डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबंध सम्पादक)-
ब्रह्मदण्ड की चर्चा श्रीमद्वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड 56वें सर्ग में आयी है कि विश्वामित्र के आग्नेय पाशुपत आदि अस्त्रों यहां तक कि ब्रह्मास्त्र जैसे प्रचण्ड अस्त्र को भी विध्वस्त करने के लिए ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने अपने हाथ में ” ब्रह्मदण्ड ” उठाया–
ब्रह्मदण्डं समुद्यम्य कालदण्डमिवापरम् ।
वशिष्ठो भगवान् क्रोधादिदं वचनमब्रवीत् ।। 56/1,
और विश्वामित्र जी के सभी अस्त्रों को अपने ब्रह्मदण्ड से ग्रस लिया–
“वशिष्ठो ग्रस्ते सर्वं ब्रह्मदण्डेन राघव”..–56/16,
भागवत में भी ब्रह्मदण्ड की चर्चा है कि महाराज अम्बरीष पर महर्षि दुर्वासा से प्रयुक्त ब्रह्मदण्ड अपना प्रभाव न दिखा सका–
“न प्राभूद्यत्र निर्मुक्तो ब्रह्मदण्डो दुरत्ययः।।” –9/4/14,
किन्तु यह ब्रह्मदण्ड कृत्या रूप है ; क्योंकि आगे इसे ही कालाग्नि के समान भयंकर ” कृत्या ” स्पष्ट शब्दों में कहा गया है–
“तया स निर्ममे तस्मै कृत्यां कालानलोपमाम् “..–9/4/46,
किन्तु जिज्ञास्य विषय है वह ब्रह्मदण्ड– जिसे हाथ में उठाकर महर्षि वशिष्ठ ने विश्वामित्र जी के सम्पूर्ण अस्त्रों को नष्ट कर दिया और जिसका सम्बन्ध ब्रह्मतेज रूपी बल के साथ है ।
इसका स्पष्टीकरण स्वयं महर्षि विश्वामित्र कर रहे हैं कि क्षत्रिय के बल को धिक्कार है , ब्रह्मतेजरूपी बल ही बल है क्योंकि मेरे सम्पूर्ण अस्त्र मात्र एक ब्रह्मदण्ड से ही नष्ट हो गये–
“धिग् बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजो बलं बलम् ।
एकेन ब्रह्मदण्डेन सर्वास्त्राणि हतानि मे ” ..
– 56/23,
और उस ब्रह्मतेज रूपी बल की प्राप्ति के लिए वे ब्राह्मणत्व की प्राप्ति हेतु तप करने चले गये । अर्थात् ब्राह्मण और ब्रह्मदण्ड का इस तथ्य से गहरा सम्बन्ध निश्चित हुआ ।
ब्रह्मदण्ड क्या है ?–
ब्रह्मगायत्री के वे साधक जिन्होने विशेष साधनामर्मज्ञों से गायत्री जप की विधि प्राप्त की होगी या ऐसे साधकों से सम्पर्क हुआ होगा । वे ब्रह्मदण्ड से सुपरिचित अवश्य होंगे ।
एक साधक की गायत्री साधना इसलिए पूर्ण न हुई ;क्योंकि वे ब्रह्मदण्ड के विना जप में संलग्न थे । यह बात उन्होने स्वयं मुझे बतायी और ब्रह्मदण्ड भी बनाकर दिये । जिसे आप चित्र में शालग्राम भगवान् के समक्ष देख सकते हैं ।
यह कुशोत्पाटिनी अमास्या को विना लोहा आदि की सहायता से केवल हाथ द्वारा उखाड़े गये कुशों से बनाया जाता है । इसमें कुशों का मूलभाग नीचे की ओर होता है । और वायें हाथ में गायत्री जप के समय इसे रखना अनिवार्य है ।
ब्रह्मदण्ड को इस प्रकार पकड़ते हैं कि उसका अग्रिम भाग ऊपर उठा हो जैसे युद्ध के समय योद्धा के हाथ में उठा हुआ अस्त्र ।
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