विशिष्टानंद "कौलाचारी "-
Mystic Power - अनेक प्राचीनशास्त्रो के अनुसार ईश्वर का निवास स्थल ह्रदय मे? अनेक मूर्खानन्दों के मस्तिष्क मे जब यह स्पष्ट ही नही हुआ है। तो अपनी विद्वता का प्रदर्शन करते हुए यह लिखा है कि प्राचीनकाल मे आत्मा का निवास स्थल ह्रदय मे माना जाता है। जबकि यूरोपियन विद्वानों ने स्पष्ट कर दिया की आत्मा का निवास स्थल मस्तिष्क मे होता है। अर्थात इनके अनुसार भारतीय ऋषियों का समुदाय इतना बडा अज्ञानी था कि उस पर भौतिकवादी यूरोपियन की वरीयता है।
अब भला कोई इनसे पूछे कि यदि आत्मा का स्थान प्राचीनकाल के भारतीय ऋषि ह्रदय मे मानते थे, तो सहस्त्रार के ब्रह्म बिन्दु का क्या तात्पर्य है? किया आत्मा से भी उच्च कोई शक्ति है? ये इसका उत्तर इसलिए नही दे सकते कि ये मान चुके है कि आत्मा और ब्रह्म मे कोई भेद नही है । उपर्युक्त कथन मे ही इन्होंने ईश्वर को ब्रह्म का पर्याय मानकर उसे आत्मा मान लिया है । आप लोगो को सत्य को समझना होगा।
यह सब मूर्खानन्दो ने जिन्होंने ने पुरा जीवन यूरोप मे प्रवचन के नाम पर अपनी उच्च ज्ञान संस्कृति को तुच्छ करके भौतिकवादी यूरोपियन विद्वानों को वरीयता दी और पुरा जीवन यूरोप मे बिताने व प्रवचन करके भारत मे महापुरुष बने और आज उनके चित्रो पर लोग बडी शान से माला चढा रहे पर वे ये जानने का कभी प्रयास नही करते है ।
कि हमारे अध्यात्म की भारत मे हमारे देश मे हमारे समुदाय को जरूरत थी या विदेशी लोगों को वे भौतिकवादी और हमारी संस्कृति अध्यायत्मवादी पर ऐसे लोगो की वजह से हम भी भौतिकवाद का शिकार होकर अपनी मानसिकता को पूरी तरह बदल कर दिशा हीन हो चुके है।
मुझे अपने इस जीवन मे बहुत कम लोग ऐसे मिले जो वास्तव मे आत्मदर्शी है जिन्हें तत्त्व का ज्ञान था और जैसे सोशल मिडिया पर व मिशन धारी महापुरुष है जो तत्त्व ज्ञान आत्मसाक्षातकार पर प्रवचन देते देते अपना पूरा जीवन व्यतीत करके परलोक गमन कर गये है। श्रीमद्भागवत गीता मे ये कई बार बोला गया की जो मुझे" तत्त्वज्ञान "से जानता है । श्रीमद्भागवत गीता के लगभग पांच हजार विद्वानों ने टीका किया पर इस वाक्य का उत्तर गोल ही रहा है, कुछ आज के महापुरुष कबीर का वर्णन वेदों से जोड रहे है, और अपने को तत्त्वदर्शी होने का दावा कर रहे है ।
वैदिक संस्कृति वैदो से है पर वेदों मे परमात्मा को निराकार स्वरूप से स्वीकार करता है । वेदों मे ईश्वर के लिए नेति नेति ही कहा है। वैदिक धर्म अवतार वाद मानता ही नही है,फिर भी कर्विः को कबीर कहकर कबीर को परमात्मा का अवतार बताकर वैदिक धर्म से जोड दिया है। कबीरदास एक सन्त थे पर आज उनके अवतार भी है। ये हो सकता है। क्योंकि ये समय असत्य अधर्म और मक्कारी का है अगर उन तत्त्वदर्शी एवं आत्मसाक्षात्कारीयों से यह प्रश्न किया जाये कि तत्वज्ञान क्या है और उस पर व्याख्या गोल गोल क्यो होती है । तो वे महापुरुष शायद ही इसका जबाब दे पाये।
यहाँ पर यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि आत्मा एक निर्गुण तत्त्व है। वह समस्त भौतिक गुणो से शुन्य है। वह मूल तत्त्व है ।तत्त्व उसे इसलिए कहा जाता है कि उसे व्यक्त करने के लिए और कोई शब्द उपलब्ध नही है । वह ॐ भी नही है; क्योकि ॐ एक नाद है और नाद गुण ही है, सम्भवतः प्राचीन महा ऋषियों ने उसे तत्त्व इसलिए कहा कि वह वास्तव मे वही है और शेष सब उसी से उत्पन्न मृगमरीचिका है।
जब हम एक इकाई के रूप मे इसका नाम लेते है ,तो यह आत्मा है। और जब सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड और उसके चारों ओर व्याप्त अनन्त तत्त्व सागर को इकाई मानकर पुकारते है, तो यह परमात्मा है चूंकि विश्व की विभिन्न इकाइयां भी धोखा है , इसलिए जो आत्मा है वही परमात्मा है।
परन्तु ईश्वर परमात्मा नही है वह एक सगुण रूप है, इसके लिए उपनिषदों मे कहा गया है कि उस पुरूष ने कामना की कि एक से दो हो जाऊं और आधाशक्ति उत्पन्न हो गयी आधाशक्ति को आश्रय नही मिला तो वह दो भागो मे विभक्त हो गयी। इसी मे एक भाग ईश्वर और दुसरा भाग शक्ति। यह ईश्वर ही विष्णु है इसलिए इसे देवताओं का अग्रज माना है ।यह सगुण रूप है। यह परमात्मा नही है।
इस प्रकार शाक्त व्याख्या के शिव और सदाशिव मे भी भारी अन्तर है, शिव सगुण रूप धारी है और सदाशिव निर्गुण है। ये परमात्मा के ही पर्याय है, एक अन्य भ्रम इसलिए भी उत्पन्न होता है कि हम आत्मा एवं जीवात्मा मे भेद नही कर पाते है। आत्मा परम शुन्य है। अर्थात वह पदार्थ का ऐसा सूक्ष्मतम मूलतत्त्व है, जहाँ समस्त भौतिक गुण अस्तित्व का लोप हो जाता है । परन्तु जीवात्मा का अस्तित्व अनुभूत किया जा सकता है। क्योंकि इसमे मानसिक गुण होते है ।सोम अपान है और सुर्य प्राण प्राण एंव आपान के ऐक्य होने पर मनोलय हो जायेगा और तभी आत्मस्वरूप का अनुसंधान करना चाहिये सोंह मंत्र के द्वारा खण्डन करने पर ही परमात्मा का चिन्तन करना चाहिये
प्राणी की जो स्वभाविक श्वासं चलती है उसे पकडकर जो जप साधना की जाती है वही हैअजपाजप यह जप जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति तीनो कालो मे चलता रहता है
प्रकृति मे व्यष्टि एंव समष्टि दोनो स्तर पर इसका सामान प्रभुत्व एंव प्रभाव परिलक्षित होताहै आदि काल मे ब्रह्मा विष्णु सदाशिव नारद वशिष्ठ प्रह्लाद व ध्रुव इत्यादि ने बुध्द ने अनापानासति नाम से इसकी साधना शिष्यो को करायी निर्गुण परंपरा मे गोरक्षनाथ, कबीर, रैदास, सुन्दरदास, गुरूनानक, चैतन्य महाप्रभू, ने इसी साधना का प्रचार किया वर्तमान काल मे विजयकृष्ण गोस्वामी महात्मा रामठाकुर लोक नाथ नेइस साधना का प्रचार किया गुरूनानकदेव ने राजा शिववाथ को प्रथमतः रामनाम फिर प्रणव पश्चात हंसरूप अजपाजप का उपदेश दिया
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