श्री सुशील जालान
समुद्र मंथन ध्यान-योग की क्रिया है, इड़ा और पिंगला नाड़ी को 'सम' करने की, प्राणायाम और योगासनों से। इस क्रिया विशेष से सुषुम्ना नाड़ी जाग्रत होती है, जिसमें 14 दिव्य रत्न छिपे हुए हैं।
मूलाधार चक्र का स्वाधिष्ठान चक्र से योग कर वीर्य को ऊर्ध्व करना मेरुदंड में और नाभीस्थ मणिपुर चक्र से सुषुम्ना नाड़ी में रमण करना ध्यान-योगी के लिए आवश्यक है, जिससे हृदयस्थ अनाहत चक्र/महर्लोक में चैतन्य स्वरूप आत्मबोध हो। इस चैतन्य तत्त्व में दिव्य रत्न उपलब्ध होते हैं।
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मूलाधार स्वाधिष्ठान का योग कूर्म पीठ है, जिसपर मंदराचल पर्वत/सूक्ष्म-सुमेरु को मथनी/अरणी बना कर, क्षीरसागर/वीर्य-समुद् को, वासुकी नाग/कुंडलिनी शक्ति से इड़ा/दैत्यगण और पिंगला/देवगण नाड़ियों से मथा जाता है। इस मंद योग क्रिया/ मंथन से मणिपुर चक्र का अग्नितत्त्व जाग्रत होता है, सुषुम्ना नाड़ी जाग्रत होती है और 14 रत्न प्रकट होते हैं सुषुप्तावस्था में, अनाहत चक्र में।
गायत्री महामंत्र साधना से सुषुप्तावस्था में आत्मबोध संभव होता है और योग्य योगी-साधक सक्षम आध्यात्मिक गुरू के अनुग्रह से एकाधिक रत्नों को धारण करने की सामर्थ्य प्राप्त करता है।
निष्काम भाव से साधना करने से ब्रह्मनाड़ी जाग्रत होती है सुषुम्ना में, अनाहत चक्र में, जो आज्ञाचक्र - सहस्रार तक ले जाती है ध्यान-योगी के चैतन्य आत्मा को। यहां सभी रत्न उपलब्ध होते हैैं, प्रथम से चतुर्दशवें तक।
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प्रथम रत्न है "कालकूट" नामक विष, जो प्रकट होता है विशुद्धि चक्र में, कंठग्रीवा में। यह गुप्त स्थान है, जिसे सक्षम आध्यात्मिक गुरू ही शिष्य में जाग्रत करता है अपने अनुग्रह/शक्तिपात से, दीक्षा के अंतर्गत। संसार का लोप होता है, बोध नहीं रहता, इस दृष्टि से इसे विष की संज्ञा दी गई है।
काल से परे महाकाल है, जिसका बोध होता है, जब ध्यान-योगी 'विषपान' कर अपनी चेतना को ऊर्ध्व कर, मुंड में प्रवेश करता है। केवल सांसारिक-विषय त्यागी और अनासक्त-वैरागी पुरुष ही निष्काम भाव और बिना अहंकार के, महत्तत्त्व का बोध कर सकते हैं। अन्य 13 दिव्य रत्न मुंड के अंदर ही दृष्टिगोचर होते हैं। महादेव की अनुकम्पा से, ब्रह्मगुरू के दिशा-निर्देशन में, जब साधना की उच्चतर भूमिकाओं में यह ध्यान-योगी प्रवेश करता है और तब विभूषित होता है दिव्य रत्नों से।
निम्नलिखित छन्द में 14 दिव्य रत्नों के नाम दिए गए हैं -
"लक्ष्मीः कौस्तुभपारिजातकसुराधन्वन्तरिश्चन्द्रमाः।
गावः कामदुहा सुरेश्वरगजो रम्भादिदेवांगनाः।
अश्वः सप्तमुखो विषं हरिधनुः शंखोमृतं चाम्बुधेः।
रत्नानीह चतुर्दश प्रतिदिनं कुर्यात्सदा मंगलम्॥"
1:- लक्ष्मी,
2:- कौस्तुभ मणि,
3:- पारिजात वृक्ष जिसे कल्पवृक्ष भी कहते हैं,
4:- सुरा अर्थात् वारुणी,
5:- धन्वंतरि अमृत कलश के साथ,
6:- चंद्रमा,
7:- कामधेनु,
8:- ऐरावत हाथी,
9:- रम्भा आदि देवांगनाएँ
10:- सात मुखों वाला अश्व,
11:- विष,
12:- भगवान विष्णु की धनुष शारंग,
13:- शंख और
14:- अमृत।
ध्यान-योग परम-ब्रह्म व अमृत-तत्त्व के बोध का एक मात्र साधन है, जिसके अनुशीलन से दिव्य रत्नों के साथ साथ अन्यान्य सिद्धियां भी उपलब्ध होती हैं सक्षम ध्यान-योगी को। ऋषि, महर्षि, ब्रह्मर्षि पद भी ध्यान-योग विद्या से प्राप्त होते हैं।
योग, सांख्य, वैराग्य दर्शन और श्रीमद्भगवद्गीता, योग संबंधित उपनिषद् तथा कतिपय तंत्र शास्त्र, विज्ञान भैरव आदि ध्यान-योग विद्या के अनुपम ग्रंथ हैं।
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