श्री सुशील जालान (ध्यान योगी )-
Mystic Power - * श्रीविद्या के अनुशीलन से श्रीविष्णु के दशावतार प्रकट होते हैं सक्षम ऊर्ध्वरेता ध्यान-योगी पुरुष साधक के ध्यान में। यह ध्यान-योग की अनुपम क्रिया है, जिसे आध्यात्मिक ब्रह्मगुरु के सान्निध्य में रहकर सीखा जा सकता है, अभ्यास किया जाता है।
भगवान् श्रीविष्णु के दश मुख्य अवतार माने गए हैं वैदिक सभ्यता और संस्कृति में। यह हैं -
मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन,
परशुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध और कल्कि।
- यह ध्यान-योग की दश भूमिकाएं हैं। नर को नारायण बनाने की विधा है। भगवत् पद प्राप्त करने का हेतु है। इन दश भूमिकाओं का सक्षम ध्यान-योगी ब्रह्मगुरु की कृपा, इष्टदेव के अनुग्रह तथा देवी के वरदान से बोध करता है।
श्रीविष्णु के छः विशिष्ट गुण माने गए हैं,
वीर्य, बल, वैराग्य, श्री, ऐश्वर्य तथा यश,
वीर्यवान पुरुष ही इन योग-भूमिकाओं में प्रवेश कर सकता है।
1. मत्स्य -
- प्रथम अवतार मत्स्य है। वीर्य पुरुष के अंडकोष में संग्रहित होता है जिसमें शुक्राणु विकसित होते हैं। शुक्राणु मत्स्य जैसी आकृति के दीखते हैं। इनकी संख्या पर ही पुरुष का बल निर्धारित होता है। ब्रह्मचर्य पालन का यही प्रथम उद्देश्य है।
2. कूर्म -
कूर्म कछुए को कहते हैं जो भूमि पर रहता है और जल में भी। इसे प्राणवायु के सेवन के लिए पृथ्वी पर आना पड़ता है। कछुआ दीर्घजीवी प्राणी है, 1000 वर्षों तक जीवित रह सकता है। मनुष्य का जीवन 100 वर्षों का माना जाता है,
[ अथर्ववेद 19.67.02/ जीवेम शरद: शतम् ]।
मनुष्य साधारणतया 21,600 श्वास लेता है 24 घंटों में, वहीं कूर्म के लिए 2,160 होगी। अर्थात्, श्वास की संख्या दश प्रतिशत रह जाए, तो आयु दश गुणा बढ़ सकती है। बाह्य केवल कुंभक प्राणायाम से सक्षम योगी अपनी श्वास संख्या नियंत्रित करता है।
- मूलाधार चक्र और स्वाधिष्ठान चक्र के योग को कूर्म पीठ कहते हैं। ध्यान के योग आसनों से इन चक्रों का योग किया जाता है। यह आसन हैं, पद्मासन, वज्रासन, सिद्धासन, सुखासन, सिंहासन, आदि। दीर्घ काल तक इन आसनों पर प्राणायाम के अभ्यास से प्राणवायु सूक्ष्म होती है और वीर्य - शुक्राणु ऊर्ध्व होकर नाड़ियों में प्रवेश करने लगते हैं कूर्म पीठ से।
- कूर्म पीठ पर मेरुदंड में स्थित मंदराचल सुमेरु पर्वत को अरणि बना कर अमृत तत्त्व के लिए भवसागर मंथन किया जाता है। अर्थात्, इड़ा और पिंगला नाड़ियों में सूक्ष्म प्राण का प्रवाह किया जाता है, अनुलोम विलोम प्राणायाम से। कुंडलिनी शक्ति जाग्रत होने लगती है।
3. वराह -
- वराह पृथ्वी तत्त्व को जल तत्त्व से ऊपर निकालता है। मूलाधार चक्र में पृथ्वी तत्त्व है और स्वाधिष्ठान चक्र में जल तत्त्व। जल भावना है, स्वाधिष्ठान चक्र भवसागर है। मूलाधार चक्र से चेतना को, कुंडलिनी शक्ति को, स्वाधिष्ठान चक्र से ऊर्ध्व लोक में ले जाना ध्येय है वराह अवतार का।
- मानसिक वैराग्य भौतिक विषयों में, आधार है वराह अवतार के लिए। धन, पद, प्रतिष्ठा, परिवार आदि में मोह न होना, संसार से उपराम होना आवश्यक है ध्यान-योगी के लिए वराह अवतार में स्थित होने के लिए। अश्विनी मुद्रा का सतत् अभ्यास वराह अवतार के लिए अभिष्ट है।
4. नृसिंह -
- भवसागर पार करने का अर्थ है कर्मबंधनों से मुक्ति, जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति। चेतना/कुंडलिनी शक्ति नाभिस्थ मणिपुर चक्र में प्रविष्ट होती है। मणिपुर में अग्नि तत्त्व है। सिंहासन पर स्थित ध्यान-योगी नृसिंह अवतार का बोध करता है।
- मणिपुर चक्र से सुषुम्ना नाड़ी जाग्रत होती है। सुषुम्ना में प्रवेश का अर्थ है प्राणजय सिद्धि। 216 श्वास प्रति 24 घंटों का अभ्यास 10,000 वर्षों की आयु प्रदान कर सकता है, वहीं 21.9 श्वास/24 घंटे, अर्थात्, 0.9 श्वास प्रति घंटा आयु को 100,000 वर्षों तक ले जा सकता है। यह सतयुग की विधा है जब महर्षि, ब्रह्मर्षि गण श्वास पर नियंत्रण स्थापित कर प्राणजय सिद्धि प्राप्त कर लाखों वर्षों तक तप में लीन रहते थे।
- ब्रह्मविद्या उपनिषद् का कथन है कि योगी जब अपनी चेतना को सुषुम्ना नाड़ी में स्थिर करता है, तब रोग, वृद्धावस्था और मृत्यु को जीत लेता है तथा अणिमा आदि अष्टमहासिद्धियां विभूतियों के रूप में उसे उपलब्ध होती हैं।
"जरामरणरोगादि न तस्य भुवि विद्यते ।
एवं दिने दिने कुर्यात् अणिमादि विभूतये॥"
- नृसिंह में न् वर्ण है अनंत स्वरूप और ऋ है बोध स्वरूप। अनंत का बोध नृसिंह अवतार का उद्देश्य है। अग्नि तत्त्व चेतना को, कुंडलिनी शक्ति को, जला नहीं सकता है। यही प्रह्लाद के अग्नि में जीवित रहने का प्रमाण है। नृसिंह अवतार स्तम्भ से प्रकट हुआ, अर्थात्, चेतना का स्तंभन करे ध्यान-योगी, दीर्घकाल तक द्रष्टा रहे आत्मचेतना का अग्नि तत्त्व में, सुषुम्ना नाड़ी में, सुषुप्तावस्था में।
5. वामन -
- वामन साधारणतया बौने को कहा जाता है। वामन अवतार में ध्यान-योगी विराट पुरुष नारायण का बोध करता है। वामन ने तीन पाद भूमि राजा बलि से मांगी थी। प्रथम पाद में भूलोक, अर्थात् मूलाधार चक्र, द्वितीय पाद में अंतरिक्ष, अर्थात् सुषुम्ना नाड़ी में व्याप्त अन्यान्य लोक, महर्लोक, जनर्लोक, तपर्लोक, आदि।
- तृतीय पाद में शिर के शीर्ष पर स्थित सत्यम् लोक, अर्थात्, आज्ञा चक्र - सहस्रार, का बोध ब्रह्मनाड़ी में चेतना के ऊर्ध्वगमन से उपलब्ध होता है सक्षम ध्यान-योगी को। ब्रह्मनाड़ी हृदयस्थ अनाहत चक्र में सुषुम्ना से निकलती है।
ऋग्वेद, पुरुष सूक्त (10.90.04) कहता है,
"त्रिपाद ऊर्ध्व उदैत् पुरुष: पादोऽस्येहाभवत् पुनः।"
[अन्वय: त्रिपाद ऊर्ध्व उदैत् पुरुष: पाद: अस्य इहा भवत् पुनः]
अर्थात्, इन ऊर्ध्व त्रिपाद से उदित हुए विराट पुरुष नारायण का पुनः पुनः बोध करता है ध्यान-योगी, आवृत्ति करता है आत्मचेतना की मूलाधार चक्र से सहस्रार तक, जो अनुग्रह से ही उपलब्ध होता है उसे।
- वामन देव एक दण्ड धारण करते हैं जिसके शीर्ष पर छत्र होता है। अर्थात्, छत्रपति हैं वामनदेव, मेरुदण्ड के सुमेरु शीर्ष पर अधोमुखी पद्म सहस्रार का द्योतक है।
- राजा बलि से यज्ञ, मणिपुर चक्र की अग्नि, से प्राप्त करने का अर्थ है, मूलाधार चक्र, 'ल' की कुंडलिनी शक्ति को, हृदयस्थ अनाहतचक्र के आत्मबल, 'ब' से, शीर्षस्थ सहस्रार ब्रह्मबल में परिवर्तित करना। 'इ'कार है कामना।
6. परशुराम -
- ऋषि जमदग्नि के पुत्र हैं परशुराम। वामन अवतार के बोध से उपलब्ध है इन्हें प्राणजय सिद्धि के साथ साथ पराशक्ति, जो इनके अस्त्र परशु में निहित है। 'र' कूट बीज वर्ण है अग्नितत्त्व का, मणिपुर चक्र का। राम शब्द सुषुम्ना नाड़ी जागृत कर महर्लोक, अनाहत चक्र, सुषुप्तावस्था में स्थित होने के अर्थ में प्रयुक्त है।
- अष्टचिरंजीवियों में भी गणना होती है परशुराम की। हैहय वंश के क्षत्रियों का 21 बार वध किया था इन्होंने। सहस्त्रबाहु कार्तवीर्यार्जुन, जिसने 88,000 वर्षों तक राज्य किया था, का भी वध पराशक्ति संपन्न परशु से किया था इन्होंने, ऋषि जमदग्नि की हत्या के कारण, प्रतिशोध वश।
7. श्रीराम -
- त्रेता युग के इक्ष्वाकु वंश में अनेक प्रतापी राजा हुए, हरिश्चंद्र, दिलीप, रघु, भगीरथ जैसे। लेकिन केवल श्रीराम ही भगवत् पद प्राप्त कर सके, वैराग्य के कारण, राज्याभिषेक की जगह 14 वर्षों का वनवास स्वीकार करने के कारण, अनेकों दैत्यों का संहार, किष्किंधा नरेश वानरराज बालि तथा शिवभक्त दशानन प्रतापी लंकापति रावण के वध करने के कारण। सूर्यवंशी मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामचन्द्र पूर्ण अवतार माने जाते हैं श्रीविष्णु के।
- श्रीविद्या में पारंगत होने के कारण इन्हें श्री उपाधि से विभूषित किया जाता है। श्री वर्ण पूर्णता का द्योतक है, सभी आध्यात्मिक सिद्धियों का स्त्रोत है, निर्गुण ब्रह्म तथा सगुण ब्रह्म, दोनों का बोध है। ऐश्वर्य युक्त अष्टमहालक्ष्मी तथा चैतन्य तत्त्व धारण करना ही श्री धारण करना है। परमात्म तत्त्व बोध था श्रीराम को, इसलिए परमात्मा भी कहलाए।
- श्रीराम ने राजधर्म को वरीयता दी व्यक्तिगत भोगविलास पर। 11,000 वर्षों तक राज किया, अयोध्या में। इनके राज में प्रकृति भी मर्यादा में, अनुशासन में, रहती थी। प्रजा का सुख समृद्धि ही राजाराम का भोग था। रामराज आज भी आदर्श है, 17,50,000 (सत्रह लाख पचास हजार) वर्षों के बाद भी। इनका यश अक्षुण्ण है। शरणागत को भवसागर से तारना, मोक्ष प्रदान करना, भगवान् श्रीराम के श्रीविष्णु अवतार का विशेष प्रयोजन है।
8. श्रीकृष्ण -
- योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण का प्राकट्य ईसा पूर्व 3230 में हुआ था चंद्रवंशी वृष्णियों में, मथुरा में। प्राकट्य से ही इन्होंने आध्यात्मिक लीलाओं का परिचय दिया, इसलिए इन्हें लीला पुरुषोत्तम कहा गया है। श्रीविद्या में निपुण श्रीकृष्ण ने ललिता शक्ति को अपनी प्रिय सखी माना। ललिता राजराजेश्वरी महात्रिपुरसुन्दरी हैं, दुर्गा देवी का चैतन्य स्वरूप हैं।
- श्रीकृष्ण भी पूर्ण ब्रह्म हैं, परम् पुरुष हैं, धर्मयुक्त भोग और योग का समर्थन करते हैं। बाल्यकाल/किशोरवय में वृन्दावन का महारास हो या प्रौढ़ावस्था का कुरुक्षेत्र का महाभारत युद्ध, श्रीकृष्ण हमेशा नायक ही रहे। मोक्ष के विभिन्न योग मार्गों का भी इन्होंने विवेचन किया, जिसे संकलित किया महर्षि वेदव्यास जी ने श्रीमद्भगवद्गीता में।
9. बुद्ध -
- ईसा पूर्व 563 में लुम्बिनी, नेपाल, में जन्मे राजकुमार सिद्धार्थ बाल्यकाल से आध्यात्मिक अभिरुचि, करुणा भाव से संपन्न थे। तीन प्रश्न, जरा, रोग और मृत्यु, इनके कारण और निवारण, के उत्तर के लिए पत्नी, राजपुत्र के भोगादि का त्याग कर, यायावर की तरह भटकते रहे।
- बोधगया में एक पीपल के वृक्ष के नीचे इन्हें समाधि लगी, आत्मप्रकाश प्रकट हुआ, तीनों प्रश्नों के उत्तर प्राप्त हुए। इस आध्यात्मिक बोध का इन्होंने प्रचार प्रसार किया, बुद्ध कहताए, बौद्ध धर्म के प्रवर्तक बने। बुद्ध, धम्म, संघ की शरण लेना, भिक्षु का जीवन व्यतीत करना, सम्यक प्रकृति का ध्यान, इनकी विशेषता है।
- अंततः शून्य का, अनंत का, बोध होता है ध्यान-योगी को सहस्रार में। बुद्ध ने उसी शून्य में आत्मचेतना को विलीन कर लिया, महापरिनिर्वाण को उपलब्ध हुए।
10. कल्कि -
- कलियुग का मान है 4,32,000 मानव वर्ष। ईसा पूर्व 3102 से प्रारंभ माना जाता है। कलियुग के अंत में कल्कि अवतार का प्राकट्य होगा, वैदिक ऋषियों की मान्यता रही है और यह अवतार सृष्टि में पुनः सतयुग का आविर्भाव करेगा।
- ध्यान-योगी कल्कि अवतार का बोध अपने ध्यान में ही कर लेता है। कल्कि श्वेत अश्व पर आसीत् हैं, तलवार (अरि) धारण करते हैं। श्वेत है सतोगुण का परिचायक और अश्व है अ-श्व(सन्) क्रिया, अर्थात्, बाह्य केवल कुंभक प्राणायाम। इस योग क्रिया में सत्वगुणी प्रकाश का बोध करना तथा अरि का उपयोग करना अभिप्राय है।
- अरि है, अ/प्राकट्य , र्/मणिपुर अग्नितत्त्व, इ/कामना। केंद्र बिन्दु, सत्वगुणी प्रकाश, से प्रकट किरणें चक्र की अरे हैं, आत्म/ब्रह्म बल से ओतप्रोत हैं, जिनका उपयोग कल्कि 'धर्मसंस्थापनार्थाय' करते हैं।
उपसंहार -
एक ध्यान-योगी मत्स्य से कल्कि तक की आध्यात्मिक साधना करने के पश्चात् श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध, कल्कि में किसी एक को अपना आदर्श मान कर जीवनशैली अपनाता है। श्रीविद्या का अनुशीलन करने से पूर्ण ब्रह्म की योग्यता, पराशक्तियों के समुचित उपयोग की पात्रता, उपलब्ध होती है।
आत्मबोध, ब्रह्मबोध मानव जीवन का परम् उद्देश्य है। समाज में रह कर, कर्त्तव्य कर्मों को करते हुए, कर्मफल में आश्रित न होना, आध्यात्मिक ध्यान साधना का प्रथम तथा अंतिम मुख्य सोपान है। आध्यात्मिक साधना एक उत्तम कर्म ही है।
Comments are not available.