श्री अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ )-
Mystic Power - १. दुष्प्रचार-विदेशी लेखक अल बरुनि तथा मुगल अकबर के दरबारी अबुल फजल तक भारतीय कालगणना विश्व प्रसिद्ध थी और उन लोगों ने महाभारत, श्रीहर्ष शक, विक्रम संवत् आदि की गणना का वर्णन किया है।
अकबर के दीन-ए-इलाही का आरम्भ युधिष्ठिर शक में लिखा गया। पर अंग्रेजी शासन काल में प्रचार हुआ कि भारतीय लोग तिथि नहीं देते थे तथा सिकन्दर आक्रमण के समय ३२६ ईपू से भारतीय इतिहास का कालक्रम आरम्भ कर दिया। उस समय मगध में आन्ध्र वंश का अन्त और गुप्त राज्य का आरम्भ हो रहा था, जिनके ५ राजाओं का उल्लेख ग्रीक लेखकों ने किया है, पर सभी ५ को मौर्य चन्द्रगुप्त बना कर १३०० वर्षों का इतिहास नष्ट कर दिया। जितने राजाओं ने वर्ष गणना (कैलेण्डर) आरम्भ किया उनको काल्पनिक घोषित कर दिया।
अभी पर्व त्योहार विक्रम संवत् के अनुसार मनाये जाते हैं, अतः विक्रमादित्य को काल्पनिक बनाया। भगवान् राम और श्रीकृष्ण के बाद उज्जैन के परमार वंशी सम्राट् विक्रमादित्य के नाम पर सबसे अधिक साहित्य है, पर उसके बदले चन्द्रगुप्त द्वितीय को नकली विक्रमादित्य घोषित कर दिया। पुरातत्त्व खोज में जो भी ईंट या पत्थर मिलता है, उसे बिना जांचे गुप्त काल का घोषित कर देते हैं जिससे वह ’स्वर्ण युग’ बन गया है।
७८ ई. में विक्रमादित्य के पौत्र शालिवाहन द्वारा आरम्भ शक को कश्मीर के गोनन्द वंशी राजा कनिष्क के नाम पर कर दिया जिनका देहान्त राजतरंगिणी के अनुसार १३५० वर्ष पूर्व १२७२ ईपू में हो चुका था। शक का अर्थ नहीं समझने के कारण उसे विदेशी शक जाति का घोषित कर दिया।
विक्रमादित्य के एक नवरत्न कालिदास ने ज्योतिर्विदाभरण में ग्रन्थ निर्माण और समाप्ति की तिथियां दी हैं (३०६८ कलि = ३४ ईपू) अतः इस ग्रन्थ को ११६८ ई. का बता कर इसे जाली घोषित किया, जो संवत् के अज्ञान के कारण है। पर केवल इसी से पता चलता है कि कालिदास ने ३ महाकाव्य भी लिखे थे। इसे जाली कहने पर कालिदास का ही अस्तित्व नहीं है। इसके विपरीत ग्रीस या रोम में विक्रम संवत् के पूर्व कोई कैलेण्डर नहीं था तथा टालेमी ने राजाओं के शासन काल जोड़ कर वर्ष गणना की है। इसमें हर १०० वर्ष में २-३ वर्ष की भूल होती थी। पर वे लोग बिना किसी कैलेण्डर के तिथि कैसे देते थे यह नहीं बताया।
आजतक यह रहस्य ही है कि सिकन्दर काल के ग्रीक लेखकों को यह कैसे पता चला कि ३२६ वर्ष बाद इस्वी सन् आरम्भ होने वाला है। भारत के गांवों के अशिक्षित लोग भी पञ्चाङ्ग देखना जानते हैं, किन्तु भारतीय विद्या भवन के १२ खण्ड के इतिहास में शक या संवत् शब्दों का प्रयोग भी नहीं हुआ है।
२. शक और संवत्-शक वर्ष गणना का शक जाति से कोई सम्बन्ध नहीं है। कैलेण्डर आरम्भ करने वाले हर भारतीय राजा युधिष्ठिर, शूद्रक, श्रीहर्ष, विक्रमादित्य, शालिवाहन आदि को शक-कर्ता कहा गया है। सभी ज्योतिष लेखक इनको उद्धृत भी करते हैं, पर पुनः अंग्रेज भक्ति में शालिवाहन शक को एकमात्र शक मान कर उसे विदेशी कनिष्क का कहते हैं।
चन्द्रमा मन का स्वामी है, मानसिक रोग चन्द्र की कला के अनुसार होते हैं, पूर्णिमा के समय रोग बढ़ते हैं। इसे रोकने के लिए ११-१२ तिथि सन्धि पर उपवास करते हैं, अर्थात् जिस एकादशी तिथि को सूर्यास्त से पूर्व द्वादशी आरम्भ हो उस दिन। अंग्रेजी में भी पागल को ल्यूनेटिक कहते हैं (ल्यूनर = चन्द्र सम्बन्धित)। अतः हमारे पर्व त्योहार चान्द्र तिथि के अनुसार होते हैं। तिथि गणना को संवत्सर या संक्षेप में संवत् कहते हैं। संवत्सर = सम् + वत् + सरति; अर्थात् जिसके अनुसार समाज चलता है।
तिथि गणना में कठिनाई यह है कि यह क्रमागत दिनों में नहीं होती है। पञ्चमी (५) के बाद ५, ६, या ७ तिथि भी हो सकती है। अतः दिनों की क्रमागत गणना के लिए अन्य कालगणना का प्रयोग होता है, जिसे शक कहते हैं। इसमें सौर वर्ष, मास और दिन गणना होती है, जिससे ग्रह गति आदि की गणना में सुविधा होती है।
विश्व की हर भाषा में कुश १ का चिह्न है। १-१ कर जोड़ने से उसका गट्ठर शक्तिशाली होता है, अतः उसे शक कहते हैं। इन्द्र को भी शक्तिशाली अर्थ में शक्र कहते थे। शक्र का अन्य अर्थ है शत-क्रतु = १०० वर्ष यज्ञ या शासन करने वाला। कुश या स्तम्भ आकार के बड़े वृक्षों को भी शक कहते थे, जैसे उत्तर भारत में साल (शक या सखुआ) तथा दक्षिण भारत में टीक (शकवन = सागवान)। आस्ट्रेलिया में भी स्तम्भ जैसे ३०० प्रकार के युकलिप्टस वृक्ष हैं, अतः उसे शक द्वीप कहते थे। दक्षिण यूरोप और मध्य एशिया कि बिखरी जातियां मिल कर शक्तिशाली हो गयी थी, अतः उनको भी शक कहते थे। कालिदास के ज्योतिर्विदाभरण (२२/१७) में रोम के जुलियस सीजर को भी शक राजा कहा है जिसे विक्रमादित्य ने सीरिया युद्ध में पराजित कर बन्दी बनाया था। इसे छिपाने के लिए रोमन लोगों ने ५ प्रकार की झूठी कहानियां बनायीं। उस परम्परा में आजतक अंग्रेज इतिहास नष्ट करने में लगे हुए हैं।
३. पञ्चाङ्ग-नासा के कैलेण्डर सॉफ्टवेयर से गणना करने पर ५००० वर्ष पुरानी तिथि में ६८ घण्टे की भूल होती है तथा ७००० वर्ष पुरानी गणना में प्रायः ७ दिन की भूल। पर भारत में दीर्घकालिक गणना १२,००० वर्ष के चक्र में होती है। इसी चक्र में ब्रह्मगुप्त और भास्कराचार्य ने बीज-संस्कार (संशोधन) का वर्णन किया है। संशोधन का कारण इन लोगों ने आगम या परम्परा कहा है, जिसका आधार उनको ज्ञात नहीं था। इसका मुख्य कारण है कि १२-१२ हजार वर्ष के अवसर्पिणी (सत्य से कलि युग) तथा उत्सर्पिणी (कलि से सत्य युग) के २ चक्र २४,००० वर्ष के होते हैं। पर अयन चक्र (पृथ्वी अक्ष का लट्टू की तरह गति) २६,००० वर्ष का है। यह ऐतिहासिक युग है। ज्योतिषीय युग इसका ३६० गुणा है जिसमें शनि तक के ग्रहों की पूर्ण परिक्रमा होती है। अतः शनि कक्षा तक क्षेत्र को सूर्य रथ का चक्र कहा गया है (विष्णु पुराण, २/८ आदि)।
गणना की अशुद्धि की जांच के लिये देखते हैं कि उसके अनुसार वार क्या आ रहा है। यदि उसमें १-२ वार का अन्तर है, तो दिन संख्या उसके अनुसार घटाते या बढ़ाते हैं, इसे वार शुद्धि कहते हैं। अधिक शुद्धि के लिए कुल ५ गणना करते हैं-तिथि, वार (क्रमागत दिन अनुसार), नक्षत्र, योग, करण। अतः इस पद्धति को पञ्चाङ्ग कहते हैं। इसके अतिरिक्त ग्रह गति तथा स्थानीय लग्न-मुहूर्त का भी वर्णन भी किया जाता है, अतः उसे कुछ लोगों ने सप्ताङ्ग नाम दिया है।
४. पञ्चाङ्ग गणना-जब सूर्य-चन्द्र पृथ्वी से एक दिशा में होते हैं, उसे अमावास्या ( एक साथ वास) कहते हैं। इस समय चन्द्र का अन्धकार भाग हमारी तरफ होता है। चन्द्र निकट होने के कारण उसकी कोणीय गति सूर्य से अधिक है, अतः वह सूर्य से आगे निकलता है और उसका प्रकाशित भाग बढ़ता है, जिसे शुक्ल पक्ष कहते हैं। जब वह सूर्य की विपरीत दिशा अर्थात् १८० अंश दूर होता है तब पूर्णिमा तिथि होती है। यह १५ दिन से थोड़ा कम है, अतः इसमें १५ तिथि की गणना करते है। अतः हर तिथि में चन्द्र- सूर्य का अन्तर १२ अंश होगा।
तिथि निकालने के लिए चन्द्र-सूर्य अन्तर को १२ से भाग देते हैं, पूर्ण संख्या गत तिथि है, उसके बाद वाली संख्या वर्तमान तिथि होगी। तिथि का आरम्भ किसी समय हो सकता है, पर व्यवहार में स्थानीय सूर्योदय के समय जो तिथि होगी, उसे ही आगामी सूर्योदय तक तिथि मानते हैं। पूर्णिमा के बाद चन्द्र का प्रकाशित भाग कम होने लगता है, और अमावास्या तक पूरा लुप्त हो जाता है। इसे कृष्ण पक्ष कहते हैं। इसकी तिथि गणना के लिए चन्द्र -सूर्य अन्तर १८० अंश से जितना अधिक (बहुल) हुआ उसमें १२ से भाग देते हैं। इसमें अन्तिम अमावास्या को पूर्णिमा से अलग दिखाने के लिए १५ के स्थान पर ३० लिखते हैं।
शुक्ल पक्ष गणना शुद्ध-दिवस की है, जिसे संक्षेप में सुदी कहते हैं, कृष्ण पक्ष के बहुल दिवस को बदी। अतः गणित के अनुसार कृष्ण पक्ष से मास का आरम्भ होता है, और शुक्ल पक्ष से अन्त। कलियुग के ३०४४ वर्ष बाद २६,००० वर्ष के अयन चक्र के कारण ऋतु-चक्र १.५ मास पीछे हो गया था। १ मास का अन्तर = २६०००/१२ = प्रायः २१६७ वर्ष। अतः विक्रमादित्य ने शुक्ल पक्ष के बदले कृष्ण पक्ष से मास आरम्भ किया। किन्तु अधिक मास या वर्ष आरम्भ में परिवर्तन नहीं होने दिया। इस कारण चैत्र मास का प्रथम भाग (कृष्ण पक्ष) वर्ष के अन्त में आता है, तथा द्वितीय भाग में परम्परा अनुसार चैत्र शुक्ल पक्ष से नया वर्ष का आरम्भ होगा। इसकी नकल में ४६ ईपू के जुलियन कैलेण्डर में जनवरी से वर्ष आरम्भ हुआ क्योंकि जूनो देवी आगे तथा पीचे दोनों तरफ देखती थी। शान्ति पाठ में भी कहते हैं-अदितिर्जातम्, अदितिर्जनित्वम्।
कश्यप के समय पुनर्वसु नक्षत्र से वर्ष का अन्त और नये वर्ष का आरम्भ होता था, अतः पुनर्वसु का देवता अदिति कहा गया। जिस मास में सूर्य उत्तरायण गति में विषुव रेखा पर होता है, उस मास से वर्ष का आरम्भ होता है। सरल गणना के लिए सावन वर्ष में ३०-३० दिनों के १२ मास गिनते थे, अर्थात् ३६० दिन। बचे ५ दिनों को पाञ्चरात्र कहते थे। कभी कभी ६ दिन अतिरिक्त होते थे जिनको षडाह कहते थे। अतः वृत्त में ३६० अंश मानते हैं, सूर्य की दैनिक गति प्रायः १ अंश होगी।
चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा २७.३ दिन में करता है, अतः उसके कक्षा पथ (क्रान्ति वृत्त) के ३६० अंश को २७ से भाग दे कर २७ नक्षत्र मानते हैं। चन्द्र कक्षा दक्ष-वृत्त है, नक्षत्र उसकी २७ पुत्रियां हैं। नक्षते = साथ रहता है, चन्द्रमा १ दिन १ नक्षत्र के साथ रहता है। पूर्णिमा के दिन चन्द्र जिस नक्षत्र में रहता है, उसके अनुसार चान्द्र मास का नाम होता है-चित्रा नक्षत्र से चैत्र मास, विशाखा से वैशाख आदि।
अमावास्या से आगामी अमावास्या तक गणित के अनुसार चान्द्र मास होता है। चन्द्र परिक्रमा २७.३ दिन में पूरी होती है, किन्तु तब तक सूर्य भी प्रायः २.२ अंश आगे निकल जाता है, अतः उसके साथ पहुंचने में चन्द्रमा को २९.५ दिन लगते है। १ सौर वर्ष = ३६५.२२ दिन में १२ चान्द्र मास ३५४ या ३५५ दिन में होते हैं। इस कारण ३६० अंश के चक्र में १२ राशि हैं। सौर वर्ष में ११ दिन अधिक होते हैं, अतः वेदाङ्ग ज्योतिष में प्रति अर्ध वर्ष में ११ दिनार्ध (करण) जोड़ते थे। प्रायः ३० या ३१ मास में १ चान्द्र मास अधिक हो जाता है। जिस मास में सूर्य का राशि परिवर्तन (संक्रान्ति) नहीं होती है, उसे अधिक मास कहा जाता है। उसके पूर्व का जो शुद्ध मास होता है, उसी नाम का अधिक मास होगा। विक्रम संवत् में पिछने मास के कृष्ण पक्ष को वर्तमान मास के शुक्ल पक्ष से जोड़ते हैं। अतः इसके अधिक मास में एक मास का कृष्ण पक्ष और आगामी मास का शुक्ल पक्ष होगा।
दिन रात के आधे भाग में कार्य होता है, जिसे करण कहते हैं। अतः तिथि के १/२ भाग को करण कहा गया है। चान्द्र मास की ३० तिथि में ६० करण होते है। इसमें सप्ताह के ७ वार की तरह ७ करण ८ बार आते हैं, जिनको चल करण कहते हैं। इसका सप्तम करण भद्रा (शुभ) या विष्टि (अन्तिम, विष्टा) है। यह छुट्टी जैसा है, जिसमें नया कार्य आरम्भ नहीं करते है। किन्तु भद्रा का अर्थ शुभ है। ८ चक्र में ५६ चल-करण हुए; बचे हुए ४ करण स्थिर करण हैं, जिनका आरम्भ कृष्ण चतुर्दशी के द्वितीय करण से होता है।
तिथि के लिए चन्द्र-सूर्य का अन्तर निकालते हैं। इनका योग कर योग निकालते हैं जिसका चक्र २५ दिन में होता है। इस अवधि में २७ नक्षत्र की तरह २७ योग होते हैं। इनका प्रयोग मुहूर्त आदि के लिए है।
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