गलत कुण्डली और फलादेशके मुख्य कारण ...

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  • ज्योतिष विज्ञान
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  • 31 October 2024
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शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ )-mystic power १-समस्त सिद्धान्त ग्रन्थों और पुराणोंके अनुसार सूर्यसिद्धान्त के अनुसार ही ग्रहसाधन और तिथ्यादिका निर्धारण करना चाहिये। व्यासजी का स्पष्ट वचन... (यन्त्रवेधादिना ज्ञातं यद्बीजं गणकैस्ततः । ग्रहणादि परीक्षेत न तिथ्यादिं कदाचन - विष्णुधर्मोत्तरपुराण) है कि ग्रहण आदि घटनाओंमें जहाँ दर्शन की आवश्यकता हो, वहाँ ग्रहस्पष्ट आदि को दृक्कर्म संस्कार द्वारा दर्शन योग्य बनाना चाहिये, किंतु तिथ्यादिमें उनका प्रयोग कभी भी नहीं करना चाहिये। निर्णयसिन्धुका भी वचन है कि अदृष्टफलहेतु सूर्यसिद्धान्तका प्रयोग करें अदृष्टफलसिद्ध्यर्थं यथार्कगणितं कुरु। गणितं यदि दृष्टार्थं तद्दृष्ट्युद्भवतः सदा ॥ नारदपुराणमें सूर्य सिद्धान्तका विस्तृत गणित भी दिया गया है। अन्य सभी पुराणों में गणनाके लिये सूर्यसिद्धान्तका ही प्रयोग किया गया है और सूर्यसिद्धान्तका ही निचोड़ भी प्रस्तुत किया गया है। परंतु पिछली कुछ शताब्दियोंसे भौतिकवादियोंका बोलबाला बढ़ गया है, जो भौतिक पिण्डोंको ही ज्योतिषीय ग्रह मानते हैं, किंतु ऐसा करनेपर ज्योतिषीय ग्रहस्पष्टमें कई अंशोंतकका अन्तर पड़ जाता है और षोडश वर्गोंमें कई तो एकदम अशुद्ध बन जाते हैं और फलादेश सही नहीं निकलते वराहपुराणका कथन है 'चक्षुषा नैव सा ज्ञातं शक्यते व्योमगा तिथिः ' अर्थात् आकाशमें तिथिकी गति आँखोंसे नहीं देखी जा सकती। यदि सूर्य और चन्द्र आँखोंसे देखे जा सकते हैं तो तिथिके लिये दृक्तुल्यताका निषेध क्यों? क्योंकि बाह्य चक्षुद्वारा दिखनेवाले ग्रहाँका ज्योतिषमें निषेध था। २- विंशोत्तरी आदि चन्द्राधारित दशाएँ दैनिक गतिद्वारा भयात और भभोगसे निकालनेकी स्थूल परिपाटी चल पड़ी है, जिस कारण घटनाओंके कालमें महीनों और कभी-कभी वर्षोंकी अशुद्धि हो जाती है। विंशोत्तरीका निर्धारण चन्द्रकी स्थितिसे होता है, अतः इष्टकालीन चन्द्र-स्पष्टद्वारा विंशोत्तरी आदिकी गणना करें। ३-विंशोत्तरी आदि दशाएँ चन्द्रसे बनती हैं, इसलिये उनमें ३६० तिथियोंके चान्द्रवर्ष मानका प्रयोग करना चाहिये। अधिक मास चान्द्रवर्षसे बाहर माना जाता है, जिस कारण इसका नाम अधिक मास या मलमास पड़ा । विंशोत्तरीका वर्ष ३६० चान्द्रदिनोंका होता है, किंतु लाहिड़ीजीने ईसाई कैलेण्डरका अभ्यास होनेके कारण ३६० सौर दिनोंका वर्षमान प्रचलित कर दिया, जो एक गलत विचार है। ९ प्रकारके वर्षमान होते हैं, परंतु ३६० सौर दिनोंका वर्ष उनमें से कोई भी नहीं होता। अतः उनके अनुगामियोंने ३६५.२४२२ दिनोंका ईसाई वर्ष विंशोत्तरीपर लागू कर दिया है, जिसके कारण प्रत्येक ३३ वर्षोंमें १ वर्षकी त्रुटि हो जाती है; क्योंकि ३६० तिथियोंका वर्ष ३५४.३७ सौर दिनोंका होता है। उपर्युक्त कई त्रुटियाँ जुड़कर कई वर्षोंकी त्रुटियाँ उत्पन्न कर देती हैं, जिस कारण अन्तर्दशा भी कदाचित् ही सही बन पाती है। जबकि विंशोत्तरीके फलका मौलिक नियम यह है कि महादशासे लेकर प्राणदशातक सभी दशाकारक ग्रहोंके फलादेशोंका कुल योग ही घटनाका कारक होता है। केवल महादशा या अन्तर्दशासे जीवनकी मुख्य धाराका स्थूल अनुमान ही लगाया जा सकता है, सही घटना और घटनाकालकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। ४-विंशोत्तरी आदि चन्द्राश्रित दशाएँ चन्द्रमासे बनानेका आदेश है, जिसका अर्थ यह है कि किसी वर्गमें चन्द्रकी जो स्थिति है, उसीके अनुसार उस वर्गकी विंशोत्तरी आदि दशा बनानी चाहिये। अतः १६ वर्गोंके लिये १६ विशोत्तरी सारणियों, १६ अष्टोत्तरी सारणियाँ, १६ योगिनी सारणियों और १६ कालचक्रसारणियाँ बनेंगी। ५- पाराशरहोराशास्त्र के दशाफलाध्यायमें दो बार दशाओंका फल जाननेके लिये दशारम्भकालकी कुण्डली बनाने का आदेश दिया गया है, किंतु प्रायः सभी ज्योतिषी जन्मकालिक कुण्डलीसे ही दशाफल निकालते हैं। किसी भी ग्रहकी दशा जीवनका हिस्सा ही होती है। अतः पूरे जीवनपर प्रभाव डालनेवाली जन्मकुण्डलीसे किसी विशेष दशाकालका फल निकालनेपर प्रायः सही फल मिलता है, किंतु यदि दशारम्भ कुण्डली जन्मकालिक कुण्डलीका विरोध कर दे तो दशारम्भकालकी कुण्डलीका फल ही प्रभावी होता है। बशर्ते दशारम्भकुण्डलीका दशाकारक ग्रह अत्यधिक निर्बल न हो और जन्मकुण्डलीमें वही ग्रह अतिवली न हो। ब्रह्मचर्यपालनद्वारा इस विधिका अभ्यास करना चाहिये जैसा कि बृहत् पाराशरहोराशास्त्रमें बताया गया है। देवी कृपा होनेपर शुद्ध समयके मिलने की सम्भावना होती है। यह विधि कलियुगके सामान्य लोगोंकि लिये नहीं है, ऐसा पराशरजीने पाराशर होराशास्त्र के दूसरे खण्ड के आरम्भ में बताया है। ६- अनेक षोडश वर्ग पराशरऋषिके नहीं बनाये जाते हैं। उदाहरणार्थ चतुर्विंशांश कुण्डलीके निर्माण में आदेश है कि सम राशियोंमें उलटा क्रम होना चाहिये, परंतु सभी भाष्यकार राशियोंके देवोंका क्रम तो उलटा कर देते हैं, परंतु राशियोंका क्रम सीधा रखते हैं। इसका कारण यह है कि इन भाष्यकारोंने उच्चवर्गोंका प्रयोग व्यावहारिक जीवनमें किया ही नहीं। ऐसे ही लोग द्रेष्काण कुण्डली १२ भावोंकी बनाते हैं, जबकि होराकुण्डली २ भावोंकी बनाते हैं और यह ध्यान नहीं रखते कि होरा एवं द्रेष्काण कुण्डलियोंके निर्माणकी विधि एक समान है। षोडशवर्गविवेचनाध्यायमें स्पष्ट लिखा है कि सभी वर्गोंमें भाव १२ होते हैं, जबकि षोडश वर्ग देवताओंकी संख्या वर्ग-संख्याके बराबर होती है। उदाहरणार्थ होरा कुण्डलीमें दो देव - सूर्य और चन्द्र होते हैं। द्रेष्काणमें तीन और षष्ठ्यंश कुण्डलीमें साठ देव होते हैं। देवोंको भाव समझना गलत है। इस त्रुटिका कारण यह है कि वेद-वेदांगादिका अध्ययन ब्रह्मचर्य आश्रममें होता है और पराशरजीने भी सही फलादेश करनेके लिये जितेन्द्रिय होनेको आवश्यक शर्त माना है। जो ब्रह्मचर्यका पालन नहीं करते, वे सिद्धान्त-संहिता और होराग्रन्थों तथा शास्त्रादिका मनमाना अर्थ लगाते हैं और गलत फलादेश करके ज्योतिषशास्त्रकी प्रतिष्ठाको नष्ट करते हैं।



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