भगवान शंकर पर आरूढ़ जगज्जननी महाकाली की छवि का रहस्य।

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  • तंत्र शास्त्र
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  • 31 October 2024
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कृपा शंकर मुद्गिल- पाश्चात्य अनुसन्धान कर्ता जो इस समय योग और तंत्र पर खोज कर रहे हैं, उनका कहना है कि योग-तंत्र-विज्ञान विशाल, अनन्त गहराइयों वाला समुद्र है जिसके जल की एक बूंद ही भौतिक विज्ञान है। यह सत्य है कि स्थूल और सूक्ष्म वायु में होने वाली ध्वनि- तरंगें एक समय नष्ट हो जाती हैं, परंतु सूक्ष्मतम वायु (ईथर) जो अखिल ब्रह्माण्ड में सर्वत्र समान रूप से व्याप्त है, में पहुंचने वाली ध्वनि-तरंगें कभी किसी काल में नष्ट नहीं होतीं। आधुनिक उपकरणों द्वारा ध्वनि को विद्युत्-प्रवाह में बदल कर उसको सूक्ष्मतम अल्ट्रासॉनिक रूप दिया जाता है। इसलिए इसी वैज्ञानिक विधि से रेडियो,वायरलैस आदि का निर्माण हुआ था। बाद में उसका और विकसित रूप टेलीविजन का निर्माण हुआ जिसमें ध्वनि- तरंगों को प्रकाश-तरंगों में बदल दिया गया और जिन्हें चित्र-दर्शन के रूप में हम देखते है। ईथर में होने वाले कम्पन, आवृत्ति, फ्रीक्वेंसी की संख्या एक सेकेण्ड में 1048576 से 34359738368 तक होती है। जब कम्पन की संख्या अपनी निश्चित सीमा के बाहर बढ़ती है तो उन कम्पनों से एक विचित्र और आश्चर्यजनक अखण्ड प्रकाश का आविर्भाव होता है।जिसे वैज्ञानिक लोग X-Rays कहते हैं।ईथर में एक सेकेण्ड में इतने अधिक कम्पनों के उत्पन्न होने के कारण उनकी गति विलक्षण होती है। हम-आप उसकी इस विलक्षण गति का अनुमान इसी से लगा सकते हैं  कि रेडियो स्टेशन या दूर दर्शन- केंद्र के प्रसारण कक्ष में हो रहे संगीत के कार्यक्रमों को हम उसी समय सुन और देख लेते हैं जिस समय वहां कार्यक्रम हो रहा होता है। एक सेकेण्ड के हजारवें हिस्से जितना समय भी नहीं लगता है। ईथर के कम्पनों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे जहां अपने समान कम्पन पाते हैं, वहीं आकर्षित हो जाते हैं। ईथर में पहुंचे हुए शब्दों के विशाल भंडार का कोई ओर-छोर नहीं है, वह अभी भी है और भविष्य में भी रहेगा।लेकिन ईथर के समुद्र में केवल सूक्ष्मतम ध्वनि ही प्रवेश कर सकती है, अन्य प्रकार की ध्वनियां वहां पहुंचने से पहले ही नष्ट हो जाती हैं। मानव सभ्यता के ही साथ-साथ तन्त्र-मन्त्र का प्रादुर्भाव हुआ। उनकी प्राचीनता उतनी ही है, जितनी कि मानव-संस्कृति की। इस विशाल विश्वब्रह्माण्ड में ईश्वर् की अद्भुत शक्तियां क्रियाशील हैं। भिन्न-भिन्न देवता तो उसकी शक्ति के प्रतीक मात्र हैं। इन्हीं देवताओं की कृपा प्राप्त करने के लिए मन्त्र का उपयोग नाना प्रकार से होता है।जिस फल की उपलब्धि के लिए घोर-कठोर श्रम करना पड़ता है, वही फल दैवीय कृपा से थोड़े प्रयास से ही सुलभ हो जाता है। मनुष्य सदा ही सिद्धि प्राप्त करने के लिए किसी सरल मार्ग की खोज में लगा रहता है।उसे पता है और विश्वास है कि कुछ ऐसे सरल उपाय हैं जिनकी सहायता से दैवीय शक्तियों को अपने वश में रखकर अपना भैतिक कल्याण और पारलौकिक सुख प्राप्त किया जा सकता है। ऐसे ही सरल मार्ग हैं-मन्त्रों, यंत्रों के मार्ग जिनका संपूर्ण ज्ञान तंत्र-विज्ञान में उपलब्ध है। यह विषय नितान्त रहस्यपूर्ण है। तंत्र-मंत्र की शिक्षा योग्य गुरु के द्वारा उपयुक्त शिष्य को ही दी जा सकती है। इस विद्या को गुप्त रखने का मुख्य उद्देश्य यही है कि सर्वसाधारण जो इसके रहस्य से अनजान है,अनभिज्ञ है,इसका दुरुपयोग न कर सके। लाभ होने की अपेक्षा हानि होने की ही आशंका अधिक रहती है। बल, शक्ति और क्रिया- इन तीनों को तंत्र में अति सूक्ष्मता से लिया गया है। इन तीनों को ही एक ही मूलतत्व-रूप परब्रह्म का रूप बतलाया गया है- ‘परास्य शक्तिर्विविधेव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च्।’ अर्थात पराशक्ति विविध प्रकार की बलशक्ति,क्रियाशक्ति, ज्ञानशक्ति आदि के रूप में जानी जाती है जो अपने स्वाभाविक गुण-धर्म में विद्यमान रहती है। शक्ति जब सुप्त स्थिति में रहे तो वह ‘बल’ कहलाती है और बल जब कोई कार्य करने को तत्पर होता है तो वही ‘शक्ति’ बन जाती है।अन्त में वह क्रिया-रूप में बदल कर शांत हो जाती है।शक्ति की ये तीन अवस्थाएं हैं।फिर नया बल जागृत होता है लेकिन याद रखना चाहिए कि बल, शक्ति और क्रिया अपने आश्रय-स्थल से अलग होकर प्रत्यक्ष नहीं हो सकती। बल और शक्ति अर्थात् स्थिर और अस्थिर शक्ति का संघर्ष तीसरे रूप ‘क्रिया’ का जनक है। ऋण की ओर धन का प्रवाह स्वाभाविक है। इसी प्रकार पौरुष पर आक्रमण करना शक्ति का सहज रूप है,सहज भाव है।अपने इसी भाव के फलस्वरूप पौरुष को हमेशा पराजित करना शक्ति का सहज धर्म माना गया है।शंकर पर आरूढ़ महाकाली की छवि कुछ इसी रहस्य की ओर संकेत करती है। जब तक यह क्रिया के रूप में शान्त होती रहती है, तब तक पौरुष जागृत रहता है और जहां उपशान्ति का क्रम बन्द हुआ कि शक्ति तुरन्त पौरुष को पराजित कर उसे बलहीन बना देती है। प्रायः देखा गया है कि अत्यन्त बलवान मनुष्य की अजेयता को पराजित करने के लिए नारी-शक्ति का आश्रय लिया जाता है। नारी में शक्ति है और पुरुष में बल।पहली चंचला है और दूसरा है स्थिर।नारी से साक्षात्कार होते ही पुरुष में विक्षोभ होता है। यह विक्षोभ ही उसके निर्माण और नाश का कारण बनता है। महान् पुरुषों के जीवन के उत्थान में यदि नारी का सहयोग है तो दूसरी ओर उसके पतन का भी वही मुख्य कारण है। इसीलिये नारी को ‘माया’ कहा गया है। युद्ध और शान्ति-दोनों में नारी का हाथ है। युद्ध के बिगुल में यदि नारी का अट्टहास मिलेगा तो काव्य के शांत छंद में नारी के आंसू मिलेंगे। मतलब यह है कि शक्ति अपराजिता है, अजेया है और पौरुष के प्रति उसकी हर क्षण ललकार है– गर्ज गर्ज क्षणं मूढ़ मधु यावत्पिवाम्यहम्। मया त्वयि हतेsत्रैव गर्जिष्यंत्याशु देवता।। दुर्गा सप्तशती अर्थात्- रणांगण में रक्त की नदियां बहाती हुई महाकाली ‘मधु’ दानव पर हुंकार भरती हुई ललकारती हैं और कहती हैं ‘हे मूर्ख मधु ! अभी गरज ले जितना गरजना हो, फिर अवसर नहीं मिलेगा। तब तक मैं मधु-पान करती हूँ। अभी इसी रणांगण में शीघ्र ही सभी देवता तेरी मृत्यु पर अपनी विजय-गर्जना करेंगे, अपना विजयोल्लास मनाएंगे।।



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