( श्री अनिल गोविंद बोकील । नाथसंप्रदाय में पूर्णाभिषिक्त और तंत्र मार्ग में काली कुल में पूर्णाभिषिक्त के बाद साम्राज्यभिषिक्त)
mysticpower - " गणपति बाप्पा मोरया" - ब्रह्मणस्पति गणपति; गणेश गजानन; विनायक-सिद्धी विनायक ये सभी भिन्न दैवत है। हरेक अलग अलग तत्व के है।इसको हम "गणपति" ऐसा सँबोधित करते है वह गलत है। प्रमाण यही है कि सभी के साधना-उपासना के विधी-विधान अलग दिखते है ;-और परस्पर-विरोधी भी।
इसके लिये जरा इतिहास पर नजर डालनी होगी। ३ या ४ कालखंड देखने होंगे।
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(१)वेदपूर्व और वैदिक काल- अर्थात सांख्य व वेदो का काल।
(२) बौद्ध तथा तांत्रिकोंका काल- इसमे तिब्बत के तंत्र भी होंगे।
(३) वेद-पुराण-तंत्र के समन्वयका काल-इसमे भक्ति को प्राधान्य है। हम "बाप्पा"को विघ्नहर्ता कहते है।वेदपूर्वकाल में उनका उल्लेख "विघ्न-कर्ता" ऐसा किया गया है।भय की वजह से उनकी उपासना उनकी प्रसन्नता के लिये की जाती थी। उसके बाद वेदकाल मे प्रेमभाव को प्राधान्य दिया गया।और यह तत्व "तेज"स्वरूप में प्रस्तुत हुआ।इसे ही ब्रह्मणस्पति-गणपति नाम दिया गया।
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उपासना भी "तेज"तत्व की ही प्रस्तुत हुई।जैसे ब्रह्मणस्पती सूक्त ( ओम गणानाम् त्वाम गणपतिं हवामहे) आदि। इस कालखंड के बाद बौद्ध व तांत्रिको का काल आता है।इस काल में यही तत्व सगुण मे "स्थाणु"रुप मे प्रस्तुत हुआ।तब उसमे मूर्ती;यंत्र आदि का समावेश हुआ।साधना-उपासना भी "स्थाणु"रुप मे ही प्रस्तुत हुई। जैसे उच्छिष्ट साधना; अभिषेक ; याग इत्यादि। यह तत्व हुआ "विनायक-सिद्धि विनायक"!
इसके बाद का काल आता है समन्वय का, साधना-उपासना सर्व-सामान्य व्यक्तियों को भी सुलभ हो; इस हेतु; उसे पूर्ण समर्पित भाव-भक्ति का स्वरूप दिया गया। मूर्तीया; यंत्र आदि का व्यय कम करके; "पार्थिव" उपासना प्रस्तुत हुई।अर्थात यह तत्व बन गया "कर्दम" स्वरूप ! "बाप्पा" की पार्थिव याने मिट्टी की मूर्ति उपासना में प्रस्तुत हुई। "पार्थिव" को बिदा करना ही होता है ना? अतः "विसर्जन"आवश्यक हुआ ना? यह तत्व हुआ "गणेश-गजानन"! उपासना भी इसी के अनुसार प्रस्तुत हुई।जैसे की फूल पत्री अर्पण करना; प्रदक्षिणा; आरती वगैरे।
इसके बाद का काल आता है नाथ संप्रदाय का। नाथो ने सभी मार्गों की उत्तम बाते स्वीकार की।और अन्य बातों को भी सात्विक रूप दे दिया। समस्त साधना उपासनाओं का जतन भी किया गया।
इस विवेचन से यह बात स्पष्ट हुई होगी कि "तेज" तत्व की साधना; स्थाणु या कर्दम स्वरूप के प्रतीक के समक्ष करने से लाभ होगा ही नही।जिस तत्व का प्रतीक हो उसी तत्व की साधना होनी चाहिये।है ना? हमारे "बाप्पा"के बहुत स्थान है।कौन सा स्थान कौन से तत्व का? इसकी अगर जानकारी ना हो; तो की गयी साधना की फलश्रुति ; सिर्फ "हमने कुछ किया"का समाधान ! अन्य कुछ भी नही। उत्सव में मूर्ती मिट्टी की ही क्यों होनी चाहिये? इसका उत्तर अब यहा पर मिला होगा आप साधकों को।। साधक-साधिका इस वैज्ञानिक व ऐतिहासिक विवेचन पर मनन चिंतन अवश्य करे।
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