श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ )-
Mystic Power - एक सन्देह व्यक्त किया जाता है कि आत्मा अमर है तो आत्महत्या का क्या अर्थ है। आत्मा के कई रूप या अर्थ हैं। समाज में मनुष्य का परिचय या व्यक्तित्व कई स्रोतों के अनुसार है-भारतीय, बिहारी, ब्राह्मण, भौतिक विज्ञानी, सरकारी अधिकारी, पिता आदि। इसी प्रकार आकाश की रचनाओं के अनुसार हमारा परिचय है-
(१) पृथ्वी-पार्थिव शरीर (यह भी आत्मा है)-आत्मा वै तनूः (शतपथ ब्राह्मण ६/७/२/६), पाङ्क्त इतर आत्मा लोमत्वङ्मांसमस्थि मज्जा (ताण्ड्य महाब्राह्मण ५/१/४)-इसी आत्मा के लिये आत्महत्या शब्द है। इसका जन्म होता है अतः यह भूतात्मा है। शरीर रूपी विश्व में आश्रित है अतः वैश्वानर है। स यः स वैश्वानरः-इमे स लोकाः। इयमेव पृथिवी विश्वं-अग्निर्नरः। अन्तरिक्षमेव विश्वं-वायुर्नरः। द्यौरेव विश्वं-आदित्यो नरः। (शतपथ ब्राह्मण ९/३/१/३) ये ३ रूप हैं-वैश्वानर, तैजस, प्राज्ञ। कुछ समय के लिये चेतना शरीर से बाहर विचरण करती है, वह हंसात्मा है।
(२) चान्द्र मण्डल-प्रज्ञान आत्मा-रात्रि में ब्रह्माण्ड का सब दिशा में विस्तार दीखता है, अमावास्या में उसकी अमृत कला दीखती है, सूर्य प्रकाश से संयुक्त होने पर पूर्णिमा तक चन्द्र का अपना प्रकाश घटता बढ़ता है। ब्रह्माण्ड का सोम (विरल फैला तत्त्व) चन्द्र मण्डल में मिल कर जीवन की उत्पत्ति करता है। यह महान् आत्मा है जो मनुष्य के शुक्र में प्रतिष्ठित है। इसी का उल्लेख रघुवंश (२/७५) में है कि सूर्य से जो तेज निकलता है वह आकाशगंगा के सोम से मिल कर चान्द्रमण्डल में सृष्टि करता है जैसे पुरुष का शुक्र स्त्री के रज से मिल कर स्त्री गर्भ में जन्म देता है। इसके ३ रूप हैं-आकृति महान्, प्रकृति महान्, अहङ्कृति महान्। दूसरा प्रभाव है चन्द्र निकट होने के कारण मन में भौतिक रूप से कम्पन पैदा करता है। यह प्रज्ञान आत्मा है।
आकृति- यत् त्वा देव प्रपिबन्ति तत आ प्यायसे पुनः।
वायुः सोमस्य रक्षिता समानां मास आकृतिः॥ (ऋक् १०/८५/५)
प्रकृति- मायां तु प्रकृतिं विद्यान् मायिनं तु महेश्वरम्।
तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत्॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद् ४/१०)
अहङ्कृति-अङ्गुष्ठमात्रः रवितुल्य रूपः सङ्कल्पाहङ्कार समन्वितो यः।
बुद्धेर्गुणेनात्मगुणेन चैव अराग्रमात्रोऽप्यपरोऽपि दृष्टः॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद् ५/८)
प्रज्ञान-यत् प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरमृतं प्रजासु।
यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥ (वाज. यजु. ३४/३)
यदेतत् हृदयं मनश्चैतत् संज्ञानमाज्ञानं विज्ञानं प्रज्ञानं मेधा दृ(इ)ष्टिर्धृतिर्मनीषा जूतिः स्मृतिः सङ्कल्पः क्रतुरसुः कामो वश-इति सर्वाण्येवैतानि नामधेयानि भवन्ति।
सर्वं तत् प्रज्ञानेत्रं, प्रज्ञाने प्रतिष्ठितं प्रज्ञानं ब्रह्म॥
(ऐतरेय उपनिषद् ३/१/२)
(३) सौर मण्डल-तेज रूप दैव आत्मा, बुद्धि रूप विज्ञान आत्मा।
विज्ञान-विज्ञानात्मा सह देवैश्च सर्वैः प्राणा भूतानि सम्प्रतिष्ठन्ति यत्र।
तदक्षरं वेदयते यस्तु सोम्य! स सर्वज्ञः सर्वमेवाविवेश॥ (प्रश्नोपनिषद् ४/११)
एव हि द्रष्टा, स्प्रष्टा, श्रोता, घ्राता, रसयिता, मन्ता, योद्धा, कर्त्ता, विज्ञानात्मा पुरुषः।
स परेऽक्षरे आत्मनि सम्प्रतिष्ठते। (प्रश्नोपनिषद् ४/९)
दैव-दैवो वाऽअस्यैष आत्मा, मानुषोऽयम्। स यन्न न्यञ्जात्, न हैतं दैवात्मानं प्रीणीयात्। अथ यन्न्यनक्ति, तथो हैतं दैवात्मनं प्रीणाति। (शतपथ ब्राह्मण ६/६/४/५)
(४) परमेष्ठी मण्डल (ब्रह्माण्ड)-चिदात्मा-परम गुहा की प्रतिकृति सूक्ष्म गुहा। सृष्टि निर्माण या यज्ञ का आरम्भ परमेष्ठी से, मनुष्य का सर्जक रूप यज्ञात्मा।
चिदात्मा (सभी कोषिका में)-अनुज्ञैकरसो ह्यमात्मा चिद्रूप एव (नृसिंह उत्तरतापिनी उपनिषद् २)
महान् आत्मा के ४ अंश रूप हो जाते हैं- स वा एष महानज आत्मा, योऽयं विज्ञानमयः, प्राणेषु, य एषोऽन्तर्हृदय आकाशस्तस्मिञ्छेते, सर्वस्य वशी, सर्वस्येशानः, सर्वस्याधिपतिः। स न साधुना कर्म्मणा भूयान्, नो एवा साधुना कनीयान्।
एष सर्वेश्वरः, एष भूताधिपतिः, एष भूतपालः,एष सेतुर्विधरण एषां लोकानामसंभेदाय। (बृहदारण्यक उपनिषद् ४/४/२२)
(५) स्वयम्भू मण्डल (पूर्ण जगत्)- वेद, सूत्र, अन्तर्यामी।
वेद (परस्पर का प्रभाव या ज्ञान)-स एव नित्य कूटस्थः, स एव वेदपुरुष इति विदुषो मन्यन्ते (परमहंसोपनिषद् १)
सूत्र (किन्हीं दो कणों के बीच सम्बन्ध)-वायुर्वै गौतम! तत् सूत्रम्। वायुना वै गौतम! सूत्रेणायं लोकः, परश्च लोकः, सर्वाणि च भूतानि संदृब्धानि भवन्ति। (बृहदारण्यक उपनिषद् ३/७/२)
इसके अतिरिक्त अव्यक्त परात्पर के भी कई रूप हैं जिनमें कोई भेद या परिवर्तन नहीं होता।
अन्तर्यामी (सबके भीतर वर्तमान)-यः पृथिव्यां तिष्ठन्, पृथिव्या अन्तरो, यं पृथिवी न वेद, यस्य पृथिवी शरीरं, यः पृथिवीमन्तरो यमयति, एष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः। (बृहदारण्यक उपनिषद् ३/७/३)
अखण्ड परात्पर-संविदन्ति न यं वेदा विष्णुर्वेद न वा विधिः।
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह॥ (तैत्तिरीय उपनिषद् २/४/९)
मायी परात्पर-यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय।
तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः परात्परः पुरुषमुपैति दिव्यम्। (मुण्डकोपनिषद् ३/२/८)
गूढ़ोत्मा-दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः (कठोपनिषद् १/३/१२)
अव्यक्ता आत्मा (निराकार)-य एषो ऽनन्तोऽव्यक्त आत्मा। (जाबालोपनिषद् २)
इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः। मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः।
महतः परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः।
पुरुषान्न परं किञ्चित् सा काष्ठा सा परा गतिः। (कठोपनिषद् १/३/१०,११)
शान्तात्मा-नमः शान्तात्मने तुभ्यम् (मैत्रायणी उपनिषद् ५/१)
चतुर्थ शान्त आत्मा प्लुतप्रणव प्रयोगेन समस्तमोमिति। (अथर्वशिखोपनिषद् १)
यदा स देवो जागर्ति तदेदं चेष्टते जगत्। यदा स्वपिति शान्तात्मा तदा सर्वं निमीलति॥ (मनुस्मृति १/५२)
प्रकाश गति से सूर्य चन्द्र के साथ सम्बन्ध-सूर्य से हमारा सम्बन्ध मुख्यतः प्रकाश किरणों से है, कुछ गुरुत्व से भी। हृदय से आज्ञा और सहस्रार चक्र तक हर व्यक्ति का अलग अलग पथ है, इसे अणु-पथ कहते हैं। ब्रह्मरन्ध्र के बाद सबका सूर्य तक एक ही मार्ग है। प्रकाश की गति ३ लाख किलोमीटर प्रति सेकण्ड है। इस गति से सूर्य की दूरी १५ करोड़ किलोमीटर पार करने में ५०० सेकण्ड = ८ मिनट लगेंगें। अतः १ मुहूर्त्त (४८ मिनट) में यह सम्बन्ध ३ बार जा कर लौट आयेगा जो ऋग्वेद में वर्णित है।
चन्द्र हमारे मस्तिष्क द्रव को भौतिक रूप से आकर्षित करता है; दूर होने के कारण सूर्य का आकर्षण बहुत कम है। इसके कारण प्रज्ञान मन में तरंगें उठती रहती हैं और मन सदा चञ्चल रहता है। यह भी प्रकाश गति से प्रभाव होगा अतः प्रायः १ निमेष में प्रभाव होता है। अतः सूर्य को आत्मा या बुद्धि कारक तथा चन्द्र को मन का कारक कहते हैं। यज्ञ और अव्यक्त आत्मा का उच्चतर लोकों से सम्बन्ध है। वह मनुष्य रचना को प्रभावित करते हैं जैसे हमारे मस्तिष्क कणों की संख्या उतनी ही है जितना ब्रह्माण्ड में तारा संख्या। इनके कारण दैनिक परिवर्तन नहीं होता, पर उस दिशा में सूर्य चन्द्र आदि ग्रहों के कारण उनका प्रभाव बदलता है। इनका चित्र रूप नीचे दिया है; उसके बाद कुछ उद्धरण दिये हैं।
यहां यज्ञात्मा शरीर क्रिया को सञ्चालित करता है। अव्यक्त आत्मा का परमात्मा के साथ सम्बन्ध है। हमारे लिये विश्व का केन्द्र सूर्य है।
सूर्य आत्मा जगतस्तथुषश्च (वाजसनेयी यजुर्वेद ७/४२)
तदेते श्लोका भवन्ति-अणुः पन्था विततः पुराणो मां स्पृष्टोऽनुवित्तो मयैव। तेन धीरा अपियन्ति ब्रह्मविदः स्वर्गं लोकमिव ऊर्ध्वं विमुक्ताः।८।
तस्मिञ्छुक्लमुत नीलमाहुः पिङ्गलं हरितं लोहितं च। एष पन्था ब्रह्मणा ह्यानुवित्तस्तेनैति ब्रह्मवित्पुण्यकृत्तैजसश्च॥ (बृहदारण्यक उपनिषद् ४/४/८,९)
अथ या एता हृदयस्य नाड्यस्ताः पिङ्गलाणिम्नस्तिष्ठन्ति शुक्लस्य नीलस्य पीतस्य लोहितस्येत्यसौ वा आदित्यः पिङ्गल एष शुक्ल एष नील एष लोहितः॥१॥ तद्यथा महापथ आतत उभौ ग्रामौ गच्छन्तीमं चामुं चामुष्मादित्यात्प्रतायन्ते ता आसु नाडीषु सृप्ता आभ्यो नाडीभ्यः प्रतायन्ते तेऽमुष्मिन्नादित्ये सृप्ताः॥२॥ ..... अथ यत्रैतदस्माच्छरीरादुत्क्रामति अथैतैरेव रश्मिभिरूर्ध्वमाक्रामते सओमिति वा होद्वामीयते स यावत्क्षिप्येन्मनस्तावदादित्यं गच्छत्यतद्वै खलु लोकद्वारं विदुषा प्रपदनं निरोधोऽवदुषाम् ॥५॥ (छान्दोग्य उपनिषद् ८/६/१,२,५)
ब्रह्मसूत्र (४/२/१७-२०)-१-तदोकोऽग्रज्वलनं तत्प्रकाशितद्वारो विद्यासामर्थ्यात्तच्छेषगत्यनुस्मृतियोगाच्च हार्दानुगृहीतः शताधिकया।
२. रश्म्यनुसारी।
३. निशि नेति चेन सम्बन्धस्य यावद्देहभावित्वाद्दर्शयति च। ४. अतश्चायनेऽपि दक्षिणे।
रूपं रूपं मघवाबोभवीति मायाः कृण्वानस्तन्वं परि स्वाम्।
त्रिर्यद्दिवः परिमुहूर्त्तमागात् स्वैर्मन्त्रैरनृतुपा ऋतावा॥(ऋग्वेद ३/५३/८)
त्रिर्ह वा एष (मघवा = इन्द्रः, आदित्यः = सौर प्राणः) एतस्या मुहूर्त्तस्येमां पृथिवीं समन्तः पर्य्येति। (जैमिनीय ब्राह्मण उपनिषद् १/४४/९)
ग्रहों से सम्बन्ध-मनुष्य का सूर्य से प्रकाश किरण गति से जो सम्बन्ध है, वह बाकी ग्रहों के कारण थोड़ा प्रभावित होता है। चन्द्र-सूर्य तक जो सम्बन्ध है उसे सुषुम्ना कहा गया है। किरणों का रंग मनुष्य के अपने हृदय की स्थिति के अनुसार है-इनको शुक्ल, नील, लोहित, पीत कहा गया है। ग्रहों के प्रभाव से किरणों का गुण बदलता है तथा उनकी दिशा भी बदलती है, जैसा प्रकाश के पोलराइजेशन में होता है।
ग्रह बुध शुक्र पृथ्वी-चन्द्र मंगल बृहस्पति शनि नक्षत्र
नाड़ी विश्वकर्मा विश्वव्यचा सुषुम्ना संयद्वसु अर्वाग्वसु स्वर हरिकेश
(विश्वश्रवा)
दिशा दक्षिण पश्चिम ----- उत्तर ऊपर ----- पूर्व
इनके वर्णन वाजसनेयि यजु (१५/१५-१९, १७/५८, १८/४०), कूर्म पुराण (भाग १, ४३/२-८), मत्स्य पुराण (१२८/२९-३३), वायु पुराण (५३/४४-५०), लिङ्ग पुराण (१/६०/२३), ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२४/६५-७२) में हैं जो नीचे दिये गये हैं।
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