(अनन्तश्री जगद्गुरु रामानुजाचार्य श्रीपुरुषोत्तमाचार्य रङ्गाचार्यजी महाराज)
Mystic Power - यह ऐतिह्य है कि भगवान श्रीराम के दास श्रीहनुमान जी ने 'प्रणव' के जिस अद्भुत विज्ञान का प्रतिपादन किया है, वह आज भी गुरुपरम्परा द्वारा सुरक्षित एवं उपलब्ध है। उन्होंने इस विज्ञान की प्राप्ति विश्वप्रभव सूर्यनारायण से की थी।
'बुद्धिमतां वरिष्ठम्' श्रीपवननन्दन के मतानुसार यह विश्व 'वाक्' तत्त्व का ही परिणाम है, जो दो प्रकार का है- अर्थवाक् और शब्दवाक्। यह प्रणव एकाक्षर, द्व्यक्षर, त्र्यक्षर, सार्धत्र्यक्षर और चतुरक्षर- भेद से अनेक प्रकार का कहा गया है। इसके निर्वाचन भी 'अवति, आप्नोति' आदि अनेक धातुओं एवं 'अ उम्, अ + म्' आदि अनेक अक्षरसमुदायों से निष्पन्न होते हैं। निर्वचन-भेद तथा अक्षरसमुदाय-भेद के कारण अर्थ भी अनेक होते हैं। स्थूल सूक्ष्म-पर-भेद से भी अनेक अर्थ होते हैं।
शब्दमय 'ओम्'
शब्दमय 'ओम्' एकाक्षर, द्वयक्षर, त्र्यक्षर, चतुरक्षर- भेदसे अनेक प्रकारका है। आञ्जनेयके मतमें इनमें चतुरक्षर 'प्रणव' 'अह अम् इन चार अक्षरोंसे निष्पन्न है। दूसरे शब्दोंमें एकाक्षर-स्फोट 'ओम्' भी चार वर्ण-स्फोटमें स्थित || इनका अर्थ इस प्रकार है—'अ' कारका अर्थ सूक्ष्म (आत्मा) है। 'ह' कारका
अर्थ स्थूल (शरीर) अर्थात् प्रकृति है। 'अम्' का अर्थ दोनों का एकत्र संनिपात है। 'अ ह् अम्' इस स्थिति में 'ह' कार के उत्व हो जाने से 'अ उ अम्' स्थिति हो जाती है। गुण एवं पूर्वरूप से 'ओम्' निष्पन्न होता है। यह एकाक्षरा व्याहृति परमात्मा का नाम है— 'तस्य वाचकः प्रणवः'। सूक्ष्म परमात्मा एवं स्थूल प्रकृति- दोनों का एकत्र संनिवेश 'ओम्' है। प्रकृतिरूप शरीर- विशिष्ट परमात्मा ही 'ओम्' शब्द से वाच्य है, प्रकृति- वियुक्त नहीं।
द्वयक्षर 'ओम्'
द्व्यक्षर, त्र्यक्षर एवं सार्धत्र्यक्षर 'ओम्' के अर्थों का विश्लेषण इस प्रकार है— जब प्रणव स्थूल अर्थ का प्रतिपादन करता है, तब उसमें 'ओ' और 'म्' दो अक्षर माने जाते हैं। इस पक्ष में प्रणवघटक प्रथम अक्षर 'ओ' का अर्थ ओत है। द्वितीय अक्षर 'मकार' का अर्थ मित है। दोनों के संसर्ग से यह स्थूल अर्थ निष्पन्न होता है, 'जिसमें सब मित पदार्थ प्रोत हैं एवं जो सब मित (परिमित) पदार्थों में ओत है, वह परमात्मा म 'ओम्' शब्द से अभिहित होता है।' भगवान् विष्णु से अन्य जो कुछ भी है, वह मित (परिमित) है। अतः प्रकृति और प्राकृत सब पदार्थ मित हैं। ये मित पदार्थ जिसमें मणिगणों की तरह प्रोत हैं और इन मित पदार्थों में जो पुष्कर में परमाणुवत् ओत है, वह परमात्मा वेदों में 'ओम्' शब्द से अभिहित है।
त्र्यक्षर 'ओम्'
जब प्रणव सूक्ष्म अर्थ का प्रतिपादन करता है, तब उसमें 'अ उ म्' ये तीन अक्षर माने जाते हैं। ये तीनों भगवान् की सृष्टि, स्थिति एवं संहारकारिणी शक्तियों के बोधक हैं। ये तीनों शक्तियाँ भी भगवान् विष्णु की पूर्णा षाड्गुण्य रूपा एक शक्ति की अंशरूपा हैं। वेद में इनके विश्व, तेज सी, प्राज्ञ- ये नामान्तर हैं। 'पाञ्चरात्र'-तन्त्र में इनके संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध- ये नामान्तर हैं। 'अ उ म्' रूप ये तीनों शक्तियाँ जिसमें निवास करती हों, वह परमात्मा 'ओम्' है और 'ओम्'- का वाच्य भी है।
प्रणव जब 'पर' अर्थ का प्रतिपादन करता है, तब उसमें 'अ और उम्' ये दो अक्षर माने जाते हैं। इनमें 'अ' कार का अर्थ है— स्थूल चित्-अचित्-विशिष्ट परमात्मा और 'उम्' का अर्थ है- सूक्ष्म चित्-अचित्- विशिष्ट परमात्मा । स्थूल परमात्मा कार्य है तथा सूक्ष्म परमात्मा कारण है। ये दोनों अभिन्न हैं, यह 'ओम्'- का पर अर्थ है।
अर्थरूप 'ओम्'
अर्थरूप 'ओम्' का प्रतिपादन करते हुए 'आञ्जनेय'- का विश्लेषण इस प्रकार है-
इत्थं यथा वाङ्मयोऽयं प्रपञ्चः शाब्द ओमिति । तथैवार्थो वाङ्मयोऽयं प्रपञ्चो वाच्य ओमिति ॥
अर्थात् जैसे वाचक वाड्मय प्रपञ्च शाब्द 'ओम्'है, वैसे ही वाच्य अर्थरूप भी 'ओम्' है। दूसरे शब्दों में वाचक शब्दरूप 'ओम्' और वाच्य अर्थरूप 'ओम्'- ये दोनों 'ओम्' हैं। दोनों का रूप भी अभिन्न है। यथा वाचक 'ओम्' इस एक अक्षर-स्फोट में 'अ उ म्'– ये तीनों वर्ण स्फोट के अन्तर्गत हैं, वैसे ही 'ओम्' शब्द वाच्य अर्थरूप ईश्वर शारीरिक आत्मा आदि में भी तीन-तीन कलाएँ अन्तर्भूत हैं। यह अर्थरूप 'ओम्' त्रिविक्रम विष्णु-शरीर के जीवात्मा आदि अनेक हैं।
अर्थरूप त्रिविक्रम विष्णुरूप 'ओम्' में 'प्रणव'- की तीन मात्राओं का संनिवेश इस प्रकार है-अ-द्यौः, उ— अन्तरिक्ष, म्— पृथिवी, अर्धमात्रा - विष्णु। सब मिलकर विष्णुरूप 'ॐ' हैं। अर्थरूप 'वेद'रूप 'ओम्' में प्रणव की तीन कलाओं का संनिवेश इस प्रकार है- अ- ऋग्वेद, उ- - यजुर्वेद, म्— सामवेद, अर्धमात्रा- अथर्ववेद। सब मिलकर वेदरूप 'ॐ' है।
अध्यात्म में शारीरिक जीवात्मारूप 'ओम्' में तीन कलाओं का संनिवेश इस प्रकार है-अ-स्थूल देह, उ- सूक्ष्म देह, म्— कारण मनोमय देह, अर्धमात्रा- जीव। सबको मिलाकर अर्थरूप जीवात्मा 'ॐ' है। अन्त में महामहिम 'प्रणव', उसके विज्ञान और उपद्रष्टा आञ्जनेय श्रीहनुमान इन तीनों को पुनः पुनः प्रणाम और कृतज्ञता के लिये उनकी भाव-मूर्ति का ध्यान इस प्रकार चिन्त्य है-—
आञ्जनेयमतिपाटलाननं काञ्चनाद्रिकमनीयविग्रहम् । पारिजाततरुमूलवासिनं भावयामि पवमाननन्दनम् ॥
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