महामण्डलेश्वर स्वामी सहजानन्द गिरिजी महाराज- मेरूदण्ड के दोनो छोर के दो अन्तिम चक्र क्रमश: मुलाधार-चक्र व सहस्त्रार-चक्र तथा ह्रदय स्थित अनाहत-चक्र यह तीनो चक्र कुण्डलिनी-शक्ति जागरण में अतिमहत्वपूर्ण क्रियात्मक भूमिका निभाने वाले चक्र हैं इसीलिए इन तीनों चक्रो को महाचक्र भी कहा गया है, इन तीनो महाचक्रो का ॐकार से घनिष्ट सम्बन्ध होता है, ॐकार का उपर का भाग सहस्त्रार-चक्र के रूपमें मध्य भाग अनाहत-चक्र के रूप में व नीचे का भाग मूलाधार-चक्र के रूप में भी माना जाता है, इसमें उपर ‘अ’ की स्थिति होती है मध्य में ‘ओम्’ की स्थिति होती है तथा नीचे तल में ‘म’ की स्थिति होती है, इस प्रकार पुरा मेरूदण्ड ॐकार से युक्त माना जाता है।
इनमें मुलाधार-चक्र की तत्वबीज ध्वनि ‘लं’ अनाहत-चक्र की तत्वबीज ध्वनि ‘यं’ तथा सहस्त्रार-चक्र के समस्त सहस्त्र दलो पर ‘अं’ से लेकर ‘क्षं’ पर्यंत सभी स्वर तथा वर्ण विद्यमान होते हैं, तथा यही स्वर व वर्ण इसकी ध्वनियां मानी जाती हैं, इन तीनो महाचक्रो की अपनी अलग-अलग ध्वनियां तो हैं ही परन्तु इन तीनो महाचक्रो की ध्वनियां नाभिचक्र अर्थात मणिपूरक-चक्र पर आपस मे मिलकर एक विशिष्ट ध्वनि का रूप धारण कर लेती हैं जिसे योगतन्त्र में ‘परावाक्’ के रूप मे सम्बोधित किया गया है, ‘परावाक्’ ही पराशक्ति का प्रमुख आवाहक है, ‘परावाक्’ के विशिष्ट ध्वनि प्रभाव में ही कुण्डलिनी उर्जा-शक्ति सुगमता से उर्ध्वगति करती है। ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:
Comments are not available.