चित्त की प्रधानता

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  • मिस्टिक ज्ञान
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  • 31 October 2024
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श्री पेमा तेनजिन- Mystic Power - तिब्बत में बौद्धधर्म के अभ्यास का मुख्य केन्द्रबिन्दु चित्त परिशोधन है, इसलिए चारों तिब्बती परम्पराओं का चित्त के स्वभाव के बारे में एकमत होना स्वभाविक है। सभी परम्पराएं व्यावहारिकतया अथवा सूक्ष्मतया चित्त के विभिन्न स्तरों में भेद को स्वीकार करते हैं, और सभी स्वीकार करते हैं कि चित्त का वास्तविक स्वरूप प्रभास्वर एवं शून्यता है। फिर भी, सभी परम्पराओं की पारिभाषिक शब्दावलि एवं अधिगम के उपाय भिन्न- भिन्न है। जैसे परम पावन चौदहवें दलाई लामा ने कहा है-"नवीन शासन परम्परा के अनुत्तर योगतन्त्र तथा प्राचीन महासन्धि अनुत्तर योगतन्त्र दोनों चित्त के प्रभास्वर स्वरूप को समान रूप से महत्त्व देते हैं और यही नवीन एवं प्रचीन परम्परा के बीच तुलना का उचित स्थल है। " संसार एवं निर्वाण की प्राप्ति में चित्त की भूमिका पर समस्त परम्पराओं के आचार्यगण एकमत हैं। सभी मानते हैं कि साधारण चित्त कर्म एवं क्लेशों के अधीन होकर कर्म करता है, जो व्यक्ति को कुशल एवं अकुशल कर्मों में प्रवृत्त कराता है और उससे वह व्यक्ति बार-बार उन कर्मों को दोहराता है। जैसा जिसका अभ्यास होता है, वह उसमें निपुणता प्राप्त कर लेता है। बार-बार क्रोध करने वाला व्यक्ति उसमें प्रगतिकर अपने स्वभाव को और अधिक क्रोधी बना लेता है। उसी प्रकार ठीक उसके विपरीत करुणा एवं मैत्री का अभ्यास करने वाला व्यक्ति उसमें प्रगतिकर सरलता से करुणा एवं मैत्री का उत्पाद करने में समर्थ हो जाता है। कहा गया है कि चित्त का स्वभाव प्रभास्वर है, मल तो आगन्तुक हैं   नवीन एवं प्राचीन दोनों ही तिब्बती बौद्ध परम्पराएं धर्मों को चित्तजनित मानते हैं तथा यह भी मानते हैं कि समस्त कल्पनाएं शून्यता से उदित होते हैं तथा शून्यता में ही विलीन हो जाते हैं। परम पावन दलाई लामा जी ने कहा है-   यदि कोई सभी धर्मो को चित्तजनित प्रतीत होने का कारण मानता है, जो कि चित्त के प्रभास्वर स्वरूप से भिन्न नहीं है, वह व्यावहारिक सना अथवा सांवृतिक सत्य से प्रभावित नहीं है। जब हमें समाहित अवस्था में अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है और प्रत्यक्ष रूप में उसके अर्थ का अवबोध होता है, तब संसार में विचरण करते हुए भी हम बुद्ध होते हैं।   इस प्रकार नवीन अनूदित शासन के अन्तर्गत अनुत्तरयोगतन्त्र में मूलचित्त या आधारचित्त को परमार्थसत्य अर्थात् धर्मता के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जो समस्त सांसारिक धर्मों तथा निर्वाण का आधार है। कभी-कभी इसे प्रभास्वर या असंस्कृत भी कहा जाता है। जिमा परम्परा इसे चित्तव कहता है, परन्तु मूलज्ञान अथवा आधारचिन की तुलना करते हुए जिस चिन का उल्लेख होता है. यह वह चित नहीं है। यह मात्र प्रभास्वरता, ज्ञानरूपता, स्वयं मूलज्ञान है। समस्त चित्तों का यह परम मूल है, सदा अविनाशी, अपरिवर्त्य तथा वदतुल्य अभेद्य निरन्तर प्रवाहयुक्त है। यह ठीक आचार्य मैत्रेय द्वारा अभिसमयालङ्कार में कहे अनुरूप है कि भगवान् बुद्ध की उत्कृष्ट क्रियाएं इसलिए शाश्वत मानी जाती हैं, क्योंकि वे अपार एवं अक्षय हैं। यह (चित्त) अजात भी है, क्योंकि समारोपित अथवा हेतु प्रत्ययों से उत्पन्न नहीं है तथा इसकी निरन्तरता सदैव अक्षुण्ण रहती है।   यह समस्त सांसारिक धर्मों तथा निर्वाण का आधार है। यह बुद्धत्व की फलभूमि की धर्मकाय बनने का स्वभाव रखता है। समस्त समारोपणीय धर्मों से परे होने के कारण इसे परमार्थसत्य कहते हैं। इसकी क्रियाएं, अभिव्यक्तियाँ अथवा इसके स्थूल रूप संवृतिसत्य होते हैं। सामान्य स्थिति में व्यक्ति में कुशल, अकुशल भावों जैसे इच्छा, घृणा, भ्रान्ति आदि के उत्पाद के बावजूद चित्तवज्र इनकी अशुद्धता तथा क्लेशों से मुक्त रहता है। जैसे जल अतीव मैला हो सकता है, परन्तु इसका स्वभाव निर्मलता ही होता है। जिस प्रकार मैल इसके स्वभाव को मैला नहीं करता। उसी प्रकार चित्तवज्र की लीला के रूप में सशक्त क्लेशों और कर्मों के उत्पन्न होने पर भी इन कृत्रिमताओं के उत्पाद का आधार मूलचित्त स्वयं सदैव दोषमुक्त रहता है, क्योंकि वह अनादि शुभ्र एवं समन्तभद्र हैं।   बुद्धत्व की फलभूमि के उत्कृष्ट गुण अर्थात् दशबल, चतुर्वैशारद्य आदि इस चित्तवज्र में साररूप में विद्यमान होते हैं तथा वह कुछ प्रत्ययों के कारण अवरुद्ध होकर व्यक्त नहीं हो पाता है। अतः कहा जाता है कि हम सब आरम्भ से सम्पूर्णतया शुद्ध मूलचित्त युक्त बुद्ध अर्थात् बोधिप्राप्त ही होते हैं   प्रभास्वर मूलचित्त को व्यक्त करने के उद्देश्य से ही भिन्न-भिन्न उपायों द्वारा पृथक्- पृथक् विधियों का प्रतिपादन हुआ। गुह्यसमाज में प्राण वायु अर्थात् नाड़ी-प्राण-बिन्दु का उल्लेख है। चक्रसंवर में चार प्रकार के आनन्द का उत्पाद उल्लिखित है। हेवज्र में आन्तरिक उष्णता अर्थात् चण्डाली क्रिया पर बल दिया गया है। कालचक्र में शून्यरूपता पर ध्यान लगाने का विधान है। महासन्धि योग की विशिष्टता यह है कि योगी स्फुट प्रभास्वर मूलचित्त की अभिव्यक्ति विश्लेषण अथवा तर्क आदि द्वारा न करके मात्र कल्पनारहित स्थिति को स्थित रखते हुए अन्य कई बाह्य तथा आन्तरिक क्रियाओं के साथ-साथ कर सकता है।



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