डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबंध संपादक) व्युत्पत्ति ” आङ्’ उपसर्गक ‘ हञ् हरणे’ धातु में घञ् प्रत्यय लगाने से आहार शब्द बनता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है भोजन करना।
निरुक्ति एवं परिभाषा आहार्यते गलात् अधः नीयते इति आहारः। अर्थात् जो द्रव्य शरीर की क्रियाओं एवं दोष-धातु मलों की पूर्ति के लिए गले से नीचे लिया जाता है, वह आहार है। अह्रियन्ते शरीरधातवः अनेन इत्याहारः। जिसके द्वारा शारीरिक धातुओं की पुष्टि होती है, उसे ही आहार कहते हैं।
गलविवरादधः संयोगानुकूलव्यापारः आहारः। गले के छिद्रों से नीचे के अवयवों (आमाशय) से जिन द्रव्यों का संयोग कराया जाता है, उसे आहार कहा जाता है। आह्रियते इति आहारः। जो कुछ खाया जाता है, उसे आहार कहते हैं। आह्रियते उपश्रियते शरीरमनेने इति आहारः।
जो शरीर के उपचय (Anabolism) एवं क्षय पूर्ति का कार्य करते हैं, वह आहार है।
त्रय उपस्तम्भा इति-आहारः, स्वप्नो, ब्रह्मचर्यमिति। एभिः. शरीरं बलवर्णोपचयोपचितम् अनुवर्तते। (च.सू. 11/35) डल्हण के अनुसार वात, पित्त एवं कफ शरीर के प्रधान स्तम्भ हैं तथा आहार, निद्रा एवं ब्रह्मचर्य सहायक स्तम्भ (उपस्तंभ) है। ये आहार के साथ मिलकर शरीर में बल, वर्ण, उपचय (बृद्धि) का अनुवर्तन करते हैं। अद्यते अत्ति च भूतानि तस्मादन्नं तदुच्यते। प्राणियों द्वारा मुख से सेवन किये द्रव्य को अन्न कहते हैं। प्राणाः प्राणभृतामत्रमत्रं लोकोऽभिधावति। (च.सू. 27/349) अर्थात् प्राणधारियों का प्राण अन्न है, अतः जीव लोक अन्न की ओर भागता है।
वर्ण, प्रसन्नता, सुन्दर स्वर का होना, जीवन, प्रतिभा, सुख, सन्तोष, शरीर की पुष्टि, बल, मेधा, ये सभी वस्तुएं अन्न से ही प्रतिष्ठित हैं अर्थात् अन्न प्राप्त होने पर ही इनकी स्थिति है। शारीरिक व्यापार के लिए जो लौकिक कर्म है, स्वर्ग गमन के लिए जो वैदिक कर्म किये जाते हैं और मोक्ष साधक जो कर्म बताए गये हैं, वे सभी कर्म अन्न में ही प्रतिष्ठित हैं, अर्थात् बिना अन्न के संसार में कोई भी कार्य नहीं किये जाते हैं इस प्रकार अन्न (आहार) सर्वश्रेष्ठ प्राणाः प्राणभृतामन्नं तयुक्त्या निहन्त्यसून्। (च.चि. 24/60)
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