन्त्र लिखा और साथ वालों से कहा कि मेरे अचेतन हो जाने पर भी मुझे मृत समझ कर जलाना मत। वह सर्प वापस लौट कर मेरा जहर पी लेगा। वह अचेतन हो गया। काफी समय तक प्रतीक्षा की। सापं के न आने पर उसे श्मशान ले जाकर दाह कर दिया। दाह होते-होते बहां सर्प आया और अपना फन पटक-पटक कर वह वहीं मर गया। सभी देखते-रह गए और अपने किए पर पछताए ।
(३) सुनते हैं कि मथुरा में श्रीबल्लभाचार्यजी महाराज ने विश्राम घाट पर एक यन्त्र ऐसा लगाया था कि उसके नीचे से निकलने पर मियां जी की दाढ़ी उड़ जाती थी और सिर में चोटी निकल जाती थी। यह किसी मौलवी द्वारा लगाये गये उस यन्त्र का प्रतीकार था, जिससे हिन्दुबों की चोटी उड़कर दाढ़ी आा जाती थी। संसार का ऐसा कोई कार्य नहीं जो यन्त्रों के द्वारा सिद्ध नहीं हो। साथ ही यह भी कहा जा सकता है कि यन्त्र ही वह शक्ति है जिसके द्वारा समस्त चराचर की सिद्धियां सुलभ बनती हैं। हमारे लिए परम उपकारी आचार्यों ने प्रत्येक कार्य की सिद्धि के लिए यन्त्रों का निर्देश किया है। और यह भी लिखा है कि किसी एक यन्त्र को सिद्ध करके उसके द्वारा भी हम अपनी इच्छानुसार उसके प्रयोग करके कार्य में सफलता प्राप्त कर सकते हैं।
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