श्री नारायणदास -
Mystic Power-जो सम्पूर्ण तत्त्वों के ज्ञाता, समस्त कारणों के भी कारण तथा वेद-वेदाङ्गों के बीज के भी बीज हैं, उन परमेश्वर श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ।
समस्त मङ्गलों के भी मङ्गलकारी बीजस्वरूप उन सनातन परमेश्वर ने मङ्गल के आधारभूत चार वेदों को प्रकट किया।
उनके नाम हैं-ऋक्, यजु, साम और अथर्व ।
उन वेदों को देखकर और उनके अर्थ का विचार करके प्रजापति ने आयुर्वेद का संकलन किया। इस प्रकार पञ्चम वेद का निर्माण करके भगवान् ने उसे सूर्यदेव के हाथ में दे दिया। उससे सूर्यदेव ने एक स्वतन्त्र संहिता बनायी। फिर उन्होंने अपने शिष्यों को वह अपनी 'आयुर्वेदसंहिता' दी और पढ़ायी ।
तत्पश्चात् उन शिष्यों ने भी अनेक संहिताओं का निर्माण किया। उन विद्वानों के नाम और उनके रचे हुए तन्त्रों के नाम, जो रोगनाश के बीजरूप हैं । धन्वन्तरि, दिवोदास, काशिराज, दोनों अश्विनीकुमार, नकुल, सहदेव, सूर्यपुत्र यम, च्यवन, जनक, बुध, जाबाल, जाजलि, पैल, करथ और अगस्त्य - ये सोलह विद्वान् वेद-वेदाङ्गोंके ज्ञाता तथा रोगों के नाशक (वैद्य) हैं। सबसे पहले भगवान् धन्वन्तरि ने "चिकित्सा तत्त्वविज्ञान" नामक एक मनोहर तन्त्र का निर्माण किया। फिर दिवोदास ने चिकित्सा दर्पण' नामक ग्रन्थ बनाया। काशिराज ने दिव्य चिकित्सा कौमुदी"का प्रणयन किया।
दोनों अश्विनीकुमारों ने चिकित्सा सारतन्त्र' की रचना की, नकुल ने वैद्यकसर्वस्व' नामक तन्त्र बनाया। सहदेव ने व्याधिसिन्धुविमर्दन' नामक ग्रन्थ तैयार किया। यमराज ने ज्ञानार्णव' नामक महातन्त्र की रचना की। भगवान् च्यवन मुनि ने 'जीवदान' नामक ग्रन्थ बनाया। योगी जनक ने 'वैद्यसंदेहभञ्जन' नामक ग्रन्थ लिखा । चन्द्रकुमार बुध ने सर्वसार,' जाबाल ने तन्त्रसार' और जाजलि मुनि ने वेदाङ्ग सार' नामक तन्त्र की रचना की।
पैल ने निदान तन्त्र', करथ ने उत्तम सर्वधर तन्त्र' तथा अगस्त्यजी ने द्वैधनिर्णय' तन्त्र का निर्माण किया। ये सोलह तन्त्र चिकित्सा-शास्त्र के बीज हैं, रोग-नाश के कारण हैं तथा शरीर में बल का आधान करने वाले हैं। आयुर्वेद के समुद्र को ज्ञानरूपी मथानी से मथकर विद्वानों ने उससे नवनीत-स्वरूप ये तन्त्र-ग्रन्थ प्रकट किये हैं।इन सबको क्रमशः देखकर दिव्यभास्कर संहिता का तथा सर्वबीजस्वरूप आयुर्वेद का पूर्णतया ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । आयुर्वेद के अनुसार रोगों का परिज्ञान करके वेदना को रोक देना इतना ही वैद्य का वैद्यत्व है। वैद्य आयु का स्वामी नहीं है - वह उसे घटा अथवा बढ़ा नहीं सकता। चिकित्सक आयुर्वेद का ज्ञाता, चिकित्सा की क्रिया को यथार्थरूप से जानने वाला धर्मनिष्ठ और दयालु होता है; इसलिये उसे 'वैद्य' कहा गया है।
दारुण ज्वर( बुखार) समस्त रोगों का जनक है। उसे रोकना कठिन होता है। शास्त्रो ने दारुण ज्वार को शिव का भक्त और योगी बताया है। इस ज्वर का स्वभाव निष्ठुर होता है और वह भयंकर ज्वर काल, अन्तक और यम के समान विनाशकारी होता है। मन्दाग्नि इस ज्वर का जनक है। अर्थात पाचन शक्ति कमजोर होना । जिनकी पाचन शक्ति कमजोर है, चेत जाओ । काल कभी भी तुम्हे ग्रस सकता है । हालही में महामारी में बीमारी फैलने के सबसे बड़ा कारण यही रहा । पाचन शक्ति सबकी कमजोर थी , वे बीमारी का सामना ही नही कर पाएं ।
मन्दाग्नि के जनक तीन हैं -
वात, पित्त और कफ ।
ये ही प्राणियों को दुःख देने वाले हैं।
वातज, पित्तज और कफज- ये ज्वर के तीन भेद हैं।
एक चौथा ज्वर भी होता है, जिसे त्रिदोषज भी कहते हैं।
पाण्डु, कामल, कुष्ठ, शोथ, प्लीहा, शूलक, ज्वर, अतिसार, संग्रहणी, खाँसी, व्रण (फोड़ा), हलीमक, मूत्रकृच्छ्र, रक्तविकार या रक्तदोष से उत्पन्न होने वाला गुल्म, विषमेह, कुब्ज, गोद, गलगंड (घेघा), भ्रमरी, सन्निपात, विसूचिका (हैजा ) और दारुणी आदि अनेक रोग हैं।
इन्हीं के भेद और प्रभेदों को लेकर चौंसठ रोग माने गये हैं। ये सब रोग उस मनुष्य के पास नहीं जाते, जो इनके निवारण का उपाय जानता है और संयम से रहता है। उसे देखकर वे रोग उसी तरह भागते हैं, जैसे गरुड़ को देखकर साँप ।
नेत्रों को जल से धोना, प्रतिदिन व्यायाम करना, पैरों के तलवों में तेल मलवाना, दोनों कानों में तेल डालना और मस्तक पर भी तेल रखना यह प्रयोग जरा और व्याधि का नाश करने वाला है। जो वसन्त- ऋतु में भ्रमण, स्वल्पमात्रा में अग्निसेवन तथा नयी अवस्थावाली भार्या का यथासमय उपभोग करता है, उसके पास जरा-अवस्था नहीं जाती ।
मसाला लल्लसिन्धुवार (सिन्दुवार या निर्गुडी), अनाहार (उपवास), अपानक (पानी न पीना), घृतमिश्रित रोचना-चूर्ण, घी मिलाया हुआ सूखा शक्कर, काली मिर्च, पिप्पल, सूखा अदरक, जीवक (अष्टवर्गान्तर्गत औषधविशेष) तथा मधु- ये द्रव्य तत्काल कफ को दूर करनेवाले तथा बल और पुष्टि देनेवाले हैं। यदि कफ ज़्यादा बन गया तब यह उपचार शास्त्रो ने बताएं है ।
वात
भोजन के बाद तुरंत पैदल यात्रा करना, दौड़ना, आग तापना, सदा घूमना और ज़्यादा मैथुन करना, वृद्धा स्त्री के साथ सहवास करना, मन में निरन्तर संताप रहना, अत्यन्त रूखा खाना, उपवास करना, किसी के साथ जूझना, कलह करना, कटु वचन बोलना, भय और शोक से अभिभूत होना-ये सब केवल वायु की उत्पत्ति के कारण हैं। आज्ञा नामक चक्र में वायु की उत्पत्ति होती है।
वायु की ओषधि
केले का पका हुआ फल, बिजौरा नीबू के फल के साथ चीनी का शर्बत, नारियल का जल, तुरंत का तैयार किया हुआ तक्र, उत्तम पिट्ठी (पूआ, कचौरी आदि), भैंस का केवल मीठा दही या उसमें शक्कर मिला हो, तुरंतका बासी अन्न, सौवीर (जौकी काँजी), ठंडा पानी, पकाया हुआ तेलविशेष अथवा केवल तिल का तेल, नारियल, ताड़, खजूर, आँवले का बना हुआ उष्ण द्रव पदार्थ, ठंडे और गरम जल का स्नान, सुस्निग्ध चन्दन का द्रव, चिकने कमलपत्र की शय्या और स्निग्ध व्यञ्जन ये सब वस्तुएँ तत्काल ही वायुदोष का नाश करने वाली हैं।
मनुष्यों में तीन प्रकार के वायु-दोष होते हैं।
शारीरिक
क्लेशजनित,
मानसिक
संतापजनित और कामजनित ।
उन रोगोंके नाशके लिये श्रेष्ठ विद्वानों ने जो नाना प्रकारके उनमें रोगनिवारण के लिये रसायन आदि परम दुर्लभ उपाय बताये गये हैं। विद्वानों द्वारा रचे गये उन सब तन्त्रों का यथावत् वर्णन कोई एक वर्ष में भी नहीं कर सकता।
आप रोग और उसका कारण जान चुके है । आशा है आप अपने आप को स्वस्थ रखेंगे ।
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