कालसर्पयोग

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  • ज्योतिष विज्ञान
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  • 31 October 2024
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श्री शशांक शेखर शुल्ब (धर्मज्ञ )- Mystic Power -  विविध धर्मग्रन्थों एवं शास्त्रों में सर्पदोषों का वर्णन मिलता है। वर्तमान में प्राचीन एवं नवीन दैवज्ञों के मध्य कालसर्प योग के विषय में मन्त्रणा प्रारम्भ हो चुकी है। यदि हम प्राचीन ग्रन्थ मानसागरी, बृहज्जातक तथा बृहत्पाराशर होराशास्त्रका अवलोकन करें तो यह सिद्ध हो जाता है कि इन ग्रन्थोंमें कालसर्पयोग अथवा सर्पयोगका उल्लेख किया गया है। भारतीय संस्कृति में नागों का विशेष महत्त्व है। प्राचीन काल से ही नागपूजा की जाती रही है। नागपंचमी का पर्व पूरे देश में पूर्ण श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। इस दिन प्रत्येक गृहस्थ घर के प्रवेशद्वार पर नाग की आकृति बनाकर पूजन करता है। इस दिन नागदर्शन को अत्यन्त शुभ माना जाता है। इन्हें शक्ति एवं सूर्य का अवतार माना गया है। मानव- सभ्यता के प्रारम्भ से ही नागों के प्रति विशेष भय की भावना रही है। भारत के प्रत्येक क्षेत्र में भगवान् आशुतोष के पूजन का विधान होता है। नाग भगवान् शिव के गले का हार है। सप्ताह के सात दिनों के नाम किसी-न-किसी ग्रह के ऊपर रखे गये हैं, किंतु राहु-केतु के आधार पर कोई नाम नहीं रखा गया; क्योंकि इन्हें छायाग्रह माना जाता है इसलिये इनका प्रभाव भी परोक्ष रूप से पड़ता है। राहु का स्वभाव शनिवत् एवं केतु  का मंगलवत् माना जाता है । एक शरीर के दो भागों में राहु को सिर एवं केतु को धड़ मानने पर सिर में विचार-शक्ति होती है, किंतु शरीर न होने पर यह स्वयं क्रिया करने में असमर्थ होता है। राहु जिस भाव में होता है उसके भावेश, उस भाव में स्थित ग्रह या जहाँ दृष्टि डालता है उस राशि एवं भावेश उस भाव में स्थित ग्रह को अपनी विचारशक्ति से प्रभावित कर क्रिया करने को प्रेरित करता है। केतु जिस भाव में बैठता है उस राशि, उसके भावेश, केतु पर दृष्टिपात करने वाले ग्रहके प्रभावमें क्रिया करता है। केतु को मंगल के समान मान लेने पर उसका प्रभाव मंगल के समान विध्वंसकारी हो जाता है। अपनी महादशा एवं अन्तर्दशा में व्यक्ति की बुद्धि को भ्रमितकर सुख-समृद्धि का ह्रास करता है राहु की महादशा बाधा कारक होती है। यहाँ विचारणीय यह है कि राहु सम्बन्धित ग्रह के माध्यम से अपना कार्य कराता है एवं केतु सम्बन्धित ग्रह के प्रभाव में आकर उस ग्रह के अनुसार कार्य करता है। राहु के सम्बन्ध में एक बात अवश्य विचारणीय है कि राहु जिस ग्रह के सम्पर्क में हो, उसके अंश राहु से कम होने पर राहु प्रभावी रहेगा, जबकि राहु के अंश कम होने पर उस ग्रह का प्रभाव अधिक होगा एवं राहु निस्तेज हो जायगा, उस स्थिति में कालसर्पयोग का प्रभाव न्यूनतम रहेगा। कालसर्पयोग राहु केतु एवं केतु से राहु की ओर बनता है। यहाँ विचारणीय यह है कि राहु से केतु की ओर बने योग का ही प्रभाव होता है, जबकि केतु से राहुकी ओर बननेवाला योग निष्प्रभावी होता है। यह कहना उपयुक्त होता है। कि केतु से राहु की ओर बनने वाले योग को कालसर्पकी संज्ञा देना उपयुक्त नहीं होगा । वैज्ञानिक रूप से यदि कालसर्पयोग की व्याख्या करें तो जन्मांग -चक्र में राहु-केतुकी स्थिति हमेशा आमने-सामनेकी ही होती है। जब अन्य सभी ग्रह इनके मध्य अर्थात् प्रभावक्षेत्रमें आ जाते हैं, तब वे अपना प्रभाव त्यागकर राहु- केतुके चुम्बकीय क्षेत्रसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते एवं राहु-केतुके गुण-दोषोंका प्रभाव पड़ना अवश्यम्भावी हो जाता है। राहु-केतु हमेशा वक्रगतिसे चलते हैं। इनमें वाम गोलार्ध एवं दक्षिण गोलार्ध दो स्थितियाँ बनती हैं। राहुका बायाँ भाग काल कहलाता है। इसीलिये राहु केतुकी ओर बननेवाला योग ही कालसर्पयोगकी श्रेणी में आता है। केतुसे राहुकी ओर बननेवाले योगको अनेक दैवज्ञोंद्वारा कालसर्पयोग नहीं कहा जाता। इतना अवश्य है कि कालसर्पयोगका निर्माण किसी-न-किसी पूर्वजन्मकृत दोष अथवा पितृदोष के कारण बनता है। उदित गोलार्ध कालसर्पयोग जन्मसे ही प्रभावी हो जाता है, जबकि अनुदितका प्रभाव गोचर में ग्रहके राहुके प्रभावमें आनेपर होता है। अतः उदितका प्रभाव अधिक भयावह होता देखा गया है। किसी जन्मांग में कालसर्पयोगका निर्धारण अत्यन्त सावधानीसे करना चाहिये। केवल राहु-केतुके मध्य ग्रहोंका होना ही पर्याप्त नहीं है। यहाँ अनेक ऐसे बिन्दु हैं, जिनका ध्यान न रखें तो हमारी दिशा एवं जातककी दशा खराब होनेमें अधिक समय नहीं लगेगा। सर्वप्रथम यह देखें कि कालसर्पयोग किस भावसे किस भावतक है एवं ग्रहका भाव क्या है। उस भावमें ग्रहकी क्या स्थिति बन रही है। ग्रहोंकी युतिका क्या प्रभाव पड़ रहा है। यदि राहुके साथ किसी अन्य ग्रहकी युति है तो यहाँ यह भी देखना है कि युतिवाले ग्रहका बल राहुसे कम है या अधिक। ऐसी स्थिति है तो राहुका न केवल प्रभाव कम होगा, अपितु कालसर्पयोग भंग भी हो सकता है। यही स्थिति किसी ग्रहके राहु-केतुकी पकड़से बाहर निकलनेपर हो सकता है। अतः कालसर्पका निर्धारण सतही स्तरके विश्लेषणपर करना जातकके लिये अत्यन्त ही दुःखदायी हो सकता है। यहाँपर एक बात और कहनेयोग्य है कि कालसर्प हमेशा कष्टकारक ही नहीं होते। कभी-कभी तो ये इतने अधिक अनुकूल होते हैं कि व्यक्तिको विश्वस्तरपर न केवल प्रसिद्ध बनाते हैं अपितु सम्पत्ति, वैभव, नाम, प्रसिद्धिके देनेवाले भी बन जाते हैं। आप विश्वके महापुरुषोंके जन्मांगों का अध्ययन करें तो पायेंगे कि उनकी कुण्डलीमें कालसर्पयोग होनेके बाद भी वे प्रसिद्धिके शिखरपर पहुँचे। इतना आवश्यक है कि उनके जीवनका कोई-न-कोई पक्ष ऐसा अवश्य रहा है। जो अपूर्णताका प्रतीक बन गया हो। कालसर्पयोगसे डरने या भयाक्रान्त होनेकी आवश्यकता बिलकुल भी नहीं है। जन्मकुण्डलीमें अनेक शुभ योग जैसे पंचमहापुरुषयोग, बुधादित्य योग आदि बनते हैं, जिनके कारण कालसर्पयोगका प्रभाव अत्यधिक न होकर अल्पकालिक होता है। यदि आप विश्वके सफलतम व्यक्तियोंका अध्ययन करें तो निश्चित ही यह पायेंगे कि उनकी कुण्डलीके कालसर्पयोगने ही उन्हें इस उच्चतम ऊँचाईपर पहुँचाया। किसी जातककी कुण्डलीमें कालसर्पयोग है तो यह मानकर चलिये कि परिवारके अन्य सदस्योंके जन्मांग में भी यह योग देखनेको मिलेगा; क्योंकि यह अनुबन्धित ऋण है, जो हमें पूर्वजोंसे मिलता है एवं इससे परिवारके सभी सदस्य किसी-न-किसी रूपमें प्रभावित होते हैं। इसे ही पितृदोषका नाम दिया जाता है। कभी-कभी ऐसा देखा गया है कि देवजद्वारा व्यक्ति इतना डरा दिया गया कि वह ठीक ढंगसे सोने भी नहीं पाता, जबकि कुण्डलीमें कालसर्पयोग था ही नहीं या आंशिक प्रभाव पड़ रहा था, जिसका सहज निदान किया जा सकता था। अतः कालसर्पयोगका निर्णय किसी योग्य देवजसे कराकर उसका निदान करा लेना चाहिये। आज समाजमें ऐसे भी व्यक्ति हैं, जो निर्लिप्त भावसे बिना प्रलोभनके ज्योतिषकी सेवा कर रहे हैं। ज्योतिषकी दूकानदारीवाले दैवज्ञसे बचनेका प्रयास करना चाहिये। कालसर्पयोगके प्रकार ज्योतिषमें १२ राशियाँ हैं। इनके आधारपर १२ लग्न होते हैं और इनके विविध योगोंक आधारपर कुल २८८ प्रकारके कालसर्पयोग निर्मित हो सकते हैं। प्रमुख रूपसे भावके आधारपर कालसर्पयोग १२ प्रकारके होते हैं, जिनके नाम एवं प्रभाव निम्नानुसार हैं- १- अनन्त कालसर्पयोग- लग्नसे सप्तम भावतक बननेवाले इस योगको अनन्त कालसर्पयोग कहा जाता है। इस योगके कारण जातकको मानसिक अशान्ति, जीवनकी अस्थिरता, कपटबुद्धि, प्रतिष्ठाहानि, वैवाहिक जीवनका दुःखमय होना इत्यादि प्रभाव देखनेको मिलते हैं। जातकको आगे बढ़नेके लिये काफी संघर्ष करना पड़ता है। ऐसा व्यक्ति निरन्तर मानसिक रूपसे अशान्त रहता है। २- कुलिक कालसर्पयोग द्वितीय स्थान से अष्टम - स्थानतक पड़नेवाले इस योगके कारण जातकका स्वास्थ्य प्रभावित होता है। जीवनमें आर्थिक पक्षको लेकर अत्यन्त संघर्ष करना पड़ता है। जातक कर्कश वाणी से युक्त होता है, जिसके कारण कलहकी स्थिति तो निर्मित होती ही है, साथ ही यह पारिवारिक विरोध एवं अपयशका भागी भी बनता है। योगकी तीव्रताके कारण विवाहमें विलम्बके साथ विच्छेदतक भी हो सकता है। ३- वासुकि कालसर्पयोग- यह योग तृतीयसे नवमतक बनता है। पारिवारिक विरोध, भाई-बहनोंसे मनमुटाव, ,मित्रोंसे धोखा, भाग्यको प्रतिकूलता, व्यवसाय या नौकरीमें रुकावटें, धर्मके प्रति नास्तिकता, कानूनी रुकावटें आदि बातें देखनेको मिलती हैं। जातक धन अवश्य कमाता है, किंतु कोई-न-कोई बदनामी उसके साथ जुड़ी ही रहती है। उसे यश, पद, प्रतिष्ठा पानेके लिये संघर्ष करना ही पड़ता है। ४-शंखपाल कालसर्पयोग – यह योग चतुर्थसे दशम भावमें निर्मित होता है। इसके प्रभावसे व्यवसाय, नौकरी, विद्याध्ययन इत्यादि पक्षोंमें रुकावटें आती हैं। घाटेका सामना करना पड़ता है। वाहन एवं भृत्यों तथा कर्मचारियोंको लेकर कोई-न-कोई समस्या हमेशा आती है। आर्थिक स्थिति इतनी अधिक खराब हो जाती है कि दिवालिया होनेतककी परिस्थितियाँ आ सकती हैं। ५- पद्म कालसर्पयोग — पंचमसे एकादश भावमें राहु-केतु होनेसे यह योग होता है। इसके कारण सन्तानसुखमें कमी या सन्तानका दूर रहना अथवा विच्छेद तथा गुप्तरोगोंसे जूझना पड़ता है। असाध्यरोग हो सकते हैं, जिनकी चिकित्सामें अत्यधिक धनका अपव्यय होता है। दुर्घटना एवं हाथोंमें तकलीफ हो सकती है। मित्रों एवं पत्नीसे विश्वासघात मिलता है। यदि सट्टा, लाटरी, जुआको लत हो तो इसमें सर्वस्व स्वाहा होनेमें देर नहीं लगती। शिक्षाप्राप्तिमें अनेक अवरोध आते हैं। जातककी शिक्षा भी अपूर्ण रह सकती है। जिस व्यक्तिपर सर्वाधिक विश्वास करेंगे, उसीसे धोखा मिलता है। सुखमें प्रयत्न करनेपर भी इच्छित फलकी प्राप्ति नहीं हो पाती। संघर्षपूर्ण जीवन बीतता है। ६-महापद्म कालसर्पयोग — छह से बारह भावके इस योग में पत्नी - विछोह, चरित्रकी गिरावट, शत्रुओंसे निरन्तर पराभव आदि बातें होती हैं। यात्राओंकी अधिकता रहती है। आत्मबलकी गिरावट देखनेको मिल जाती है। प्रयत्न करनेपर भी बीमारीसे छुटकारा नहीं मिलता। गुप्त शत्रु निरन्तर षड्यन्त्र करते ही रहते हैं। ७- तक्षक कालसर्पयोग- सप्तमसे लग्नतक यह योग होता है। इसमें सर्वाधिक प्रभाव वैवाहिक जीवन एवं सम्पत्तिके स्थायित्वपर पड़ता है। जातकको शत्रुओंसे हमेशा हानि मिलती है और असाध्य रोगोंसे जूझना पड़ता है। पदोन्नतिमें निरन्तर अवरोध आते हैं। मानसिक परेशानीका कोई-न-कोई कारण उपस्थित होता रहता है। ८- कर्कोटक कालसर्पयोग - अष्टम भावसे द्वितीय भावतक कर्कोटकयोग होता है। जातक रोग और दुर्घटनासे कष्ट उठाता है, ऊपरी बाधाएँ भी आती है अर्थहानि, व्यापारमें नुकसान नौकरी में परेशानी, अधिकारियोंसे मनमुटाव, पदावनति, मित्रोंसे हानि एवं साझेदारीमें धोखा मिलता है रोगोंकी अधिकता, शल्यक्रिया, जहरका प्रकोप एवं अकाल मृत्यु आदि योग बनते हैं। ९- शंखनाद / शंखचूड़ कालसर्पयोग - यह योग नवमसे तृतीय भावतक निर्मित होता है। यह योग भाग्यको दूषित करता है। व्यापारमें हानि एवं पारिवारिक तथा अधिकारियोंसे मनमुटाव कराता है, फलतः शासनसे कार्योंमें अवरोध होते हैं। जातकके सुखमें कमी देखनेको मिलती है। १०- पातक कालसर्पयोग – दशमसे चतुर्थ भावतक यह योग होता है। दशम भावसे व्यवसायकी जानकारी मिलती है। सन्तानपक्षको बीमारी भी होती है। दशम एवं चतुर्थसे माता-पिताका अध्ययन किया जाता है, अतः माता-पिता, दादा-दादीका वियोग राहुकी महादशा / अन्तर्दशामें सम्भाव्य है। ११- विषाक्त / विषधर कालसर्पयोग- राहु-केतुके एकादश पंचममें स्थित होनेपर इस योगसे नेत्रपीड़ा, हृदयरोग, बन्धुविरोध, अनिद्रारोग आदि स्थितियाँ बनती हैं। जातकको जन्मस्थानसे दूर रहनेको बाध्य होना पड़ता है। किसी लम्बी बीमारीको सम्भावना रहती है। १२- शेषनाग काल सर्प योग-  द्वादशसे षष्ठ भावके इस योगमें जातकके गुप्त शत्रुओंकी अधिकता तो होती ही है साथ ही वे जातकको निरन्तर नुकसान भी पहुँचाते रहते हैं। जिन्दगीमें बदनामी अधिक होती है। नेत्रकी शल्यक्रिया करवानी पड़ सकती है। कोर्ट-कचहरीके मामलोंमें पराजय मिलती है।   कालसर्प योग के लक्षण... कालसर्प योग से जो जातक प्रभावित होते हैं, उन्हें प्रायः स्वप्न में सर्प दिखायी देते हैं। जातक अपने कार्यों में अथक परिश्रम करने के बावजूद आशातीत सफलता प्राप्त नहीं कर पाता। हमेशा मानसिक तनाव से ग्रस्त रहता है, जिसके कारण सही निर्णय लेने में असमर्थ रहता हैं। अकारण लोगों से शत्रुता मिलती है। गुप्त शत्रु सक्रिय रहते हैं, जो कार्यों में अवरोध पैदा करते हैं। पारिवारिक जीवन कलहपूर्ण हो जाता है। विवाह में विलम्ब या वैवाहिक जीवन में तनाव के साथ विच्छेद तक की स्थितियाँ निर्मित हो जाती हैं। सर्वाधिक अनिष्टकारी समय- जातक के जीवनमें सर्वाधिक अनिष्टकारी समय निम्न अवस्था में होता है- १- राहु की महादशा, राहु की प्रत्यन्तर दशा में अथवा शनि, सूर्य तथा मंगल की अन्तर्दशा में । २- जीवन के मध्यकाल लगभग ४० से ४५ वर्षकी आयु में । ३-ग्रह-गोचर में कुण्डली में जब-जब कालसर्पयोग बनता हो। उपर्युक्त अवस्थाओंमें कालसर्पयोग सर्वाधिक प्रभावकारी होता है एवं जातक को इस समय शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक, व्यावसायिक इत्यादि क्षेत्रमें कठिनाईका सामना करना पड़ता है।    कालसर्पयोग शान्तिके कुछ स्थान १-कालहस्ती शिवमन्दिर, तिरुपति । २- त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग, नासिक। ३- त्रिवेणी संगम, प्रयागराज । ४- त्रियुगी नारायण मन्दिर, केदारनाथ । ५- त्रिनागेश्वर मन्दिर, जिला तंजौर । ६- सिद्धशक्तिपीठ, कालीपीठ, कलकत्ता । ७-भूतेश्वर महादेवमन्दिर नीमतल्लाघाट, कलकत्ता । ८-गरुड़-गोविन्द मन्दिर छटीकारा गाँव एवं गरुड़ेश्वरमन्दिर बडोदरा। ९- नागमन्दिर, जैतगाँव, मथुरा। १०- चामुण्डादेवी मन्दिर, हिमाचलप्रदेश। ११- मनसादेवी मन्दिर, चण्डीगढ़। १२- नागमन्दिर ग्वारीघाट, जबलपुर। १३ - महाकालमन्दिर, उज्जैन । कालसर्पयोग की शान्ति किसी पवित्र नदी तट, नदीसंगम, नदीकिनारे के श्मशान, नदी किनारे स्थित शिवमन्दिर अथवा किसी भी नागमन्दिर में की जाती है। कभी-कभी देख नेमें आता है कि अनेक दैवज्ञ यजमान के घरों (निवास) में ही कालसर्पयोगकी शान्ति करवा देते हैं। ऐसा ठीक नहीं प्रतीत होता। रुद्राभिषेक तो घर में किया जा सकता है, किंतु कालसर्पयोग की शान्ति निवासस्थल में नहीं करनी चाहिये।   राहुकृत पीड़ाके उपाय... यदि जन्मांग में राहु अशुभ स्थिति में हो तो उससे बचने के लिये कस्तूरी, तारपीन, गजदन्त भस्म, लोबान एवं चन्दन का इत्र जल में मिलाकर स्नान करने से राहु की पीड़ा से शान्ति मिलती है। इसके लिये नक्षत्र, योग, दिन, दिशा एवं समय का विशेष ध्यान रखना चाहिये। ऐसे जातकों को गोमेद का दान करना चाहिये।   राहु के दान...  राहु की पीड़ा के निवारण हेतु जातकों को निम्न वस्तुओं का दान बुधवार या शनिवार के दिन करना चाहिये- १- सरसों का तेल, २- सीसा, ३- काला तिल, ४- कम्बल, ५-तलवार, ६ स्वर्ण, ७-नीला वस्त्र, ८- सूप, ९- गोमेद, १०- काले रंगका पुष्प, ११- अभ्रक, १२- दक्षिणा । उपर्युक्त वस्तुओंका दान किसी शनि का दान लेने वाले को दें अथवा किसी शिवमन्दिर में रात्रिकाल में बुधवार या शनिवारको छोड़ दें।   काल सर्प योग शान्ति के उपाय... १- कालसर्पयोगका सर्वमान्य शान्ति उपाय रुद्राभिषेक है। श्रावणमास में अवश्य नियमित करें। २- बहते जल में विधानसहित पूजनकर दूध से पूरित कर चाँदी के नाग-नागिन के जोड़े को प्रवाहित करें। ३- तीर्थराज प्रयाग में तर्पण एवं श्राद्धकर्म सम्पन्न करें। ४- कालसर्पयोग में राहु की शान्ति का उपाय रात्रि के समय किया जाय। राहु के सभी पूजन शिवमन्दिर में रात्रि के समय या राहुकाल में करें। ५- राहु के हवन हेतु दूर्वा का उपयोग आवश्यक है। राहु के पूजन में धूप एवं अगरबत्ती का उपयोग न करें। इसके स्थान पर कपूर, चन्दन का इत्र उपयोग करें। ६- शिवलिंग पर मिसरी एवं दूध अर्पित करें। शिवताण्डवस्तोत्र का नियमित पाठ करें। ७-घर के पूजास्थल में भगवान् श्रीकृष्ण  की मोरपंखयुक्त मूर्ति का नियमित पूजन करें। ८- पंचाक्षरमन्त्र का नियमित जप करें। नियमित मूलीदान एवं बहते जल में कोयले प्रवाहित करते रहने से स्थायी शान्ति प्राप्त होती है। ९-मसूर की दाल एवं कुछ पैसे सफाई कर्मचारी को प्रातःकाल दें। १० - निम्न नवनाग स्तोत्र के नौ पाठ प्रतिदिन करें- "अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलम् । शङ्खपालं धृतराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा ॥ एतानि नव नामानि नागानां च महात्मनाम्। सायङ्काले पठेन्नित्यं प्रातःकाले विशेषतः ॥" भावों के अनुसार कालसर्प योग के निवारण के अन्य उपाय... १- प्रथम भाव - गले में हमेशा चाँदी का चौकोर टुकड़ा धारण करें। २- द्वितीय भाव - घरके उत्तर-पश्चिम कोण में सफाई कर मिट्टी के बर्तन में पानी भर दें। प्रतिदिन पानी बदलें। बदले हुए पानी को चौराहे में डालें। ३- तृतीय भाव - अपने जन्मदिनपर गुड़, गेहूँ एवं ताँबे का दान करें। ४- चतुर्थभाव - प्रतिदिन बहते हुए जल में दूध बहायें। ५- पंचम भाव - घर के ईशानकोण में सफेद हाथी की मूर्ति रखें। ६- षष्ठभाव - प्रत्येक माह की पंचमी तिथि को एक नारियल बहते हुए जल में प्रवाहित करें। ७- सप्तमभाव-मिट्टी के बर्तन में दूध भरकर निर्जन स्थान में रख आयें। ८-अष्टमभाव-प्रतिदिन काली गाय को गुड़, रोटी, काले तिल एवं उड़द खिलायें। ९- नवमभाव - शिवरात्रि के दिन १८ नारियल सूर्योदय से सूर्यास्त तक १८ मन्दिरों में रखें। यदि १८ मन्दिर पास में न हों तो दुबारा उसी क्रम से मन्दिरों में दान कर सकते हैं। १०- दशमभाव - किसी महत्त्वपूर्ण कार्य को घरसे जाते समय काली उड़द के दाने सि रसे सात बार घुमाकर बिखेर दें। ११- एकादशभाव - प्रत्येक बुधवार को घर की सफाई कर कचरा बाहर फेंक दें। उस दिन फटा वस्त्र पहनें। १२-द्वादशभाव—प्रत्येक अमावास्या को काले कपड़े में काला तिल, दूध में भीगे जौ, नारियल एवं कोयला बाँधकर जल में बहायें। शिवपंचाक्षरमन्त्र एवं शिवपंचाक्षरस्तोत्र का नियमित जप करने एवं कालसर्पयन्त्रके नियमित पूजन, शिवलिंग तथा चित्र पर चन्दन का इत्र लगाने से शान्ति प्राप्त होती है। लगातार ४५ दिन का अनुष्ठान निश्चित शान्ति देता है। अनुष्ठान के समय अथवा मन्त्रजप के दौरान केवल इत्र एवं कपूर का प्रयोग ही करें। अगरबत्ती के धुएँ एवं दीप से नागोंको गर्माहट मिलती है, जिससे वे क्रोधित होते हैं, अतः इन वस्तुओंका उपयोग न करें। नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्माङ्गरागाय महेश्वराय । नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै नकाराय नमः शिवाय ॥१॥ मन्दाकिनीसलिलचन्दनचर्चिताय नन्दीश्वरप्रमथनाथमहेश्वराय । मन्दारपुष्पबहुपुष्पसुपूजिताय तस्मै मकाराय नमः शिवाय ॥२॥ शिवाय गौरीवदनाब्जबृंदा सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय । श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय तस्मै शिकाराय नमः शिवाय ॥३॥ वशिष्ठकुम्भोद्भवगौतमार्य मूनीन्द्र देवार्चिता शेखराय । चन्द्रार्कवैश्वानरलोचनाय तस्मै वकाराय नमः शिवाय ॥४॥ यज्ञस्वरूपाय जटाधराय पिनाकहस्ताय सनातनाय । दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै यकाराय नमः शिवाय ॥५॥ पञ्चाक्षरमिदं पुण्यं यः पठेच्छिवसंनिधौ । शिवलोकमावाप्नोति शिवेन सह मोदते ॥ शिवकृपा से कुछ भी अप्राप्य नहीं है। माँ नर्मदा का नाम- जप करते हुए शिवलिंग पर नर्मदाजल की निरन्तर धार छोड़ते हुए निम्न मन्त्र का जप करने से कालसर्पदोष, पितृदोष, शापित कुण्डली के दोषका पूर्णत: शमन सम्भव हो जाता है- "नर्मदायै नमः प्रातर्नर्मदायै नमो निशि । नमोऽस्तु नर्मदे तुभ्यं त्राहि मां विषसर्पतः ॥"



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