ब्रह्मा और शिवजी द्वारा भगवती स्तुति

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  • धर्म-पथ
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  • 31 October 2024
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डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबंध सम्पादक)- Mystic Power - ब्रह्माजी बोले- हे नारद! इस प्रकार देवदेव। जनार्दन भगवान् विष्णु के स्तुति कर लेने के उपरान्त भगवान् शिवशंकर विनीत भाव से देवी के सम्मुख स्थित होकर कहने लगे ॥ १ ॥ शिवजी बोले- हे देवि! यदि भगवान् विष्णु आपके प्रभाव से प्रादुर्भूत हुए तथा उनके बाद ब्रह्माजी भी आपसे उत्पन्न हुए तो क्या मुझ तमोगुणी की आपसे उत्पत्ति नहीं हुई है ? हे शिवे ! आप तो समग्र लोक की रचनायें चतुर हैं ॥ २ ॥ पृथ्वी, जल, वायु, आकाश और अग्नि आप ही हैं। हे माता ! आप ही इन्द्रियरूपिणी तथा आप ही बुद्धि, मन और अहंकारस्वरूपा हैं ॥ ३ ॥ ब्रह्मा, विष्णु और शंकर ने अखिल जगत्‌ की रचना की है - ऐसा जो लोग अन्यथा बोलते हैं, वे कुछ भी नहीं जानते। आपने ही सदा से इन तीनों की सृष्टि की है, जो आपकी ही प्रेरणा से चराचर जगत्का सृजन पालन-संहार करते हैं ॥ ४ ॥ यदि पृथ्वी, वायु, आकाश, अग्नि, जल आदि महाभूतों के गुणों तथा विषयों से ही जगत्का निर्माण सम्भव हो तो भी हे अम्ब! आपकी चिन्मयी कला के बिना वह कैसे व्यक्त हो सकता है ? ॥ ५ ॥ हे अम्ब! आपने ब्रह्मा, विष्णु और महेश द्वारा निर्मित इस सम्पूर्ण चराचर जगत्‌ को व्याप्त कर रखा है। आप अनेक प्रकार के वेष धारण करके कुतूहलपूर्ण क्रीड़ाएँ।। करती हुई यथेच्छ विहार करती हैं और पुनः शान्त भी हो जाती हैं ॥ ६ ॥   भगवतीकी स्तुति करना   हे अम्बिके! जब मैं (शिव), विष्णु और ब्रह्मा | सृष्टिकाल में इस ब्रह्माण्ड की रचना करने की इच्छा करते हैं, तब निश्चित ही आपके चरणकमलों का रजकण प्राप्त करके ही हमलोग अपने-अपने कार्य करने में समर्थ होते हैं ॥ ७ ॥ हे अम्बिके! यदि आप सदा दयालु चित्तवाली न होतीं तो मैं तमोगुणयुक्त, ब्रह्मा रजोगुणसम्पन्न और विष्णु सत्त्वगुणयुक्त कैसे बनते ? ।। ८ ।। हे अम्बिके! यदि आपकी वैविध्यपूर्ण बुद्धि न होती तो यह संसार इतना विविधतापूर्ण कैसे होता, जिसमें मन्त्री, राजा, सेवक, धनी और निर्धन भरे पड़े हैं ॥ ९ ॥ इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि, स्थिति और संहार करने में आपके तीनों गुण (सत्-रज-तम) ही सर्वथा समर्थ हैं; फिर भी आपने हम ब्रह्मा, विष्णु और महेश को क्रमशः इन कार्यों को सम्पन्न करने के लिये तीनों लोकों के कारण रूप में उत्पन्न किया है ॥ १० ॥ विमान में बैठा हुआ मैं, ब्रह्मा तथा विष्णु-हम लोग इन भुवनों से पूर्णरूपेण परिचित हो गये हैं। हे भवानि मार्ग में स्थित इन नवीन भुवनों को किसने बनाया ? इसे आप बतायें ॥। ११ ॥हे जगदम्बिके! आप अपनी कला जगत्को रचना | था पालन करती हैं और जब चाहती हैं तब उसका संहार कर देती हैं। आप सदा अपने पति परमपुरुष को रमण रहती है। हे शिवे आपको इस लीला को हम नहीं  जान सकते ।। १२ ।।   हे जननि । नारीभावको प्राप्त हमलोगों को सदा अपने की सेवा करनेका अवसर दें क्योंकि कालान्तर पुरुः पुरुत्व प्राप्त होनेपर आपके चरणकमलोंसे पृथक रहकर | हम लोगों को वह प्रत्यक्ष सुख कभी नहीं प्राप्त होगा ॥ १३ ॥ हे अम्ब! हे शिवे। आपके चरणकमलों को त्यागकर परदेह प्राप्त करके तीनों लोकों का स्वामित्व प्राप्त करके भी समस्त लोकों में कहीं भी रहने की मेरी रुचि नहीं मुझे त्रिभुवन का स्वामित्व ही क्यों न मिल जाय ।। १४ ।। हे सुदति। आपके सांनिध्य में स्त्री भाव को प्राप्त कर लेने पर अब पुरुषभाव में मेरी थोड़ी भी रुचि नहीं है। जिसे पकर आपके चरणारविन्द के दर्शन का सौभाग्य न मिले, वह पुरुषता कैसे सुख प्रदान कर सकती है ? ।। १५ ।। हे अम्बिके। स्त्रीका रूप पाकर मैं भवबन्धनसे मुक्त करनेवाले आपके चरणकमलोंसे परिचित हो गया हूँ। आपकी कृपा से तीनों लोकों में मेरा सुयश स्थिर रहे । १६ ।। इस संसार में ऐसा कौन प्राणी होगा, जो आपके मनिध्य का सेवन छोड़कर निष्कण्टक राज्य करना चाहेगा? क्योंकि जिसे आपके चरणकमल का सांनिध्य प्राप्त नहीं होता, उसके लिये क्षणांश भी युग के समान प्रतीत होता है ॥ १७ ॥ है जननि जो शुद्ध चित्तवाले मुनि आपके चरण- कमल की सेवा त्यागकर केवल तपश्चर्या में लगे रहते हैं, वे निश्चितरूप से विधाता के द्वारा ठगे गये हैं और अपनी हानि को ही लाभ समझते हैं ॥ १८ ॥ हे अजे! आपके पदारविन्द के पराग की सेवाये जैसी मुक्ति इस संसार सागर से प्राप्त होती है, वैसी मुक्ति तपस्या, इन्द्रियदमन, समाधि तथा विभिन्न वेदविहित पज्ञों से भी नहीं होती ।। १९ ।। हे देवि! यदि आप मेरे प्रति दयालु है तो मुझपर दया।कीजिये और अपना निर्मल, अद्भुत, सर्वश्रेष्ठ एवं विशद नवार्ण मन्त्र (ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे) मुझे प्रदान कीजिये, जिससे उसका निरन्तर जप करके मैं सर्वदाके लिये सुखी हो जाऊँ ॥ २० ॥ पूर्वजन्म में मैंने नवार्ण मन्त्रकी दीक्षा पायी थी; परंतु वह मुझे अब स्मरण नहीं रह गया है। इसलिये हे तारके। हे जननि। आज पुनः वह मन्त्र मुझे प्रदान कीजिये और भवसागर से मेरा उद्धार कीजिये, उद्धार कीजिये ॥ २१ ॥ ब्रह्माजी बोले- [हे नारद।] अद्भुत तेजस्वी शिवजीके ऐसा कहनेपर जगदम्बा ने स्पष्ट शब्दों में नवाक्षर मन्त्र का उच्चारण किया। उस मन्त्र को ग्रहण करके शिवजी बहुत प्रसन्न हो गये और भगवती के चरणों में प्रणाम करके वहीं पर स्थित हो गये ।। २२-२३ ।। उस समय सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेमें समर्थ, मुक्तिप्रदायक तथा शुभ उच्चारणसे सम्पन्न उस बीजयुक्त नवाक्षर मन्त्रका जप करते हुए शंकरजी वहाँ विराजमान रहे ।। २४ ।। संसारका कल्याण करने वाले शिवजी को इस प्रकार बैठा देखकर मैं उन महामाया के चरणों के समीप बैठ गया और उनसे कहने लगा ॥ २५ ॥ हे जननि । वेद सभी लोगों को धारण करने वाली तथा सनातनी आप भगवती की कल्पना करने में अकुशल हैं- ऐसी बात नहीं है; क्योंकि साधारण कार्यों में उन्होंने आप भगवती को चर्चा नहीं की है। यदि वे आपको न जानते तो सभी यज्ञों तथा हवन कार्यों में आपको ही स्वाहादेवी के रूप में प्रतिष्ठित कैसे करते ? इसलिये आप तीनों लोकों में सर्वजा के रूपमें विख्यात हुई ।। २६ मैं स्रष्टा हूँ, मैं अत्यन्त अद्भुत सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण करता हूँ, इस चराचर त्रिभुवन में मुझसे बढ़कर समर्थ दूसरा पुरुष कौन है, मैं निस्सन्देह धन्य हूँ, मैं लोकोत्तर ब्रह्मा हूँ- इस मिथ्या अहंकार के कारण मैं सर्वदा इस विस्तृत संसारसागर में निमग्न रहता हूँ; तथापि आज आपके चरण कमलों की पराग प्राप्ति के गर्व से मैं वस्तुतः धन्य हो गया हूँ और आपको कृपा से ही आज मैं यथातथ्य के ज्ञान  में निपुण हो गया हूँ। सांसारिक भय का नाश करने में दक्ष, मुक्तिदायिनी आप परमेश्वरीसे मैं यही प्रार्थना करता हूँ कि मोहनिर्मित महादुःखदायी भवबन्धन से मुक्त करके आप मुझे अपनी भक्ति से समन्वित कीजिये ।। २७-२८ । आपसे ही निर्मित अद्भुत कमल से में आविर्भूत हुआ हूँ और मैं आपका आज्ञाकारी सेवक हैं, अतः मैं कैसे मुक्त हो सकूँगा? हे शिवे इस भवसागर में पड़े हुए मुझ मोहमग्नकी रक्षा कीजिये ॥ २९ ॥ इस संसारमें जो लोग आपके सनातन पवित्र चरित्र को नहीं जानते, वे लोग मुझे ही ईश्वर कहते हैं और जो यज्ञकर्ता स्वर्ग की इच्छा से [ इन्द्र आदि देवताओंका ] यजन करते हैं, वे भी सर्वथा आपके प्रभाव को नहीं जानते ॥ ३० ॥ हे आदिमाये। सर्वप्रथम सृष्टि को चार भागों [ अण्डज, स्वेदन, उद्भिज्ज और पिण्डज जरायुज] में विभक्त करनेके लिये ही आपने मुझे ब्रह्मा के पद पर बैठाया, परंतु [ मैंने यह समझ लिया कि] मैं ही सब कुछ जानता हूँ, दूसरा कौन जान सकता है मेरे इस अहंकारजन्य अपराधको आप क्षमा कीजिये ॥ ३१ ॥ जो लोग अष्टांगयोगका आश्रय लेते हैं और समाधि लगाकर व्यर्थ श्रम करते हैं, वे अज्ञानी हैं। हे माता। वे यह नहीं जानते कि किसी भी बहाने आपके नामोच्चारणमात्रसे ही उन्हें मुक्ति प्राप्त हो सकती है ॥ ३२ ॥ कुछ लोग (सांख्यवादी) तो आपके नामका आश्रय छोड़कर विमोहित हो तत्त्वोंकी संख्या के फेरमें पड़ जाते हैं, क्या वे इस भवसागरमें मूर्ख नहीं हैं? हे भवानि । संसारसे मुक्ति प्रदान करनेवाली तो आप ही हैं ॥ ३३ ॥ हे अजे। जिन विष्णु शिव आदिने परम तत्त्वज्ञानका अनुभव कर लिया है, वे क्या आधे निमेषमात्रके लिये। भी आपके पवित्र चरित्र तथा शिवा, अम्बिका, शक्ति, ईश्वरी आदि नामोंको विस्मृत करते हैं ? ॥ ३४ ॥ क्या आप विश्वकी रचना करनेमें समर्थ नहीं हैं ? हे आदिसमें आपके दृष्टिनिक्षेपमात्र से ही यह सम्पूर्ण विश्व चार प्रकारके (अंडर वेदर, उनि फिटर- जरायुज) जीवोंके रूपमें शोध हो विभक्त हुआ है। मुझ जैसे ब्रह्माकी सृष्टि तो आप अपने मनोविनोद के लिये करके पुनः स्वतन्त्र भावसे जो चाहती है, वह[महाप्रलयकी स्थितिमें] यदि महासागरमें आप मधु-कैटभसे विष्णुको रक्षा न करती तो सृष्टि पालक कैसे बन पाते और यदि आप सबके संहारक शिवका संहार न करता तो वे मेरे भूमध्य से प्रकट होते ? ॥ ३६ ॥ आपका जन्म कहाँ हुआ इसे न तो किसी ने देखा और न सुना और कोई यह भी नहीं जान पाया कि आपकी उत्पत्ति कहाँ हुई? हे भवानि ! एकमात्र आप ही आद्या शक्ति हैं, अतएव वेदोंने इसी रूपमें आपका वर्णन किया है ॥ ३७ ॥ हे अम्ब! आपकी ही शक्तिसे प्रेरित होकर मैं सृष्टि करनेमें, विष्णु पालन करनेमें तथा शिव संहार करनेमें समर्थ होते हैं। आपकी शक्तिसे विलग रहकर अब हमलोग कुछ भी करनेमें सक्षम नहीं हैं ॥ ३८ ॥ जिस प्रकार मैं (ब्रह्मा), विष्णु और शिव उत्पन्न हुए हैं, उसी प्रकार क्या अन्य प्राणी उत्पन्न नहीं हुए, अथवा विद्यमान नहीं हैं या उत्पन्न नहीं होंगे? किंतु अल्प बुद्धिवाले प्राणियोंके लिये विवादास्पद तथा अत्यना विचित्र आपके इस लीलाविनोदसे कौन भ्रमित नहीं हो जाते ? ।। ३९ ।। वे आदिदेव ईश्वर अकर्ता, गुणोंसे स्फुट होनेवाले, निष्काम, उपाधिरहित तथा निर्गुण हैं, फिर भी वे आपके विस्तृत लीला विनोदको भलीभाँति देखते रहते है- जानीजन ऐसा ही कहते हैं ।॥ ४० ॥ मूर्त और अमूर्त भेदोंसे युक्त इस संसारमें आपसे पूर्व वे ही परमपुरुष थे; ज्ञान-तत्त्वपर सम्यक् प्रकारसे विचार करनेपर यह सर्वथा सिद्ध होता है कि अन्य तीसरा कोई भी नहीं है [यह सिद्धान्त है कि] वेद-वाक्यको कभी मिया नहीं समझना चाहिये। वेद ब्राको अद्वितीय और एक बताते हैं; तो फिर आप क्या हैं और वह ब्रह्म का है? यह विरोध मेरे हृदय महान् शंका उत्पन्न है। आप मेरे इस सन्देहका निवारण करें ।। ४२-४३ ॥ इस प्रकार द्वैत-अद्वैतके इस विचारमें डूबा हुआ मेरा क्षुद्र मन निश्चितरूपसे शंकारहित नहीं हो पा रहा अब आप ही स्वयं अपने मुखसे मेरी इस शंकाका निवारण करनेकी कृपा करें; क्योंकि [ अनेक जन्मोंके ]पुण्ययोगसे ही आपके चरणोंका यह सांनिध्य मुझे प्राप्त हुआ है ।। ४५ ।। आप पुरुष हैं अथवा स्त्री- यह मुझे विस्तारपूर्वक बतायें, जिससे मैं आप परम शक्तिको जानकर भवसागरसे मुक्त हो जाऊँ ॥ ४६ ॥ ।। श्रीमद्देवीभागवतमहापुराणसंहिता के 'हरब्रह्मकृतस्तुतिवर्णन' नामक पाँचवाँ अध्याय से ॥ ५ ॥



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