क्रियाशील ब्रह्म

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  • मिस्टिक ज्ञान
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  • 31 October 2024
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  श्री सुशील जालान-   Mystic Power-*    कठोपनिषद् कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा के अन्तर्गत एक प्रसिद्ध उपनिषद् है। कठोपनिषद् के दो अध्यायों की तीन-तीन वल्लियों में वाजश्रवा के पुत्र नचिकेता और यम के बीच हुए संवाद का उपाख्यान है। यमराज नचिकेता से प्रसन्न होकर उसे आत्मा से संबंधित विद्या/ज्ञान प्रदान करते हैं।   कठोपनिषद (1.3.14) - #उत्तिष्ठजाग्रतःप्राप्यवरान्निबोधत"                                     *  इस श्रुति का साधारण अर्थ है, उठो, जागो और प्राप्त करने योग्य वरों का बोध करो। विशिष्ट अर्थ है अन्तर्दृष्टि जगाने के लिए प्रेरित करना, अनन्त में स्थित अनेक दिव्य मणियों, सिद्धियों के बोध के लिए। *  एकमात्र ब्रह्म ही है जो अनन्त है, अनादि है और अगणित दिव्य मणियों,‌ सिद्धियों का मंजूषा है। इस श्रुति में उस ब्रह्म के क्रियात्मक स्वरूप का वर्णन किया गया है।   *  उत्तिष्ठ,  अर्थात्,  उत् + तिष्ठ,   -  उत्,  है ऊपर एकवचन और, -  तिष्ठ,  है स्थित होना।   -  अर्थ हुआ, ऊपर एक में स्थित होना। "उ" मह-तत्त्व/महर्लोक का वाचक भी है।   *  जाग्रत:, अर्थात्, ज + अग्र + त:,   -  "ज",  है जनर्लोक, -  "अग्र",  है सबसे आगे, -  "त",  है एकवचन, और -  (:) विसर्ग,  है कर्मवाचक।   -  अर्थ हुआ, जनर्लोक एक ही सबसे आगे है कर्म करने के लिए, क्रियाशील ब्रह्म के लिए, ब्रह्म की विशिष्ट शक्तियों को, दिव्य मणियों और सिद्धियों को प्रकट करने के लिए।   *  "उत्तिष्ठ जाग्रत:" का अर्थ हुआ,   -  ऊर्ध्व लोकों में, महर्लोक और जनर्लोक, जो सबमें आगे है, एकमात्र क्रियाशील है, उसमें स्थित हो।   *  प्राप्य,   -  अर्थ है प्राप्त करने योग्य, अर्थात् वह जो उपलब्ध है और धारण किया जा सकता है।   *  वरान्,   -  "व",  कूट बीज वर्ण है भवसागर या भावसमूह या भावना का, स्वाधिष्ठान चक्र में, -  "र",   द्योतक है मणिपुर चक्र का जहाँ सभी सिद्धियाँ-मणियाँ संग्रहित हैं। -  "वरान्",   द्वितीया विभक्ति में बहुवचन का पद है, एक वर से बहु कर्म के संदर्भ में।   -  अर्थ हुआ, एक भावना/भवसागर में अनन्त दिव्य सिद्धियाँ, मणियाँ संग्रहित हैं, जिन्हें क्रियाशील किया जा सकता है।   *  "निबोधत", अर्थात्, न् + इ + बोध + त,   -  "न्"/बिन्दु,  अनन्त का द्योतक है, -  "इ",  कामना का, -  "बोध",  पराज्ञान होने का, और -  "त",  एकवचन का।   -  अर्थ हुआ, बिन्दु में, अनन्त में, स्थित उस एक पराशक्ति का बोध करने का संकल्प करो।   ✓✓  इस श्रुति का अर्थ हुआ -   -  वह एक बिन्दु ही है जो मह-जन लोक में आगे के भाग में स्थित है, जिसमें एक भावना विशेष से ही सभी दिव्य सिद्धियों, मणियों को क्रियाशील किया जा सकता है, उस पराशक्ति का बोध करो, जिसका ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।   -  ब्रह्मविद्या के अन्तर्गत यही है ब्रह्म के क्रियात्मक स्वरूप का वर्णन जिसके अंतर्गत चैतन्य आत्मा उस एक "पराशक्ति" को धारण करता है, अनेक दिव्य सिद्धियों व मणियों के उपयोग के लिए।



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