श्री शशांक शेखर 'शुल्ब' (धर्मज्ञ )-
mystic power- ग्रहों की गति पर विचार करता हूँ। हम जानते हैं कि राशिचक्र दीर्घवृत्ताकार (०) है। इसके केन्द्र में सूर्य है। इस अण्डाकार पथ पर चलते हुए ग्रह जब सूर्य के समीप पहुँचता है तो सूर्य की प्रबल गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण इसकी गति बढ़ जाती है। ग्रह ज्यों ज्यों सूर्य से दूर होता जाता है तो उसकी गति धीमी होती जाती है। सूर्य से बहुत दूर होने पर उसकी गति, सूर्य के गुरुत्वाकर्षण के कम हो जाने से, मन्द पड़ जाती है। ऐसी दशा में यह वक्री होता है। वक्री का अर्थ है-आगे न बढ़ कर पीछे लौटना। जब दूर से लौट कर ग्रह सूर्य की ओर बढ़ता है तो सूर्याकर्षण से उसकी गति बढ़ने लगती है। पुनः ग्रह मार्गी होकर सूर्य के निकट होकर आगे बढ़ता है। ग्रहों का वक्री और मार्गी होना सूर्य की आकर्षण शक्ति के कारण है। इस शक्ति के कारण ही यह समान गति से सूर्य के चारों ओर अपने परिभ्रमण पथ पर नहीं चलते।
https://www.mycloudparticles.com/
चन्द्रमा सबसे तेज चलने वाला यह है। शनि सबसे धीमा चलने वाला ग्रह है। क्योंकि, चन्द्रमा हमारे सर्वाधिक निकट है और शनि हमसे सर्वाधिक दूर है। वक्री दशा में ग्रह की गति मन्द होने से वह ग्रह एक राशि में बहुत दिनों तक ठहरता है। इसे स्तम्भन कहते हैं। स्तंभित मह बलवान् होता है। वक्री ग्रह उच्चराशिस्थ ग्रह जैसा बली होता है। क्षीण गति वाला यह अस्त होने से निर्बल होता है। सूर्य से सुदूरस्थ यह अत्यन्त चमकीला दिखता है। सुदूर का यह वक्री होता है। वक्री ग्रह सुप्रकाशवान् होता है। सूर्य के अत्यन्त निकट यह आभाहीन होता है। फलतः वह दिखायी नहीं पड़ता। उसे अस्त कहा जाता है।
अस्त होने के चार मास बाद मंगल, १ मास बाद गुरु, १ मास बाद शनि पुनः उगता है। उदय के १० मास पश्चात् मंगल, ४ मास पश्चात् गुरु, ३ मास पश्चात् शनि वक्री होता है। वक्री होने के २ मास उपरान्त मंगल, ४ मास उपरान्त गुरु, ४ मास उपरान्त शान्ति मार्गी होता है। मार्गी होने के १० मास पर मंगल, ४ मास पर गुरु, ३ मास पर शनि अस्त होता है। बुध और शुक्र पूर्व में अस्त होने के बाद पश्चिम में क्रमशः ३२, ७५ दिनों में उदय होते हैं। पुनः ये क्रमशः ३२, २४० दिनों में वक्री होकर ४, २३ दिनों उपरान्त पश्चिम में अस्त तथा तत्पश्चात् १६ ९ दिनों पर पूर्व में उदय होते हैं। फिर ४, २३ दिनों में ये मार्गी होते हैं। तदुपरान्त ३२, २४० दिनों के बाद पूर्व में अस्त हो जाते हैं। राहु-केतु सदा बक्री रहते हैं। सूर्य-चन्द्र सदा मार्गी रहते हैं। शेष यह मार्गी की दोनों होते रहते हैं।
उदय का अर्थ है- दिखाई पड़ना। अस्त का अर्थ है-दिखाई न पड़ना। मार्गी का अर्थ है- आगे बढ़ना। वक्री का अर्थ है-पीछे लौटना। स्तम्भ का अर्थ है-एक स्थान पर अधिक काल तक टिके रहना। सूर्य के पास जब कोई ग्रह आता है तो वह अस्त होता है। सूर्य अमित तेजस्वी है। अन्य यह अल्प तेज वाले हैं। सूर्य के निकट आने पर सूर्य का तेज उनके तेज को आच्छादित कर लेता है। जैसे अग्नि की विशालकाय लपटों के सामने एक दीपक की लव नहीं दीख पड़ती, वैसे ही इसे समझना चाहिये। सूर्य राजा है। अन्य ग्रह उसके पास रहकर अपना महत्व खो देते हैं। राजा से दूर रह कर अन्य राजपुरुष प्रभावशाली लगते हैं। इस प्रकार सूर्य के पास होने पर अन्य ग्रहों का प्रभाव स्वयमेव लुप्त हो जाता है। सूर्य तेजवन्त है। कहा गया है...
'तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते ।' -( बाल्मीकि रामायण )
मह, सूर्य से दूर चला जाता है तो दिखने लगता है। यही उदय होना है। सूर्य से ज्यों-ज्यों दूर जाता है, उसकी चमक बढ़ती जाती है। लोक में भी देखा जाता है- राज कर्मचारी, उच्चपदस्थ अधिकारी से दूर रहने पर अधिक महत्व / सम्मान पाता है। उस उच्चाधिकारी के सामने उसे नगण्य समझा जाता है। उसके सम्मान का हरण, वह उच्चपद प्राप्त पुरुष कर लेता है।
सूर्य से एक निश्चित दूरी पर यह अस्त समझा जाता है। उसके बाद दूरी बढ़ने पर वह उदय हुआ माना जाता है। जैसे सूर्य से १२ अंश के भीतर चन्द्रमा अस्त होता है। १२ अंश के बाद उसका उदय समझा जाता है। इस दूरी को कालांश कहते हैं। प्रत्येक ग्रहका कालांश अलग-अलग होता है। सूर्य से ग्रहोंका अन्तर ही कालांश है उदित मह सुख देता है। अस्त यह, आदर और धन का नाश करता है। वही पट, परदेश भेजता है। मार्गी मह आरोग्य देता है। अपनी दशा में यह ऐसा ही फल देते हैं। वक्री मह बलवान होता है। मार्गों यह अल्प बली होता है। अस्त पर निर्बल होता है।
उदय और अस्त दो प्रकार का होता है। एक तो प्रतिदिन का उदय-अस्त होता है। जैसे- सूर्य एवं चन्द्रमा का। दूसरे प्रकार का उदयास्त इससे भिन्न होता है। बुध, शुक्र ग्रह सूर्य के अधिक निकट है। अतः ये दोनों दिशाओं (पूर्व तथा पश्चिम) में उदय और अस्त होते हैं। सूर्य से अधिक गति वाले होने के कारण ये दोनों ग्रह अपने कालांशतुल्य अन्तर होने के बाद सूर्य के आगे पश्चिम में संध्या को उदय होते हैं। वक्री होकर सूर्य के पास आ कर पश्चिम में ही ये अस्त होते हैं। फिर, वक्र गति से सूर्य के पीछे चल अपने कालांश सम अन्तर होने पर, पूर्व दिशा में १ घटी रात्रि रहने पर उदय होते हैं। पुनः मार्गी होकर पूर्व में ही अस्त होते हैं। मंगल गुरु शनि ग्रह सूर्य से दूर है और सूर्य से अन्य गति वाले हैं। अपने कालांश तुल्य अन्तर होने पर ये पूर्व दिशा में थोड़ी रात्रि रहने पर उदय होते हैं। ये तीनों ग्रह (मंगल, गुरु, शनि) रात्रि गत होने के पहले पश्चिम में अस्त भी हो जाते हैं।
ग्रहों में दो प्रकार की गतियाँ हैं- परिभ्रमण, परिक्रमण। जब यह अपनी ही धुरी पर स्थिर होकर घूमता हैं तो उसकी यह गति परिभ्रमण कहलाती है। जब यह किसी मार्ग से चलता हुआ एक स्थान पर स्थिर न रहकर किसी बिन्दु के चारों ओर घूमता है तो उसको इस गति को परिक्रमण कहते हैं।
जैसे लट्टू को नचाने पर वह अपनी कौल पर तेजी से नाचता वा घूमता हुआ अपने स्थान को बदलता हुआ आगे बढ़ता है, जैसे भौंरा फूल के ऊपर मँडराता (गोलाकार घूमता हुआ अनेकों फुलों के ऊपर से होकर आगे बढ़ता है; वैसे ही पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती हुई क्रांतिवृत्त पथपर आगे चलती है और सूर्य को प्रदक्षिणा कर गभस्तिमान् की स्तुति करती है। ऐसा सभी यह करते हैं। चन्द्रमा पृथ्वी के चारों ओर घूमता हुआ सूर्य की परिक्रमा कर लेता है।
एक अहोरात्र (घी) में पृथ्वी अपनी कील पर घूमती है और रात-दिन रूपी दो शिशुओं का प्रसवन करती है। एक वर्ष (३६५ दिन) में पृथ्वी सूर्य के चारों ओर १ चक्कर लगा लेती है। इससे षड्तुिओं का प्राकट्य होता है। पृथ्वी का अपनी कील पर घूमना, उसका परिभ्रमण है। सूर्य के चारों ओर घूमना, उसका परिक्रमण है। पृथ्वी, पश्चिम से पूर्व की ओर गति करती है। इसीलिये सूर्य पूर्व दिशा में उदय होता हुआ दीखता है तथा पश्चिम में अस्त होता है। अपनी धुरी पर नृत्य करतेहुए सूर्य की प्रदक्षिणा करने का व्रत, पृथ्वी ने अनादि काल से लिया है। ऐसा ही अन्य सभी यह करते हैं। इन सबको कोई नचा रहा है। केवल इन्हीं को नहीं, हम सबको कोई नचा रहा है। नचाने वाला वह कौन है ? राम। गोस्वामी तुलसीदास। कहते हैं ...
नट मरकट इव सबहि नचावत।
'राम' खगेस वेद अस गावत ॥ १ ॥
उमा दारु जोषित की नाई ।
सबहि नचावत 'राम' गोसाई ॥ २ ॥
( रा. च. मा. किष्किंधाकाण्ड )
सबको नचाने वाले राम कैसे हैं ? ...
इस पर गोस्वामी जी कहते हैं ....
राम बह्म व्यापक जग जाना।
परमानन्द परेस पुराना ॥ १ ॥
राम ब्रह्म चिन्मय अविनाशी ।
सर्व रहित सब उर पुर वासी ॥ २ ॥
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी।
मत हमार अस सुनहि सयानी ।। ३ ।।
-रा. च. मा. बालकाण्ड ।
राम ब्रह्म परमारथ रूपा।
अविगत अलख अनादि अनूपा ।। ४ ।। सकल विकार रहित गतभेदा।
कहि नित नेति निरूपहि वेदा ।। ५ ।
-रा. च. मा. अयोध्याकाण्ड ।
गुनातीत सचराचर स्वामी ।
राम उमा सब अन्तरजामी ॥ ६ ॥
तात राम कहुँ नर जनि मानहु।
निर्गुन ब्रह्म अजित अज जानहु ॥ ७ ॥
- किष्किन्धाकाण्ड |
राम तेज बल बुधि विपुलाई।
सेष सहस सत सकहिं न गाई ॥ ८ ॥
- सुन्दरकाण्ड ।
उमा राम की भृकुटि विलासा ।
होइ विस्व, पुनि पावइ नासा ॥ ९ ॥
-लंकाकाण्ड
वास्तव में राम आद्यन्त विहीन हैं। श्री गोस्वामी जी कहते हैं...
आदि अन्त कोउ जासु न पावा ।
मति अनुमानि निगम अस गावा ॥ -बालकाण्ड । -आण्यकाण्ड ।
राम की अदेहता का वर्णन श्री तुलसीदास जी ने इस प्रकार किया है।..
बिनु पद चल, सुनइ बिनु काना ।
कर बिनु करम करइ विधि नाना ॥ १ ॥ आनन रहित, सकल रस भोगी।
बिनु बानी, बकता वह जोगी ॥ २ ॥
तन बिनु परस, नयन बिनु देखा।
गहइ धान बिनु, बास असेखा ॥ ३ ॥ असि सब भाँति, अलौकिक करनी।
महिमा जासु जाइ नहिं बरनी ॥ ४ ॥
-बालकाण्ड
इसलिए मैं, उस राम की शरण में हूँ। जो राम नक्षत्र मण्डल में अव्यक्त रूप से रहता हुआ समस्त आकाशीय पिण्डों को नचा रहा है, वही राम हमारे हृदय में सतत विराजमान रहकर ये समस्त चेष्टाएँ करा रहा है । वहाँ गति रूप में है। यहाँ भी गति रूप में है। वहाँ दिव्य पिण्डों को चला रहा है। यहाँ पार्थिव पिण्ड को चला रहा है। यह उसकीकृपा है कि उसके विषय में मुझे कोई भ्रम नहीं है। उसकी माया दुर्जेय है। वह अज्ञेय है। उस इस अगोचर सूत्रधार की शरण में रहता हुआ, मैं सब को सतत प्रणाम करता हूँ ।
Comments are not available.