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31 October 2024
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अरुण कुमार उपाध्याय (धर्मज्ञ)
१. युग परिवर्तन काल-
कलप भेद हरि चरित सुहाये (रामचरितमानस, १/३२/७)
कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं (रामचरितमानस, १/१३९/२)
यह सृष्टि-प्रलय चक्र से सम्बन्धित ब्रह्मा का दिन-रात नहीं है जो १००० युग = ४३२ कोटि वर्ष के हैं। हरि चरित या वर्तमान मानव सभ्यता के ऐतिहासिक युग हैं, जब हरि चरित के कारण युग परिवर्तन हुए।
मत्स्य पुराण में चान्द्र-मास की ३० तिथियों के अनुसार ३० कल्प कहे हैं।
प्रथमः श्वेतकल्पस्तु द्वितीयो नीललोहितः।
वामदेवस्तृतीयस्तु ततो राथन्तरोऽपरः॥३॥
रौरवः पञ्चमः प्रोक्तः षष्ठो देव इति स्मृतः।
सतमोऽथ बृहत्कल्पः कन्दर्पोऽष्टम उच्यते॥४॥
सद्योऽथ नवमः प्रोक्तः ईशानो दशमः स्मृतः।
तम एकादशः प्रोक्तस्तथा सारस्वतः परः॥५॥
त्रयोदश उदानस्तु गारुडोऽथ चरुर्दशः।
कौर्मः पञ्चदशः प्रोक्तः पौर्णमास्यामजायत॥६॥
षोडशो नारसिंहस्तु समानस्तु ततोऽपरः।
आग्नेयोऽष्टादशः प्रोक्तः सोमकल्पस्तथा परः॥७॥
मानवो विंशतिः प्रोक्तस्तत्पुमानिति चापरः।
वैकुण्ठश्चापरस्तद्वल्लक्ष्मीकल्पस्तथा परः॥८॥
चतुर्विंशतितमः प्रोक्तः सावित्रीकल्पसंज्ञकः।
पञ्चविंशस्ततो घोरो वाराहस्तु ततोऽपरः॥९॥
सप्तविंशोऽथ वैराजो गौरीकल्पस्तथापरः।
माहेश्वरस्तु स प्रोक्तस्त्रिपुरं यत्र घातितम्॥१०॥
पितृकल्पस्तथान्ते तु कुहूर्ब्रह्मणः पुरा।
इत्येवं ब्रह्मणो मासः सर्वपातकनाशनः॥११॥
मत्स्य पुराण (२९०/३-११)
ब्रह्मा का कल्प-
शुक्ल पक्ष-१. श्वेत, २. नीललोहित, ३. वामदेव, ४. रथन्तर, ५. रौरव, ६. देव, ७. बृहत्, ८. कन्दर्प, ९. सद्यः, १०. ईशान, ११. तमः, १२. सारस्वत, १३. उदान, १४. गारुड, १५. कौर्म (पूर्णिमा)।
कृष्ण पक्ष-१६. नारसिंह, १७. समान, १८. आग्नेय, १९. सोम, २०. मानव, २१. तत्पुमान्, २२. वैकुण्ठ, २३. लक्ष्मी, २४. सावित्री, २५. घोर, २६. वाराह, २७. वैराज, २८. गौरी, २९. माहेश्वर में त्रिपुर दहन, ३०. पितृ (अमावस्या)
२. कल्प भेद-
प्रथम कल्प को श्वेत कहा गया है। वर्तमान कल्प को श्वेत वाराह कहते हैं, जिसे ब्रह्मा के द्वितीय परार्ध (५० वर्ष पूरा होने के बाद) का प्रथम दिन कहा गया है। इसमें सप्तम वैवस्वत मन्वन्तर चल रहा है।
एक अन्य गणना के अनुसार ब्रह्मा के नवम वर्ष में सप्तम मास चल रहा है। यहां पूर्व प्रसंग का मन्वन्तर ही मास कहा गया है।
काहो मनवो ढ (१४), मनुयुगाः श्ख(७२), तास्ते च (६) मनुयुगाः छ्ना (२७) च।
कल्पादेर्युगपादा ग(३) च, गुरु दिवसाच्च भारतात् पूर्वम्॥
(आर्यभटीय, १/५)
क (ब्रह्मा) के अहः (दिन) में १४ मनु हैं। १ मनु का काल ७२ युग है। गुरु वार से भारत पूर्व तक ६ मनु, २७ युग तथा ३ पाद युग बीत चुके हैं। (आर्यभटीयमें स्वायम्भुव मत के अनुसार हर युग पाद सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि के मान बराबर हैं, ४३,२०,०००/४ = १०,८०,००० वर्ष)
दन्ताब्धयो (४३२)ऽयुत(१०,०००)हता,
युगमर्क मानाच्चन्द्राद्रयो युगगुणा मनुरेक उक्तः।
कल्पश्चतुर्दशमनुर्द्युनिशं च तौ द्वौ कस्य स्वरषशतमत्र सदायुरुक्तम्॥९॥
कजन्मनोऽष्टौ (८) सदलाः (१/२) समाययुस्तथाऽर्धमासो मनवो दिनस्य षट्।
युगत्रिवृन्दं (२७) सदृशाङ्घ्रयस्त्रयः कलेर्नवागैकगुणाः (३१७९) शकावधेः॥१०॥
(वटेश्वर सिद्धान्त, मध्यमाधिकार, १/९-१०)
= युग में ४३,२०,००० वर्ष हैं, ७१ युग का मनु तथा १४ मनु का कल्प है। २ कल्प का ब्रह्मा का अहोरात्र है। ३६० अहोरात्र का १ ब्राह्म वर्ष है। १०० वर्ष ब्रह्माकी आयु है (९)। ब्रह्मा के जन्म के शक वर्ष आरम्भ तक ब्रह्मा के ८+१/२ वर्ष, १/२ मास तथा वर्तमान ब्रह्म दिन में २७+३/४ युग और वर्तमान कलि युगमें ३१७९ वर्ष भीत चुके हैं।
चतुर्युग सहस्रेण दिनं पैतामहं भवेत्।
तेषां त्रिंशद्दिनैर्मासो मासैर्द्वादशभिर्वत्सरो भवेत्॥२०॥
ब्रह्मा तेषां शतं यावत्स जीवति पितामहः।
सांप्रतं चाष्टवर्षीयः षण्मासश्चैव संस्थितः॥२१॥
प्रतिपद्दिवसस्यास्य प्रथमस्य तथा गतम्।
यामद्वयं शुक्रवारे वर्तमाने महात्मनः॥२२॥
(स्कन्द पुराण, नागरखण्ड, अध्याय १९४, अर्थात् ६/१९४/२०-२२)
३. ऐतिहासिक कल्प-
वर्तमान सृष्टि के आरम्भ का ही सटीक पता नहीं है, क्योंकि उस समय देव भी नहीं हुए थे।
नासदीय सूक्त-नासदासीन्नो सदासीत् तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्।
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद् गहनं गभीरम्॥१॥
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत् प्रकेतः।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किं च नास॥२॥
तम आसीत् तमसा गूळ्हमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्व मा इदम्।
तुच्छ्येनाभ्व पिहितं यदासीत् तपसस्तन्महिनाजायतैकम्॥३॥
को अद्धा वेद क इह प्र वोचत् कुत अजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाऽथा को वेद यत आबभूव॥६॥
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन् त्सो अङ्ग यदि वा न वेद॥७॥
(ऋग्वेद, १०/१२९/१-७, तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/८/९/३-९)
इस कल्प में सूर्य से तेज निकलने के साथ सृष्टि का आरम्भ हुआ। अप्-भूमि का मिला जुला रूप वराह था, यह प्रकाशित होने से श्वेत-वराह हुआ। इसके पूर्व ब्रह्माण्ड समूह रूप आदि वराह तथा ब्रह्माण्ड निर्माण पूर्व आदि वराह था।
वराह के ५ स्तर हैं-(१) आदि वराह-विश्व का मूल रूप अर्यमा। (२) यज्ञ वराह-ब्रह्माण्ड का निर्माण-अवस्था। निर्माण विनाश का क्रम यज्ञ अवतार है। (३) श्वेत वराह-सौर मण्डल में सूर्य निर्माण के बाद प्रकाश की उत्पत्ति हुयी अतः यह श्वेत वराह हुआ। (४) जिस क्षेत्र के पदार्थ के घनीभूत होने से पृथ्वी बनी वह भू वराह है, इसका आकार पृथ्वी से प्रायः १००० गुणा है (वायु पुराण ६/१२ के अनुसार यह सूर्य से १०० योजन ऊंचा और १० योजन मोटा है। पृथ्वी सूर्य व्यास की इकाई में १०८-१०९ योजन दूर है अतः यहां योजन का अर्थ सूर्य व्यास है। पृथ्वी का आकार १/१०८ योजन होगा अतः यह वराह का १/११०० भाग होगा। (५) पृथ्वी का आवरण रूप वायुमण्डल ही एमूष वराह है।
ब्रह्मा देवानां पदवीः कवीनामृषिर्विप्राणां महिषो मृगाणाम्।
श्येनो गृधानां स्वधितिर्वनानां सोमः पवित्रमत्येति रेभन्॥ (ऋग्वेद, ९/९६/६)
स यः कूर्मः असौ स आदित्यः । (शतपथ ब्राह्मण, ६/५/१/६)
तां पृथिवीं (परमेष्ठी) संक्लिश्याप्सु प्राविध्यत् तस्यै यः पराङ् रसोऽत्यक्षरत्-स कूर्मोऽभवत्। (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/१/१२)
प्र काव्यमुशनेव ब्रुवाणो देवो देवानां जनिमा विवक्ति।
महिव्रतः शुचिबन्धुः पावकः पदा वराहो अभ्येति रेभन्। (ऋक्, ९/९७/७)
स प्रजापति-वै वराहो रूपं कृत्वा उपन्यमज्जत्। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/१/३/६)
अग्नो ह वै देवा घृतकुम्भं प्रवेशयांचक्रुस्ततो वराहः सम्बभूव। तस्माद् वराहो मेदुरो घृताद्धि सम्भूतः। तस्माद् वराहे गावः संजानते। (शतपथ ब्राह्मण, ५/४/३/१९)
तां प्रादेशमात्रीं (१० अंगुल) पृथिवीं-एमूष इति वराह उज्जघान। सोऽस्याः पृथिव्याः पतिः प्रजापतिः। (शतपथ ब्राह्मण, १४/१/२/११)
अतः मानव इतिहास में भी प्रारम्भ काल को श्वेतवराह कल्प कहा गया है।
४. मन्वन्तर-
ज्योतिषीय मन्वन्तर का अर्थ है ब्रह्माण्ड केन्द्र की सूर्य द्वारा परिक्रमा काल (३०.६८ कोटि वर्ष, = ७१ x ४३२०००० वर्ष)।
ऐतिहासिक मन्वन्तर का अर्थ है, पृथ्वी के अक्ष का शंकु आकार में भ्रमण काल (२६,००० वर्ष)। ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२९/१९) में २६००० वर्षों का युग कहा गया है। उसे ही (१/२/९/३६,३७) में ७१ युगों का मन्वन्तर कहा गया है-
षड्विंशति सहस्राणि वर्षाणि मानुषानि तु। वर्षाणां तु युगं ज्ञेयं … (१/२/९/१९)
तस्यैकसप्तति युगं मन्वन्तरमिहोच्यते। (१/२/९/३७)
मत्स्य पुराण, अध्याय २७३ में भी कहा है कि स्वायम्भुव मनु के ४३ युग बाद वैवस्वत मनु हुये जिनके बाद २८ युग बीत चुके हैं -कलि आरम्भ (३१०२ ईसा पूर्व) तक जब सूत द्वारा पुराणों का प्रणयन हुआ-
अष्टाविंश समाख्याता गता वैवस्वतेऽन्तरे।
एते देवगणैः सार्धं शिष्टा ये तान्निबोधत॥७७॥
चत्वारिंशत् त्रयश्चैव भवितास्ते महात्मनः (स्वायम्भुवः)।
अवशिष्टा युगाख्यास्ते ततो वैवस्वतो ह्ययम् ॥७८॥
ब्रह्माण्ड की तारा संख्या तथा मनुष्य मस्तिष्क के कलिल (लोमगर्त्त) की संख्या-दोनों १ खर्व हैं (शतपथ ब्राह्मण, १२/३/२/५, १०/४/४/२)। अतः ब्रह्माण्ड का तारा समूह भी मन अर्थात् मनु तत्त्व है। इनमें २ प्रकार से चक्र मन्वन्तर हैं-सूर्य द्वारा परिक्रमा काल, पृथ्वी के अक्ष का परिक्रमा काल।
सौर मन्वन्तर में अभी सप्तम चल रहा है, उसके बाद विपरीत क्रम से इसी के जैसे ७ मन्बन्तर होंगे। समानता के कारण उनको सावर्णि कहा है।
ऐतिहासिक मन्वन्तर में सभी सावर्णि मनु ७ मनुओं के ही भाई थे, इस कारण उनको सावर्णि (एक परिवार या गोत्र) कहा है। ये सभी वैवस्वत मनु के पूर्व हो चुके हैं।
विवस्वतस्श्च द्वे जाये विश्वकर्मसुते उभे।
संज्ञा छाया च राजेन्द्र ये प्रागभिहिते तव॥८॥
तृतीयां वडवामेके तासां संज्ञासुतास्त्रयः।
यमो यमी श्राद्धदेवश्छाययाश्च सुताञ्छृणु॥९॥
सावर्णिस्तपती कन्या भार्या संवरणस्य या।
शनैश्चरस्तृतीयोऽभूदश्विनौ वडवात्मजौ॥१०॥
अष्टमेऽन्तर आयाते सावर्णिर्भविता मनुः॥११॥—-
नवमो दक्षसावर्णिर्मनुर्वरुणसम्भवः॥१८॥ —-
दशमो ब्रह्मसावर्णिरुपश्लोकसुतो महान्॥२१॥
मनुर्वै धर्मसावर्णिरेकादशम आत्मवान्॥२४॥
भविता रुद्रसावर्णी राजन्द्वादशमो मनुः॥२७॥
मनुस्त्रयोदशो भाव्यो देवसावर्णिरात्मवान्॥३०॥
मनुर्वा इन्द्रसावर्णिश्चतुर्दशम एष्यति॥३३॥
(भागवत पुराण, स्कन्ध ८, अध्याय १३)
स्वायम्भुव मनु के २६,००० वर्ष बाद ३१०२ ईपू. में कलि आरम्भ हुआ जब वेदव्यास काल पूर्ण हुआ। अतः २९१०२ ईपू में स्वायम्भुव मनु का काल पूर्ण हुआ। उसके १५,२०० वर्ष बाद (४३ युग = ३६० x ४३ = १५, ४८० वर्ष, ४३ वें युग में ८० वर्ष) वैवस्वत मनु का काल आरम्भ हुआ। इस अवधि में दोनों को मिला कर ७ मनु हुए-(१) स्वायम्भुव, (२) स्वारोचिष, (३) उत्तम, (४) तामस, (५) रैवत, (६) चाक्षुष, (७) वैवस्वत। वैवस्वत मनु के बाद १२,००० वर्ष युग गणना में ३ युग खण्ड ३१०२ में पूर्ण हुए (सत्य, ४८००, त्रेता ३६००, द्वापर २४०० वर्ष)। इक्ष्वाकु का काल ८५७६ ईपू कहा गया है। बीच में जल प्रलय, तथा ऋषभदेव का काल था।
५ मन्वन्वर कालों को १५२०० वर्ष में बांटने पर इनके काल प्रायः इस प्रकार हैं-
क्रम मनु सावर्णि मनु काल (ईपू)
१ स्वायम्भुव इन्द्र ३३१०२-२९१०२
२ स्वारोचिष देव २९१०२-२६०६२
३ उत्तम रुद्र २६०६२-२३०२२
४ तामस धर्म २३०२२-१९९८२
५ रैवत ब्रह्म १९९८२-१६९४२
६ चाक्षुष दक्ष १६९४२-१३९०२
७ वैवस्वत मेरु १३९०२-८५७६
५. कल्प रचना-
स्वायम्भुव मनु से कृष्ण द्वैपायन तक २८ व्यास हुए, जिनके काल में वेद संहिताओं तथा पुराणों का संकलन हुआ। वैवस्वत मनु के बाद ३६० वर्ष के ३० युग थे (३६० x ३० = १०,८०० वर्ष)। इनको चान्द्र तिथि के अनुसार गिनने पर ३० कल्प होंगे। किन्तु इस काल में वैवस्वत यम के बाद जल प्रलय हुआ था जिसकी अवधि प्रायः २ युग = ७२० वर्ष थी। अतः २८ युग गिने गये हैं। उससे पूर्व कश्यप तथा स्वायम्भुव मनु के २ मुख्य कल्प थे। कश्यप काल (१७५०० ईपू) के २ मुख्य निर्धारक हैं-
(१) इसके बाद १० युग तक = ३६०० वर्ष असुर प्रभुत्व था, जिसके बाद १३९०२ ईपू में वैवस्वत मनु काल आरम्भ हुआ।
युगाख्या दश सम्पूर्णा देवापाक्रम्यमूर्धनि।
तावन्तमेव कालं वै ब्रह्मा राज्यमभाषत ॥५१॥
दैत्यासुरं ततस्तस्मिन् वर्तमाने शतं समाः॥६२॥
प्रह्लादस्य निदेशे तु येऽसुरानव्यवस्थिताः ॥७०॥
धर्मान्नारायणस्तस्मात्सम्भूतश्चाक्षुषेऽन्तरे॥७१॥
यज्ञं प्रवर्तयामास चैत्ये वैवस्वतेऽन्तरे॥७१॥
(वायु पुराण, अध्याय ९८, मत्स्य पुराण, ४७/२३६-२४५ भी)
(२) कश्यप काल में अदिति थी, जिनके पुनर्वसु नक्षत्र से १७५०० ईपू. में वर्ष आरम्भ होता था जैसा शान्ति पाठ में कहते हैं-अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम् (ऋक्, १/८९/१०, वाज यजु, २५/२३) = पुराने वर्ष से अदिति जन्म हुआ उससे नया वर्ष आरम्भ हुआ।
स्वायम्भुव मनु तथा कश्यप काल बहुत बड़ा था। उसमें सावर्णि मन्वन्तरों के विभाग अनुसार ५ कल्प होंगे, अतः वायु पुराण अध्याय २१ के २८ कल्पों के बाद अगले अध्याय में ५ कल्प और लिखे हैं।
मत्स्य पुराण का श्वेत कल्प स्वायम्भुव मनु का था। उसके बाद कार्त्तिकेय से कुछ पूर्व प्रायः १६,००० ईपू में कूर्म अवतार था जिसे कूर्म कल्प कहा है। इसके बाद वैवस्वत मनु के पूर्व त्रिपुर दाह हुआ था जिसे महेश्वर कल्प कहा है। तमः कल्प तामस मनु काल है।
२८ व्यास का काल ब्रह्माण्ड (१/२/३५), वायु (९८/७१-९१), कूर्म (१/५२), विष्णु (३/३), लिङ्ग (१/७/११, १/२४), शिव (३/४), देवीभागवत (१/२, ३) आदि पुराणों के अनुसार है-
१. स्वायम्भुव मनु (ब्रह्मा)-(२९१०२-१७५०० ई.पू.)-इसी काल में स्वारोचिष, उत्तम तामस, रैवत भी हुये।
२. कश्यप (ब्रह्मसावर्णि मनु)-(१७५००-१६०५० ई.पू.)-चाक्षुष तथा अन्य सावर्णि मनु का काल।
३. उशना काव्य या शुक्राचार्य (१६०५०-१५,३३० ई.पू.)-भृगु पुत्र। भृगु-अङ्गिरा द्वारा अथर्व वेद। असुर, दैत्यों, दानवों के गुरु। राजनीति, धनुर्वेद, आयुर्वेद, पुराणों का प्रणयन।
४. बृहस्पति (१५३३०-१४६१० ई.पू.)-वेदों का पूर्ण रूप। पद क्रम का व्याकरण जो अभी भी चीन में प्रचलित है-प्रति शब्द का अलग चिह्न, शब्द-पारायण।
५. विवस्वान् (सविता)-१४६१०-१३९०० ई.पू.)-सूर्य सिद्धान्त का निर्माण। वेदों का आदित्य सम्प्रदाय। यम, मनु के अतिरिक्त अश्विनी कुमार भी इनकी सन्तान थे। शुक्रपुत्र त्वष्टा के पुत्र विश्वकर्मा के गुरु। वैवस्वत मनु के बाद सत्य, त्रेता, द्वापर की समाप्ति ३१०२ (प्रायः ३१००) ई.पू. में हुई-१३९०० – (४८०० + ३६०० + २४००) = ३१००।
६. वैवस्वत यम (१३९००-१२४६० ई.पू.)-जेन्द-अवेस्ता (छन्दो-भ्यस्ता) के अहुर-मज्दा (असुर महादेव) । इस काल में जल-प्रलय हुआ था। इनके बाद इनके अनुज वैवस्वत मनु का काल था। यह श्राद्धदेव कहे जाते हैं, अर्थात् मृत्यु का रहस्य समझाया था (कठोपनिषद्)। इनका स्थान इन्द्र की नगरी अमरावती से ९०० पश्चिम संयमनी थी, जिनसे मृत-सागर, यमन, अम्मान, संयमनी (यमन की राजधानी सना) आदि हैं।
७. इन्द्र शतक्रतु (१२४६०-११७४०)-१०० क्रतु अर्थात् यज्ञ का अर्थ है १०० वर्ष का कर्ममय जीवन-कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः (ईशावास्योपनिषद्)। संवत्सर क्रम में यज्ञ होते हैं अतः यज्ञ को सम्वत्सर, इन्द्र कहा गया है-सम्वत्सरो वै यज्ञः (शतपथ ब्राह्मण ११/१/१/१ आदि), संवत्सरो वा इन्द्र शुनासीरः (तैत्तिरीयब्राह्मण)। प्रायः १० युग अर्थात् ३६०० वर्षों तक इन्द्र का प्रभुत्व रहा, जिस काल में १४ मुख्य इन्द्र थे जिन्होंने प्रायः १००-१०० वर्ष शासन किया, अतः १४ अर्थ में इन्द्र शब्द है। १४ इन्द्रों की सूची गरुड़ पुराण (१/१४), नारद (१/४०/१३), भविष्य (१/१२५/२४), भागवत (८/५), विष्णु (३/१-२), विष्णुधर्मोत्तर (१/१७५), शिव (५/३४/१२), देवीभागवत (१.३.३१) में है- शचीपति शक्र, विपश्चित्, सुशान्ति, शिवि, विभु, मनोजव, पुरन्दर, बलि, अद्भुत्, शान्ति, वृष, ऋतुधामा (ऋभु), दिवस्पति, शुचि (विष्णु, नारद पुराण) । एक इन्द्र ने मरुत् की सहायता से ४९ वर्णों की देवनागरी लिपि प्रचलित की, जो आज भी पूर्व (इन्द्र क्षेत्र) से पश्चिमोत्तर (वायु) भारत में प्रचलित है। ऐन्द्र-वायव व्याकरण की परम्परा में अन्तिम पाणिनि का है। चरक संहिता के अनुसार इन्द्र ने ऋषियों को आर्युर्वेद का ज्ञान दिया जो भरद्वाज द्वारा फैला। वेद में वैकुण्ठ इन्द्र काल के बहुत से सूक्त हैं।
८. वसिष्ठ (११७४०-११०२० ई.पू.)-मित्र (सूर्य) तथा वरुण (अहुर मज्दा) दोनों के पुत्र-दोनों परम्पराओं का समन्वय। ऋग्वेद का ८म मण्डल।
९. अपान्तरतमा (११०२०-१०३०० ई.पू.) या सारस्वत-दध्यङ् अथर्वण तथा सरस्वती अलम्बुषा के पुत्र। सम्भवतः जल-प्रलय के बाद वेदों का उद्धार। गौतमी (गोदावरी) तट पर जन्म, हरिण द्वीप (मगाडास्कर) में तप।
१०. त्रिधामा (१०३००-९५८० ई.पू.) या मार्कण्डेय (?)-दत्तात्रेय द्वारा योग-तन्त्र तथा मार्कण्डेय द्वारा पुराण प्रणयन।
११. ऋषभ (९५८०-८८६० ई.पू.) -कुछ पुराणों के मत से शरद्वान् आङ्गिरस या गौतम इस युग के व्यास थे। प्रथम जैन तीर्थङ्कर तथा संन्यास मार्ग के प्रवर्तक। द्विजातियों के लिये ३ प्रकार के यज्ञोपवीत (जैन शास्त्र)। वृषभ देव के रूप में मनुष्य रूपी महादेव, या वामदेव जो स्वयं यज्ञोपवीत पहनते हैं।
१२. अत्रि (८८६०-८५०० ई.पू.)-भौम अत्रि ने सूर्य ग्रहण गणना के लिये तुरीय यन्त्र (दूरदर्शन यन्त्र) का प्रयोग किया (ऋग्वेद १/५१, ११२) तथा इनको ज्योतिष के १८ आचार्यों में गिना जाता है। सांख्य अत्रि पश्चिमोत्तर दिशा में गये जहां साख्य तत्त्वों (२५) के समान अक्षरों की लिपि प्रचलित हुयी, यह गायत्री छन्द के अक्षरों के समान है (१ अधिक) अतः गायत्री को सांख्यायन गोत्र का कहा गया है। आयुर्वेद के भी आचार्य।
१३. धर्म या नर-नारायण (८५००-८१४० ई.पू.)-बदरीनाथ (बदरिकाश्रम) में वेदों का उपदेश। सम्भवतः शंकराचार्य की गुरु-परम्परा का आरम्भ करने वाले यही नारायण हैं। काण्व मेधातिथि ऋषि, दुष्यन्त तथा उनके पुत्र भरत का काल।
१४. सुरक्षण या सुचक्षु (८१४०-७७८० ई.पू.)-राजा मरुत्त, अविक्षित, करन्धम तथा ऋषि गौतम, वामदेव आदि का काल।
१५. त्र्यारुण (७७८०-७४२० ई.पू.)-इक्ष्वाकु वंशी राजा मान्धाता तथा गान्धार नरेश अङ्गार का काल।
१६. धनञ्जय (७४२०-७०६० ई.पू.)
१७. कृतञ्जय (७०६०-६७०० ई.पू.)
१८. ऋतञ्जय (६७००-६३४० ई.पू.)-ऋषि भरद्वाज इन ३ के समकालीन थे तथा इस काल में दाशराज युद्ध हुआ था (प्रायः ७२०० ई.पू. में) । गयासुर या असितधन्वा (मेगास्थनीज मत से डायोनिसस या बाकस) द्वारा भारत पर आक्रमण (६७७७ ई.पू. में) ।
१९. भरद्वाज (६३४०-५९८० ई.पू.)-सम्राट् चायमान तथा काशीराज दिवोदास दोनों के पुरोहित। परशुराम काल (६२९७-६१७७ ई.पू.)
२०. गौतम (५९८०-५६२० ई.पू.)-गोदावरी या गौतमी तट। जमदग्नि, हरिश्चन्द्र, परशुराम, कार्तवीर्य अर्जुन का काल। न्याय दर्शन सूत्र।
२१. वाचस्पति (५६२०-५२६० ई.पू.) या निर्यन्तर-राजा सगर के द्वारा यवन बहिष्कृत, सागरों पर प्रभुत्व, उनके प्रपौत्र भगीरथ द्वारा गंगा अवतरण (हिमालय की एक हिमनदी को पूर्व दिशा में मोड़ना)।
२२. सुकल्याण या सोमषुष्ण (५२६०-४९०० ई.पू.)-पुलस्त्य तथा विश्रवा ऋषि।
२३. तृणविन्दु (४९००-४५४० ई.पू.)-सम्राट्। इनके जामाता पुलस्त्य के जामाता रावण तथा कुबेर।
२४. वाल्मीकि (४५४०-४१८० ई.पू.)-दशरथ पुत्र राम (४४३३-४३६२ ई.पू.), रावण, हनुमान् आदि का काल।
२५ शक्ति वासिष्ठ (४१८०-३८२० ई.पू.)-वेद पाठ विधि।
२६-जातूकर्ण्य (३८२०-३४६० ई.पू.)-पराशर शिष्य, किन्तु उनसे पूर्व। कणाद।
२७. पराशर (३४६०-३१०० ई.पू.)-विष्णु पुराण का प्रणयन, १०० कोटि श्लोकों के पुराण का ४ लाख श्लोकों के १८ पुराणों में विभाजन। होरा शास्त्र।
२८. वेद व्यास (३१०० ई.पू. से अभी तक)-सत्यवती (बाद में पुरुवंशी राजा शान्तनु की पत्नी) द्वारा पराशर पुत्र कृष्ण द्वैपायन। भागवत पुराण, ब्रह्मसूत्र प्रणयन, पातञ्जल योग सूत्र की व्याख्या, वेदों का शाखा विभाजन। इनके बाद और कोई व्यास नहीं हुआ, अतः अभी भी कलि या २८ वां युग विभाग मानते हैं।