योग रसायन’ में त्राटक के विधान एवं प्रगति

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  • आयुष
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  • 31 October 2024
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डॉ.दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबंध संपादक)-

 ‘योग रसायन’ में त्राटक के विधान एवं प्रगति क्रम पर प्रकाश डालते हुए बताया गया है- 

दृश्यते प्रथमाभ्यासे तेजो बिदु समीपगम्। चक्षषो रश्मिजातानि प्रसंरति समंततः॥ 

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नाटक के अभ्यास से प्रथम तेजोमय बिन्दु पास आया दीखेगा। फिर नेत्र से रश्मियाँ निकलती दीखेंगी 

तेजसा संवृतं लक्ष्यं क्षणं लुप्तं भवेत्ततः। क्षणं दृष्टिगतं भूत्वा पुनलुप्तं भवेत्क्षणात्॥ 

फिर वह तेजपूर्ण बिन्दु कभी लुप्त दीखेगा, कभी प्रकट हुआ दीखेगा । ऐसा ही क्रम बार-बार चलेगा।

 दृष्ट्या समं मनश्चापि लक्ष्यस्थाने प्रवेशयेत्। लक्ष्यं विहाय नैवान्यच्चितयेन्नवलोकेयत। 

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मन भी उसी ओर लगा रहे। लक्ष्य के अतिरिक्त और कुछ न देखे, न सोचे। प्रकाश ज्योति को आधार मानकर मन की एकाग्रता का अभ्यास किया जाता है। अस्तु प्रत्यक्ष या सूक्ष्म प्रकाश की झाँकी करने के साथ ही इस बात का भी प्रयत्न रहना चाहिए कि मन की तन्मयता भी इसी लक्ष्य पर बनी रहे। चंद्र-चकोर दीप-पतंग के उदाहरण की तरह त्राटक साधना की ज्योति के प्रति तन्मयता का भाव रखते हुए उसमें एकाकार हो जाने की भाव भूमिका बनानी चाहिए। 

ध्यान के दो रूप हैं-एक साकार, दूसरा निराकार। दोनों को ही प्रकारान्तर में दिव्य नेत्रों से किया जाने वाला त्राटक कहा जा सकता है। देव प्रतिमाओं की कल्पना करके उनके साथ तदाकार होने-भाव भरे मनुहार करने को साकार ध्यान कहते हैं। 

निराकार उपासना में मनुष्याकृति की देव छवियों को इष्टदेव मानने की आवश्यकता नहीं पड़ती। उस प्रयोजन के लिए प्रकाश ज्योति की स्थापना की जाती है। रूप की दृष्टि से छवि-श्रवण की दृष्टि से नाद और श्वसन प्रक्रिया की दृष्टि से प्राणायाम का उपाय काम में लाया जाता है। 

निराकार साधना के यह तीनों ही उपाय एकाग्रता और भाव कल्पना को प्रखर परिपक्व बनाने के उद्देश्य से की जाती है। 

साकार उपासना का भी यही उद्देश्य है। 

ध्यान अभ्यास के प्रथम चरण में साकार की और द्वितीय चरण में निराकार की आवश्यक होती है। अल्हड़ मन एक बिन्दु पर टिकने को तैयार नहीं होता । उसकी घुड़दौड़ पर धीरे-धीरे नियन्त्रण पाने के लिए देव छवि का उपयोग किया जाता है। इष्टदेव के शरीर का सौन्दर्य उनके वस्त्र, आभूषण, आयुध, वाहन आदि का एक सुविस्तृत ढाँचा खड़ा किया जाता है और मन से कहा जाता है कि वह बन्दर की उछल कूद करने की अपनी आदत छोड़ नहीं सकता तो इतने सीमित क्षेत्र में ही जारी रखे। 

देव छवि के अंग-प्रत्यंगों को -उपकरणों को देखने, सोचने में संलग्न रहने का क्षेत्र काफी बड़ा रहता है। उतने में वह चाहें तो चिड़ियाघर के जानवरों की तरह थोड़े क्षेत्र में गुजारा कर सकता है। इसमें आरम्भिक साधक को सरलता पड़ती है और एकाग्रता की साधना सरलतापूर्वक चलने लगती है। निराकार में इष्टदेव को और भी अधिक सीमित केन्द्रित करना पड़ता है। ज्योति के साथ अन्य घटक नहीं होते। उसकी एक ही सत्ता होती है। उसमें मन की एकाग्रता की लगा सकना परिपक्व मनःस्थिति से ही सम्भव होता है। ज्योति के साथ आत्म-भाव जोड़कर रस उत्पन्न करना यहाँ भी आवश्यक है। 

प्रकाश को ब्रह्म का प्रतीक माना गया है। ज्योति दर्शन को ब्रह्म दर्शन समझा जा सके उसके साथ एकाकार होकर स्वयं भी प्रकाश पुत्र प्रकाश पिण्ड बन जाने की भाव-भरी श्रद्धा उभारी जा सके तो यह बिन्दुयोग की अगली भूमिका समुचित सत्परिणाम दे पाती है। इस अभ्यास में दीप, पतंग एवं चन्द्र-चकोर की सरस कल्पना उभरने से ध्यानयोग का उद्देश्य पूरा होता है। चित्त-वृत्तियों के निरोध को ही योग कहते है॥ त्राटक साधना से उसी उद्देश्य की पूर्ति होती है।



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