चन्द्र ग्रहण एवं सूर्य ग्रहण मीमांसा...

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  • ज्योतिष विज्ञान
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  • 31 October 2024
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श्री शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ )- Mystic Power  -पृथ्वी की परिक्रमा करता हुआ चन्द्रमा जब पृथ्वी के सूर्य की तरफ से ठीक दूसरी तरफ होता है, अर्थात् मध्य में पृथ्वी होती है, एक तरफ सूर्य होता है, और एक तरफ चन्द्रमा होता है, तब पृथ्वी से सूर्य की किरणों से प्रकाशित हो रहे चन्द्रमा का पूर्ण भाग दिखाई देता है। पृथ्वी वासियों के लिए पूर्ण चाँद दिखने की यह पूर्णिमा तिथि होती है। इस समय यह चन्द्र पृथ्वी से जिस तरफ होता है, वह सूर्य उसके ठीक दूसरी दिशा में होता है। इसलिए पूर्णिमा को पश्चिम में सूर्य डूबने के साथ पूरब में पूर्ण चन्द्रोदय होता है। इसी तथ्य को श्रुति ने कहा कि पहले वो यद्यपि दूर उदित हुआ-सा दिखता है, किन्तु फिर वहाँ से वह पृथ्वी की परिक्रमा में तेजी से चलता हुआ लगभग पन्द्रहवें दिन सूर्य की ही दिशा में आ जाता है। अर्थात् चन्द्रमा पृथ्वी और सूर्य के बीच में सूर्य के समीप पहुँच जाता है। तब छोटा चन्द्रमा पूरी तरह फैली हुई सूर्य की किरणों में ही समा जाता है। इसे ही श्रुति ने कहा कि इस अमावस्या को वह सूर्य के किरणात्मक मुख में ही पड़ जाता है। यहाँ तक कि उसकी छाया भी पृथ्वी पर नहीं पड़ती और जब छाया पड़ती है, तो वही सूर्य ग्रहण होता है। इसलिए यह निश्चित है कि सूर्य ग्रहण हमेशा अमावस्या को ही होगा। इसके विपरीत पूर्णिमा को जब चन्द्र और सूर्य के बीच में पृथ्वी होती है, तब पृथ्वी की छाया चन्द्रमा पर पड़ने से चन्द्र ग्रहण होता है। और इसीलिए यह भी सुनिश्चित है कि, चन्द्रग्रहण हमेशा पूर्णिमा को ही होगा। https://www.mycloudparticles.com/ इस तथ्य को इन श्रुतियों में और अधिक स्पष्ट किया गया है—    "चन्द्रमा वा अमावास्यायामादित्यमनुप्रविशति ।"(ऐतरीय ब्रा.८/२८)   निश्चय ही चन्द्रमा अमावस्या के दिन आदित्य में अनुप्रवेश करता है। अनुप्रवेश का अर्थ है अनुकूल प्रवेश करता है, अर्थात् चन्द्रमा पृथ्वी और सूर्य के बीच में, ठीक सीध में आ जाता है। मीमांसा- इसलिए सूर्य का जितना भाग चन्द्रमा के द्वारा ढक जाने के कारण उसका प्रकाश जितने अंश में पृथ्वी तक नहीं पहुँचता अमावस्या को उतने अंश में पृथ्वीवासियों के लिए सूर्य ग्रहण होता है।    "अमावस्यायां सः चन्द्रमाः अस्य सूर्यस्य व्यात्तमापद्यते । सूर्यः तं चन्द्रमसं ग्रसित्वा उदेति । स चन्द्रमाः न पुरस्तान्न न पश्चाद्ददृशे । "(शतपथ ब्रा. १/६/४/१-१९।)   अमावस्या में वह चन्द्रमा इस सूर्य के फैले हुए मुख में पड़ जाता है।   सूर्य उस चन्द्रमा को निगल कर उदित होता है। वह चन्द्रमा न सामने से न पीछे से ही दिखाई देता है।   सूर्य चन्द्रमा से हजारों गुना बड़ा है और उस विशाल जाज्वल्यमान सूर्य से सब तरफ अनन्त किरणें निकल रही हैं। ऐसी स्थिति में सूर्य की अपेक्षा अत्यन्त छोटा चन्द्रमा यद्यपि अमावस्या को पृथ्वी और सूर्य के मध्य में स्थित होता है, तो भी विशाल सूर्य से आती हुई किरणों से चन्द्रमा पृथ्वी से दूरी के दृष्टिगत सूर्य की किरणों में पूर्ण रूप से गायब हो जाता है। उसकी छाया तक पृथ्वी पर नहीं आती। इसी तथ्य को श्रुति कह रही है कि, सूर्य चन्द्रमा को निगल कर उदित होता है, और किसी भी तरफ से दिखाई नहीं देता। यद्यपि पृथ्वी से जब चन्द्रमा की दूरी कम होती है, तब • अमावस्या को पृथ्वी के जिस भूभाग में सूर्य की किरणें चन्द्रमा के अवरोध के कारण नहीं पहुँच पाती, पृथ्वी के उतने भूभाग में उतने ही अंश में सूर्य ग्रहण होता है।   सूर्य के प्रकाश से ही चन्द्रमा का प्रकाश वेदों के अनुसार सूर्य के प्रकाश से ही चन्द्रमा प्रकाशित होता है, उसका स्वयं का कोई प्रकाश नहीं है। यह तथ्य निम्न वेद मंत्र में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है...    "सुषुम्णः सूर्यरश्मिश्चन्द्रमाः । (यजुर्वेद १८/४०/)   सुन्दर सत्कर्म के सम्पादक इस चन्द्रमा की रश्मियाँ-किरणें सूर्य की ही रश्मियाँ है। चन्द्रमा सूर्य के प्रकाश से ही प्रकाशित होता है। इस मंत्र की व्याख्या शतपथ ब्राह्मण में इस प्रकार है ... सुषुम्णः इति । सुयज्ञियः इत्येतत् । सूर्यरश्मिः इति । सूर्यस्यैव हि चन्द्रमसो रश्मयः ।(शतपथ ब्रा. ९/४/१/९१)   'सुषुम्ण:' का अर्थ है सुन्दर सत्कर्म करने वाला। 'सूर्यरश्मिः इति' अर्थात् 'सूर्यरश्मिश्चन्द्रमा:' इस शब्द का अर्थ है कि सूर्य की ही रश्मियाँ चन्द्रमा की रश्मियाँ हैं। इसका अर्थ हुआ कि सूर्य की किरणों से ही चन्द्रमा प्रकाशित होता है, और सूर्य की किरणें ही चन्द्रमा से प्रत्यावर्तित होकर हमें दिखाई देती हैं। चन्द्रमा में स्वयं का कोई प्रकाश नहीं है।   श्रुतियों में यह तथ्य भी स्पष्ट किया गया है कि चन्द्रमा में जो काले धब्बे दिखाई पड़ते हैं, वे पृथ्वी से सूर्य की आकर्षण शक्ति के कारण चन्द्रमा के उखड़कर अलग होने में हुए गड्ढे ही काले धब्बों के रूप में दिखाई पड़ते हैं।   "एतद्वा इयम् भूमिः अमुष्यां दिवि देवयजनमदधात् यदेतच्चन्द्रमसि कृष्णमिव।''(ऐतरेय ब्रा. ४/२७ ।)   निश्चय ही यह भूमि का ही त्रुटितांश है, जो इस द्युलोक में सूर्य देव ने सत्कर्म की स्थापना के लिए स्थापित किया, वह ही यह चन्द्रमा में कृष्णत्व है।   "स यदस्यै पृथिव्या अनामृतं देवयजनमासीत् तच्चन्द्रमसि न्यदधत तदेतच्चन्द्रमसि कृष्णम्।"(शतपथ ब्रा. १/२/५/१८/)   वह जो इस पृथ्वी के लिए पृथ्वी का अनामृत - खण्डित किया गया रूप देव यजन सूर्यदेव का कर्म था, वह ही यह चन्द्रमा में कालेपन के रूप में स्थित है।   “यदस्याः पृथिव्याः यज्ञीयमासीत्तदमुष्यां दिवि अदधात् तदश्चन्द्रमसि कृष्णत्वत्म्।"(तैतिरीय ब्रा. १/१/३/३ |)   जो इस पृथ्वी का यज्ञीय भाग था, अर्थात् पृथ्वी से अलग किया भाग था, वह ही इस द्युलोक में स्थापित किया गया, वह यह पृथ्वी से अलग किये जाने का प्रतीक रूप चन्द्रमा में कृष्णत्व है, वह इस पृथ्वी का टूटा हुआ भाग ही चन्द्रमा में कालेपन के रूप में दिखता है।   "यद्दश्चन्द्रमसि कृष्णं पृथिव्या हृदयं श्रितम् ।"(मंत्र ब्रा. १/५/१३/)   यह जो चन्द्रमा में कृष्णत्व है, वह पृथ्वी का हृदय है।  यहाँ उस मूल आख्यायिका के ही तथ्य को दर्शाते हुए यह स्पष्ट किया गया कि सूर्यदेव ने पृथ्वी पर जीवन एवं अन्नरूप सत्कर्म के लिए जो पृथ्वी से चन्द्रमा को अलग कर स्थापित किया। वह उस समय, पृथ्वी से चन्द्रमा के उखड़ने में जो गड्ढे हुए थे, वे पृथ्वी के चिह्न ही चन्द्रमा में काले धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं। हृदय इसलिए क्योंकि यह टूटा हुआ भाग सदैव पृथ्वी की ओर ही रहता है। पृथ्वी की परिक्रमा करता हुआ चन्द्रमा जैसे-जैसे आगे बढ़ता है वह त्रुटितांश वैसे-वैसे पृथ्वी की तरफ उतना ही घुमता रहता है जिससे वह भाग सदैव पृथ्वी की ओर बना रहे।



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