मानस ब्रह्म यज्ञ

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  • 31 October 2024
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डॉ. दीनदयाल मणि त्रिपाठी (प्रबंध संपादक)- निराकार से साकार कुछ लोगों का कहना है कि निर्गुण, निराकार, निर्विकार परब्रह्म परमात्मा साकार नहीं हो सकता। यद्यपि इस विषय पर समाजियों एवं सनातनियों के अनेक बार शास्त्रार्थं हो चुके हैं, उनके शास्त्रार्थों में युक्तियों की प्रधानता थी और वेदमन्त्रों से ईश्वर का साकार होना सिद्ध करने की बात का प्राधान्य था, परन्तु आजकल कभी अपने को वेदान्ती कहने वाले लोग भी अवतार के अस्तित्व का अपलाप करने लगते हैं। उनका कहना है कि “ईश्वरो नावतरति, व्यापकत्वात्, आकाशवत्” अर्थात् ईश्वर अवतार नहीं लेता, क्योंकि वह व्यापक है, जैसे आकाश, इस अनुमान से ईश्वर का अवतार बाधित हो जाता है। इस पर कहा जा सकता है कि इस अनुमान का दृष्टान्त ही असिद्ध है, क्योंकि आकाश भी वायुरूप में अवतीर्ण होता है। वायु, तेज, जलादि क्रमेण पृथ्वी रूप से भी उसी का अवतरण होता है। यदि कहा जाय कि यह तो वेदान्तियों के मतानुसार हुआ, परन्तु तेयायिकों के मत से क्या उतर है? तो यह कहना पड़ेगा कि व्यापकत्व हेतु अनैकान्तिक है, क्योंकि व्यापकत्व नैयायिकों के आत्मा में रह जाता है, परन्तु वहाँ अवतरण होता है। साकार होना ही अवतार पदार्थ है। जब नैयायिकों के व्यापक आत्मा देहवान् हो जाते हैं, तब परमात्मा देहवान् क्यों नहीं हो सकता? इस पर यदि कहा जाय कि आत्मा के कर्म होता है, परन्तु परमात्मा के कर्म नहीं होता, तो इसका उत्तर यह है कि विश्व के उत्पादन-पालनादि कर्म ईश्वर के भी होते ही हैं। फिर भी शंका हो सकती है कि देहारम्भ-प्रयोजक कर्म ईश्वर के नहीं हैं। किन्तु इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि कौन कर्म देहारम्भक है, कौन भोगारम्भक है, यह बात शास्त्रैकगम्य है। फल-वैचित्र्य से हेतु-वैचित्र्य का अनुमान हो सकता है, परन्तु किस कर्म से कौन फल होता है, इसका निर्णय अनुमान से नहीं होता। जब जीवों के जन्मारम्भक कर्मों को जानने के लिये शास्त्रों के प्रामाण्य की अपेक्षा है, जब शास्त्र प्रामाण्य मान्य है, तब तो फिर प्राणि-कल्याणार्थ अचिन्त्य, दिव्य लीलाशक्ति से ही प्रभु का दिव्य जन्म कर्म हो ही सकता है। इस पर किसी का कहना है कि मधुसूदन स्वामी ने माना है कि अवतार नहीं होता, किन्तु भक्त की भावना से ही विधुरपरिभावित-कामिनी-साक्षात्कार के समान कृष्ण आदि का स्वरूप दिखलायी पड़ता है। परन्तु यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि-   “अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्। प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया।।”   इस ‘गीता’ के मूल वचन से अज, अव्यय ईश्वर का माया के द्वारा जन्म सिद्ध होता है और मधुसूदन भी-   “वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात् पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात्। पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात् कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने।।” इस तरह श्रीकृष्ण के विषय में अपना अभिप्राय प्रकट कर रहे हैं। जहाँ भी कहीं आचाय्यो ने भगवान के स्वरूप का वर्णन किया है, वहाँ यही कहा है कि भगवान वस्तुतः अज, सर्वंभूतान्तरात्मा होते हुए भी अपनी दिव्यलीला-शक्ति से देहवान् होकर प्रस्फुरित होते हैं। जैसे घृतवत्र्तिका के सम्बन्ध से निराकार अग्नि ही दाहकत्व, प्रकाशकत्वविशिष्ट दीपशिखा के रूप में अभिव्यक्त होता है, वैसे ही निराकार भगवान लीलाशक्ति के सम्बन्ध से साकार होकर प्रतीत होते हैं। जैसे घृत-वर्त्तिकादि तटस्थ रहकर ही दीपशिखा का कारण बनते हैं, दीपशिखा के भीतर, बाहर शुद्ध अग्नि ही है, वैसे ही लीलाशक्ति तटस्थ ही रहती है, भगवान के स्वरूप में भीतर, बाहर शुद्ध चिदानन्द ही है, किंवा जैसे निर्मल जल ही बर्फ के रूप में शैत्य-सम्बन्ध से प्रकट होता है, वैसे ही अचिन्त्य, विशुद्ध सत्य के सम्बन्ध से सच्चिदानन्द ब्रह्म साकार हो जाता है। जिस तरह सच्चिदानन्द ब्रह्म ही अनिर्वचनीय माया के आध्यासिक सम्बन्ध से नाम-रूप-क्रियात्मक प्रपंचरूप से प्रकट होता है, उसी तरह विशुद्ध सत्त्व के आध्यासिक सम्बन्ध से ब्रह्म साकार देहधारी हो जाता है। कम-से-कम आकाशादि प्रपंच के समान तो अवश्य ही साकार ब्रह्म का अस्तित्व कट्टर से कट्टर वेदान्ती को मान ही लेना चाहिये। वैसे तो बाध्यत्व, गिथ्यात्व, अबाध्यत्व, सत्यत्व को लेकर चलें, तो शुक्ति-रूप्य आदि की अपेक्षा अबाध्य घटादि कार्यों का सत्यत्व है, मृत्तिका में अबाध्यत्व होने से सत्यत्व है। इसी तरह अपर जल, तेज, वायु, आकाश आदि में कार्य की अपेक्षा कारण में सत्यत्व और कारण की अपेक्षा कार्य में मिथ्यात्व होता है। इस दृष्टि से पारमार्थिक सत्तापेक्षया किंचिन्न्यूनसत्ताकत्व ही उस दिव्य शक्ति का व्यावहारिकत्व है। तथाच ब्रह्म में पारमार्थिक दृष्टि से अजायमानता रहने पर भी व्यावहारिक दृष्टि से जायमानता हो सकती है।   समान सतावाले भाव-अभाव का ही विरोध होता है, विषम सत्तावाले भाव-अभाव का विरोध नहीं होता, अतएव वे दोनों एक जगह भी रह सकते हैं। इसीलिये एक शुक्तिका में व्यावहारिक सत्ता से रूप्य का अभाव और प्रातिभासिक सत्ता से रूप्य का भाव रहने में कोई भी विरोध नहीं है। इसी दृष्टि से परमात्मा में पारमार्थिक सत्ता से जन्माभाव दृष्टि से जन्म का भाव रहने में भी कोई आपत्ति नहीं हो सकती। इस-पर कहा जा सकता है कि दृष्टि-सृष्टिवार की दृष्टि से अवतार कथमपि नहीं सिद्ध होता। परन्तु यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि दृष्टि-सृष्टिवाद में भी आकाशादि प्रपंच का सत्त्व है। कम-से-कम साकार ब्रह्म का उतना ही अस्तित्व तो मानना ही होगा। सर्वव्यापि विधुरपरिभावितकामिनी-साक्षात्कार से कृष्ण-साक्षात्कार विलक्षण है। जब विधुरपरि-भावितकामिनी-साक्षात्कार की अपेक्षा कामिनी का साक्षात्कार विलक्षण है, फिर कृष्ण-साक्षात्कार विलक्षण क्यों नहीं? सारांश यह कि किसी भी दृष्टि से व्यवहार का उपपादन करना पड़ता है। “व्याघातावधिराशंका” लोकव्याघात ही शंका की अवधि है। प्रपंच के स्वरूप निषेध-पक्ष में भी श्रवण, मनन, साक्षात्कार आदि चीजों का उपपादन करना पड़ता है। फिर जब उन वस्तुओं का उपपादन करना है, तब तो अवतार का उपपादन ठीक ही है। फिर ‘दृष्टिसृष्टिवाद में अवतार नहीं बनता’ यह कथन ही व्यर्थ है। जब उस पक्ष में आकाशादि प्रपंच ही नहीं बनता, तब अवतार नहीं बनता, यह विशेषोक्ति व्यर्थ है। यदि किसी दृष्टि से जीव, जगत्, ईश्वर ही न बनता हो, तो उस पक्ष में अवतार भी न बने तो कोई दोष नहीं है। विचार तो ईश्वर के अवतार का है, जो ईश्वर ही नहीं सिद्ध करता, वह अवतार क्यों मानेगा? वस्तुतः “बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रहरिष्यति” (अल्पश्रुत से वेद डरता है कि मुझ पर प्रहार करेगा) शास्त्रों के भिन्न-भिन्न वादों का आचार्य-परम्परा से बिना अध्ययन किये उनका अभिप्राय नहीं लगता। प्राणी शास्त्र-वचनों से ही अपना अनर्थ कर बैठना है। कुछ लोग-   “मायाख्यायाः कामधेनोर्जीवेशौ वत्सकावुभौ। यथेच्छं पिबतां द्वैतं तत्त्वं त्वद्वैतमेव हि।।”   माया नाम की कामधेनु के जीव, ईश्वरों दोनों बछड़े हैं। यथेच्छ द्वैत को ही पीयें, तत्त्व तो अद्वैत ही है। इन वचनों को पढ़कर उपासना की तिलांजलि दे बैठते हैं। कोई:जीव-कल्पित ईश्वर है’ वाचस्पति के इस मत को देखकर ईश्वर की खिल्ली उड़ाने लगते हैं। सीधी बात तो यह है कि कांचन-कामिनी या रोटी-दाल को तो सच्चा मानकर प्राणी उनमें आसक्त है, परन्तु भगवान् के मिथ्यात्व का ही आग्रह उसे कल्याणकारक मालूम पड़ता है। वस्तुतः ‘रामायण’ के राम, ‘भागवत’ के कृष्ण, ‘विष्णुपुराण’ के विष्णु, ‘शिव, स्कन्द पुराणादि’ के शिव केवल आभास नहीं है, किन्तु अधिष्ठानभूत ब्रह्म ही इन स्थलों में विष्णु आदि नामों से कहा गया है। जहाँ माया में आभास ईश्वर, अविद्या में चैतन्य का आभास जीव, यह पक्ष माना गया है, उस पक्ष में भी केवल आभास ईश्वर आदि नहीं है, किन्तु अधिष्ठानसहित ही आभास ईश्वरादिरूप में मान्य है। भागवतादि में अधिष्ठानप्रधान ब्रह्मरूप को ही कृष्ण, राम माना गया है। अतएव “एकस्त्वमात्मा पुरुषः पुराणः सत्यः स्वयंज्योतिरनन्त आद्यः” इत्यादि वचनों से भगवान् को पुराणपुरुषोत्तम, सत्य, स्वर्यंज्योति कहा गया है। ‘रामायण’ में राम को माया का आश्रय और विषय दोनों ही कहा गया है। यही स्थिति ‘विष्णुपुराण’, ‘शिवपुराण’ के शिव, विष्णु आदि स्वरूपों की है। ‘श्रीभागवत’ में भगवान् के स्वरूपों को मायातीत, अनन्त सच्चिदानन्द रूप कहा गया है-   “सत्यज्ञानानन्तानन्दैकरसमूर्तयः। अस्पृष्टभूरिमाहात्म्या अपि ह्यपनिषद्दृशाम्।।” श्रीशंकराचार्य भी कहते हैं कि जिसने ब्रह्मा को अद्भुत, अनन्त ब्रह्माण्ड दिखलाया और वत्सों सहित गोपों को अनेक विष्णुरूप में दिखलाया, शम्भु ने जिनके चरणावनेजन को अपने शिर पर रखा, वह कृष्ण मूर्तित्रयातीत कोई अविकृत चिदानन्दघन ही हैं-   “ब्रह्माण्डानि बहूनि पंकजभवान् प्रत्यण्डमत्यद्भुतान्। गोपान् वत्सयुतानदर्शयदजं विष्णुनशेषांश्च यः।। शम्भुर्यच्चरणोदकं स्वशिरसा धत्ते च मूर्तित्रयात्। कृष्णो वै पृथगस्ति कोऽप्यविकृतः सच्चिन्मयो नीलिमा।।”   निराकार से साकार महात्मा तुलसीदास भी कहते हैं-व्यापक, निरंजन, निर्विकार परमात्मा ही कौशल्या की गोद में रामचन्द्र होकर प्रकट होते हैं-   “ब्यापक ब्रह्म निरंजन, निर्गुण बिगत बिनोद। सो अज प्रेम भगति बस, कौसल्या के गोद।।” अघासुर के मुख में कृष्ण-प्रवेश को ‘भागवत’ ने शुद्ध सच्चिदानन्द ब्रह्म का ही प्रवेश माना है। बछड़ों और ग्वाल-बालों के अघासुर के मुख में समाविष्ट होने पर कृपामय भगवान आनन्दकन्द कृष्णचन्द्र भी उसके मुख में प्रविष्ट हुए। प्रभु ने जिस समय अपनी महिमा से अघासुर को मार दिया, अमृतवर्षिणी कृपादृष्टि से ग्वाल-बालों को जिलाया, उसी समय अघासुर के शरीर से एक ज्योति निकली और कृष्ण के स्वरूप में प्रविष्ट हो गयी। यह सुनकर परीक्षित् को आश्चर्य हुआ कि गो-ब्राह्मण-मांस-रुधिराशी अघासुर को ऐसी दुर्लभ गति क्यों और कैसे मिली? इस पर शुक्रा-चार्य भगवान बोले-   “सकृद्यदंगप्रतिमान्तराहितां मनोमयीं भागवतीं ददौ गतिम्। स एव नित्यात्मसुखानुभूत्यभिव्युदस्तमायोऽन्तर्गतो हि किं पुनः।।” अर्थात जिनके श्रीअंग की मंगलमयी मानसी प्रतिमा को सौभाग्यशाली लोग एक बार भी हृदय में रखकर भागवती गति को पा जाते हैं, फिर माया से अर्सस्पृष्ट, नित्य, चिदानन्दात्मा वह भगवान ही जिसके अन्दर प्रविष्ट हो गये, फिर उसे भागवती गति प्राप्त कर लेने में क्या आश्चर्य है? अतएव प्रभु के प्रादुर्भाव का प्रयोजन भी धर्मग्लानि-अधर्मभ्युत्थाननिवृत्तिपूर्वक धर्मस्थापन, साधुपरित्राण, दुष्कृति-विनाश के अतिरिक्त अमलात्मा परमहंसों को भक्तियोग विधान करना है। प्रकृति-प्राकृत-प्रपंचतीत, शुद्ध परब्रह्म कृष्ण ही दिव्य लीलाशक्ति के योग से सगुण, सच्चिदानन्दरूप में प्रकट होकर योगोन्द्र, मनीन्द्रों के निर्मल मनों को आकर्षित करते हैं। प्रकृति या प्राकृतप्रपंच उन सत्यानृत-विवेकी अमलात्मा परमहंसों का मन नहीं खींच सकते, अतएव उनका भजनीय शुद्ध ब्रह्म ही है   भेद इतना ही है कि जैसे इक्षुरस का ही परिणाम सिता, शर्करा, कन्द की मिठास इक्षुरस से विलक्षण होती है, वैसे ही शुद्ध सच्चिदानन्द से तत्त्वतः अपृथक् होने पर भी भगवान का सगुण स्वरूप अद्भुत चमत्कारपूर्ण होता है। जैसे इक्षुदण्ड में दैवात् मीठा फल लग जाय या चन्दन-वृक्ष में मनोहर पूष्प लग जाय, वैसे ही परमानन्द-रसगुण निर्गुण ब्रह्म में सगुण, साकार ब्रह्म का होना है। यही तो कारण है कि निर्गुण ब्रह्मानुभवी जनकादिकों का चित्त भी रामचन्द्र के सगुण, साकार स्वरूप पर मुग्ध हो गया था-   “इनहिं विलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहिं मन त्यागा।। सहज विरागरूप् मन मोरा। थकित होत जिमि चन्द्र-चकोरा।।” जैसे केवल नेत्र से सूर्य-दर्शन की अपेक्षा दूरवोक्षण यन्त्रोपहित नेत्र के सूर्य-दर्शन में चमत्कार होता है, वैसे ही केवल निर्मल अन्तःकरण से ब्रह्म देखने की अपेक्षा पवित्र अन्तःकरण से लीलाशक्ति द्वारा साकार रूप में प्रकट भगवान के दर्शन में विलक्षणता होती है। निरुपाधिक स्वरूप निरतिशय है, इसमें भी कोई बाधा नहीं। यद्यपि अन्याय प्रपंच भी ब्रह्मका ही परिणाम या विवर्त्त है, तथापि वह तामसी, राजसी प्रकृति-रजस्तमोलेशानुविद्ध सत्वात्मिका प्रकृति से आवृत रहता है। भगवत्स्वरूप विशुद्ध सत्वात्मिका योगमाया या दिव्य लीलाशक्ति से साकार रूप में प्रकट ब्रह्म निरावरण ही रहता है। जैसे दूरवीक्षणादि नेत्र और सूर्य के मध्य में रहकर सूर्य-स्वरूप-दर्शन में सहायक होता है, अन्य पाषाणादि सूर्य-दर्शन का प्रतिबन्धक हो जाता है, वैसे ही दिव्य लीलाशक्ति परमात्म-स्वरूप-दर्शन में सहायक होती है, अन्य राजसी, तामसी शक्तियाँ प्रतिबन्धक होती हैं। कोई लोग तो प्रकृति से पृथक् ही भगवान की अन्तरंगा शक्ति मानते हैं, कोई महाशक्ति के अन्तर्गत होने पर भी उसे दिव्य मानते हैं। जैसे गुलाब के बीज में कण्टक, पत्र, नाल, स्कन्धादि की उत्पादिनी शक्ति से सौन्दर्य-माधुर्य-सौरस्य-सौगन्ध्य-सम्पन्न फूल के उत्पन्न करने की शक्ति विलक्षण होती है, वैसे ही प्रपंचोत्पादिनी अन्याय शक्तियों की अपेक्षा सगुण, साकार भगवान के प्राकटयानुकूला लीलाशक्ति में चमत्कारपूर्ण विलक्षणता रहती है। सारांश यह है कि शुद्ध परब्रह्म ही निराकार रूप से ही सगुण, साकार रूप में प्रकट होते हैं। तभी उनको भाव, कुभाव, अनख, आलस किसी तरह से भी भजने से प्राणियों की सद्गति हो जाती है। इसीलिये कहा है-   “नृणां निःश्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतः प्रभो। अव्ययस्याप्रमेयस्य निर्गुणस्य गुणात्मनः।।” अर्थात् प्राणिमात्र के कल्याणार्थ अव्यय, अप्रमेय, निर्गुण, गुणान्तरात्मा भगवान् का साकार स्वरूप में प्राकटय होता है। इस स्वरूप में काम, क्रोध, स्नेह, किसी तरह भी चित्त लगाने से प्राणी का कल्याण हो जाता है-   “कामं क्रोधं भयं स्नेहमैक्यं सौहृदमेव च। नित्यं हरौ विदधतो यान्ति तम्यतां हि ते।।” ठीक ही है, जैसे कोई चिन्तामणि को दीपक समझकर उसे लेने चले, तो भी वहाँ दीपक नहीं, किन्तु चिन्तामणि की मिलेगी, वैसे परात्पर, पूर्णतम, पुरुषोत्तम, शुद्ध सच्चिदानन्द परब्रह्म को कोई जार समझकर, कोई शत्रु, मित्र, कुछ भी समझ-कर प्रवृत्त हों, परन्तु वहाँ मिलेगा शुद्ध परब्रह्म परमात्मा ही, प्राकृत वस्तु की प्राप्ति नहीं होगी। अतएव कुछ व्रजांगनाएँ जारबुद्धि से भी कृष्ण को भजकर मुक्त हो गयीं-   “तमेव परमात्मानं जारबुद्धघाऽपि संगताः। जहुर्गुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः।।” पति, भ्राता आदि से अवरुद्ध होने के कारण कुछ व्रजांगनाएँ मदनमोहन के वेणुनाद से आकर्षित होने पर वृन्दावनचन्द्र कृष्णचन्द्र के पास न जा सकीं। वे कृष्ण की भावना से भावित-मनस्का होकर, आँख मींचकर वहीं ध्यान करने लगीं। प्रिय-तम कृष्ण के दुःसह विरहजन्य तीव्रताप से उनके अशुभ कर्म विघूत हो उठे और ध्यानप्राप्त अच्युत के आश्लेष (परिरम्भण)-जन्य आनन्दोद्रेक से सम्पूर्ण शुभ कर्मों का भी फल समाप्त हो गया। अथवा उनके दुःसह, प्रेष्ठ-विरहजन्य तीव्रताप से विश्व के ही अशुभ कर्म काँप उठे और ध्यानप्राप्त अच्युत के आश्लेष से संसार के सम्पूर्ण मंगल अपने को कम जानकर दुर्बल हो गये। इस तरह सद्यःप्रक्षीणबन्धना होकर जारबुद्धि से भी उन्हीं परमात्मा को प्राप्त होकर वह व्रजांगनाएँ गुणमय पंचकोशों या तीनों देहों से मुक्त हो गयीं। भावुकों ने तो इस सगुण स्वरूप के चिन्तन को सरल, सुगम, श्यामीभूत ब्रह्म ही बतलाया है। अद्वैतसिद्धिकार का ही कहना है कि जो लोग निर्गुण, निराकार, निर्विकार ब्रह्म की उपासना, ध्यानाभ्यासवशीकृत मन से, करते हैं, वे करें, पर मेरे तो लोचन-चमत्कार के लिये वही तत्व प्रस्फुरित हो, जो कालिन्दी-पुलिन में श्यामतेज रहता है-   “ध्यानाभ्यासवशीकृतेन मनसातन्निर्गुणं निष्क्रियम्। ज्योतिःकिंचन योगिनो यदिपरं पश्यन्ति पश्यन्तु ते।। अस्माकन्तु तदेव लोचनचमत्काराय भूयाच्चिरं कालिन्दीपुलिनेषु यत्किमपि तन्नीलं महो धावति।।” किन्हीं भावुकों ने व्रजांगनाओं के पुंजीभूत प्रेम को ही कृष्ण माना है, किन्हीं ने यदुओं के मर्तीभूत भागधेय को ही कृष्ण माना है, श्रोत्रियों ने श्रुतियों के गुप्त वित्त को ही श्यामीभूत ब्रह्म कृष्ण माना है- “पुंजीभूतं प्रेम गोपांगनानां मूर्तीभूतं भागधेयं यदूनाम्। एकीभूतं गुप्तवित्त श्रुतीनां श्यामीभूतं ब्रह्म मे सन्निधत्ताम्।।” किसी का कहना है कि पूर्णानुरागरससार-सरोवरसमुद्भूत पंकज श्रीकृष्ण है, किसी ने कहा, नहीं, सच्चिदानन्दरससार-सरोवर से ही इस कृष्ण-कुवलय का प्राकटय हुआ है। वह ऐसा कुवलय है कि भृगों (भक्तमनोमिलिन्दों) ने अभी तक उसका आघ्राण किया ही नहीं। चाहे ऐसा कह लें कि यद्यपि वे अनादि काल से ही उस कृष्ण के सौन्दर्य-कुवलयमधु का पान कर रहे हैं, तथापि उन्हें प्रतिदिन, प्रतिक्षण उसमें नवीनता का ही स्फुरण होता है अर्थात् प्रतिक्षण ही उसमें नवीनता का ही भान होता रहता है -“तस्याङघ्रियुगं नवं नवम्” इसी तरह कवीन्द्ररूप अनिलों ने अभी तक इरा कुवलय के यशःसौरभ का अपहरण नहीं किया अर्थात् उन्हें भी नवीनता ही की स्फूर्ति होती है। ऊर्मीकण भरों से-सांसारिक षडूर्मियों से-यह कुवलय आहत नहीं हुआ। इतना ही क्यों, आज तक किसी ने इसे देखा भी नहीं है- “अनाघ्रतं भृग्ङैरनपहृतसौगन्ध्यमनिलैः, अनुत्पन्नं नीरेष्वनुपहतमूर्तीकणभरैः। अदृष्टं केनापि क्वचन च चिदानन्दसरसो यशोदायाः क्रोडे कुवलयमिवौजस्तद्भवत्।।” देवती ने मुक्त मुनीन्द्रों का अन्वेष्टव्य एक अद्भुत फल उत्पन्न किया, व्रजेन्द्र-गेहिनी नन्दरानी ने उसे पाला, श्रीव्रजसीमन्तियों ने उस फल का अनुभव किया-   “मुक्तमुनीनां मृग्यं किमपि फलं देवती फलति। तत्पालयति यशोदा प्रकाममुपभुंजते गोप्यः।।” सच्चिदानन्द परब्रह्म का सगुण, साकार रूप होता है, यह ‘केनोपनिषद्’ में भी प्रसिद्ध है। देवासुर-संग्राम में परमेश्वर के अनुग्रह से देवताओं को जय मिली, परन्तु देवताओं ने समझा कि हमारे ही परिश्रम का यह फल हुआ। भगवान ने समझ लिया कि यदि उन्हें भी गर्व हुआ तो असुरों से इन देवतओं में अन्तर ही क्या रह जायगा?   “असुषु प्राणोपलक्षितेषु अनात्मसु रमन्ते ये ते असुराः, अथवा अशोभने अनात्मनि रमन्ते ये ते असुराः।।” अर्थात अशोभन अनात्मा में रमण करने-वाले असुर कहलाते हैं। भगवान् यह सोचकर परम प्रकाशमय सगुण, साकार, दिव्य रूप में प्रकट हुए। उस स्वरूप को देखते ही देवता घबड़ाये और ‘सपक्ष का है या विपक्ष का’ यह जानने के लिये अग्नि, वायु और इन्द्र को भेजा। अग्नि, वायु उस परमात्मा के सामने एक तृण भी उठाने एवं जलाने में समर्थ न हुए। दोनों देवताओं के लौटने पर इन्द्र गये। इन्द्र को आते देखते ही वह प्रभु अन्तर्हित हो गये। इन्द्र लज्जित होकर वहीं उस स्वरूप की जिज्ञासा से तप करने लगे। बहुत दिनों के तप से भगवती उमा (ब्रह्मविद्या) प्रकट हुई और उन्होंने ब्रह्म का परिचय कराया। ब्रह्मज्ञानी होने से ही देवतओं में अग्नि, वायु, इन्द्र प्रधान हैं। उनमें भी इन्द्र ने पहले ब्रह्म का परिचय प्राप्त किया, अतः वही श्रेष्ठ माने गये हैं। “ब्रह्म ह देवेभ्यो विजिग्ये” इत्यादि श्रुतियों में यह बातें स्पष्ट हैं। ‘छान्दोग्य’ में भी सूर्यमण्डलान्तर्गत एक हिरण्मय, हिरण्यश्मश्रु, तेजोमय परम पुरुष का वर्णन आता है। वह भी सच्चिदानन्द ब्रह्म का ही सगुण, साकार रूप है। यह बात उत्तरमीमांसा के “अन्त-स्तद्धर्मोपदेशात्” इस सूत्र में भी स्पष्ट है। आचार्य श्रीशंकर भगवान् कहते हैं कि परमात्मा का माया (विशुद्ध सत्त्व) के योग से विग्रह बन सकता है। यद्यपि वह भूतगुणों-शब्दादि से युक्त प्रतीत होता है, तथापि वह शुद्ध सच्चिदानन्द ब्रह्म ही है। शब्दादिमत्ता की प्रतीति उसमें भ्रान्ति ही है। ‘कैवल्योपनिषद्’ में “उमासहायं परमेश्वरं विभुं” इस वचन से भी उमा-महेश्वर का स्वरूप वर्णित है। “अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विच्चक्रमे। पृथिव्याः सप्तधामभिः” इस मन्त्र में बतलाया गया है कि विष्णु गायत्र्यादि सप्त छन्दों द्वारा देश पर विविध क्रमण-चरण-विन्यास करते हैं। “इद विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्। समूढ़मस्य पांसुरे”। इस मन्त्र से ज्ञात होता है कि त्रिविक्रमावतारधारी ने इस प्रतीयमान विश्व को अपने चरणों से आक्रान्त किया है, अपने चरण से तीन प्रकार से पाद-विन्यास किया है। इन विष्णु के धूलियुक्त पादस्थान में सम्पूर्ण विश्व अन्तर्भूत होता है।   “त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्” इसमें भी कहा गया है कि किसी के द्वारा जिसकी हिंसा नहीं हो सकती, उस सर्वजगत् के रक्षक विष्णु ने अग्निहोत्रादि कर्मों का पोषण करते हुए पृथिव्यादि स्थानों में अपने तीन पदों से क्रमण किया। इस तरह अनेक श्रुतियों में परमात्मा के सगुण साकार रूप का वर्णन है। “प्रजापतिश्वरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा विजायते। तस्य योनिं परिपश्यन्ति धीरास्तस्मिन्ह तस्थुर्भुवनानि विश्वा” यहाँ भी कहा है कि प्रजा-पति गर्भ के भीतर आता है, वह स्वरूप से अज होकर भी अनेक रूपों से प्रकट होता है, उसके प्राकटय का धर्मरक्षणादि प्रयोजन धीरे लोग जानते हैं। “या ते रुद्र शिवा तनूरघोरा पापकाशिनी। तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि।।” “नीलग्रीवाः शितिकण्ठाः” इत्यादि अनेक स्थानों में परमेश्वर का ही नीलकण्ठ महा-देवरूप में वर्णन मिलता है।   ‘एषो ह देवः प्रदिशोऽनुसर्वाः पूर्वो ह जातः स उ गर्भे अन्तः। स एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ् जनस्तिष्ठति सर्वतोमुखः।।” इस मन्त्र में कहा गया है कि यही ईश्वर सब दिशाओं में व्याप्त होकर, पहले गर्भ में रहकर प्रकट हुआ, वही सर्वतोमुख परमेश्वर पहले अनेक रूप से उत्पन्न हुआ है और आगे भी उत्पन्न होगा।   “अजोऽपि अन्नव्ययात्मा भूतानामोश्वरोऽपि सत्। प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया।।” इस श्लोक पर निम्नलिखित अभिप्राय केशव काश्मीरी का है-‘यद्यपि में अज है अर्थात् जीवों के समान कर्मनिमित्त अपूर्व देह-ग्रहण नहीं करता, अव्ययात्मा=पूर्वदेहवियोग-रहित हूँ, तथापि अपनी प्रकृति (स्वभाव)–असंगत्व, अजेयत्व, अनतिक्रमणीयत्वादि को न छोड़कर ही अपनी माया-संकल्प से लोकहितार्थ जन्म लेता हूँ।’ इस व्याख्यान में ‘प्रकृति’ का अर्थ स्वभाव और “माया तु वयुनं ज्ञानम्” इस ‘विघण्टु’-वचन से ‘माया’ का अर्थ ज्ञान लिया गया है। अजायमानो बहुधा विजायते’ इस श्रुति से भी यही सिद्ध किया गया है। “आनन्दरूपममृतं यद्विभाति”, “आदित्यवर्ण तमसः परस्तात्”, “हिरण्यकेशः हिरण्यश्मश्रुः आप्रणखाग्रात् सुवर्णः” इत्यादि श्रुतियों से भगवान् का सगुण स्वरूप मालूम पड़ता है। “यो वेत्ति भौतिकं देहं कृष्णस्य परमात्मनः। मुखं तस्यावलोक्याऽपि सचैलं स्नानमाचरेत्।। स सर्वस्माद्वहिष्कार्यः श्रौतस्मार्तविधानतः।” “न भूतसंघसंस्थानो देहोऽस्य परमात्मनः।” “अस्यापि देववपुषो मदनुग्रहस्य स्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्य कोऽपि” इत्यादि ‘भारत’, ‘भागवत’ आदि के वचनों से भी भगवान् के स्वरूप को अभौतिक कहा गया है, भौतिक मानने वाले को पात की बतलाया गया है। मधुसूदन जी कहते हैं कि सर्वज्ञ ईश्वर को धर्माधर्म ने होने से उनका जन्म नहीं बन सकता। नये देहेन्द्रियादि का ग्रहण जन्म और पूर्वगृहीत का वियोग मृत्यु कहलाता है। यह दोनों ही बातें अज, अव्यय परमात्मा में सम्भव नहीं है। यदि ईश्वर का शरीर स्थूल भूतकार्य हो या व्यष्टिरूप हो, तो जाग्रदवस्थाभिमानी जीवों के तुल्य ही ईश्वर भी होगा। समष्टिरूप हो तो विराट जीवरूप होगा। यदि सूक्ष्मभूत का कार्य है, या व्यष्टिरूप है, तो स्वप्नावस्थाभिमानी होगा और यदि समष्टिरूप हो, तो हिरण्यगर्भ है। परमेश्वर का भौतिक स्वरूप जीवाविष्ट हो हो नहीं सकता। कुछ लोग कहते हैं कि जीवाविष्ट शरीर में ही ‘भूतावेशन्याय’ से ईश्वर का प्रवेश होता है। परन्तु, यह ठीक नहीं, क्योंकि यदि इस शरीर में जीव को ही सुख-दुःखादि भोग होता है, ईश्वर को नहीं, तब तो अन्तर्यामीरूप से सर्वत्र ही परमेश्वर का प्रवेश सिद्ध है, फिर ऐसा शरीर-विशेष स्वीकार करना व्यर्थ ही है। यदि उस शरीर में जीव का भोग नहीं बनता, तब तो उसे जीव शरीर भी नहीं कहा जा सकता, अतः ईश्वर का भौतिक शरीर कथमपि नहीं बन सकता। इन्हीं बातों का निराकरण करते हुए भगवान् कहते हैं कि ‘मैं अज और अव्यय होता हुआ भी, ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्त समस्त प्राणियों का ईश्वर होकर भी, अपनी विचित्र शक्तिवाली अघटितघटनापटीयसी उपाधिभूत माया को अपने चिदाभास से वशीभूत करके माया के परिणाम विशेषों से ही देहवान् के समान उत्पन्न-सा प्रतीत होता हूँ। अनादि माया ही यावत्कालस्थायी होने से नित्य कहलाती है। वही मुझमें जगत्कारणता-सम्पादन करती है। वह मेरी इच्छा से ही प्रवर्तमान होकर विशुद्ध सत्त्वमयी मेरी मूर्ति कहलाती है। उस मूर्ति से विशिष्ट मुझमें अजत्य, अव्ययत्व, ईश्वरत्व उत्पन्न हो जाता है।’ अतएव श्रुति कहती है-“आकाशशरीरं ब्रह्म” आकाश अर्थात् माया ही भगवान का शरीर है। यहाँ शंका हो सकती है कि भौतिक शरीर न होने पर भगवान में मनुष्यत्वादि-प्रतीत कैसे होगा? इसका समाधान यह है कि आत्ममाया (भगवान की माया) से ही लोकनुग्रह के लिये भगवान में मनुष्यत्वादि-प्रतीति होती है। यही बात ‘मोक्षधर्म’ में लिखी है-   “माया ह्येषा मया सृष्टा यन्मां पश्यसि नारद। सर्वभूतगुणैर्युक्तं न तु मां द्रष्टुमहंसि।।” “नैतत्त्वयेति विज्ञेयं रूपवानिति दृश्यते। इच्छन्मुहूत्तन्निश्येयमीशोऽहं जगतः प्रभुः।।” अर्थात् हे नारद! मुझ कारणोपाधि परमेश्वर को जो भूतगुण-शब्दाहि से युक्त देख रहे हो, यह मेरी माया ही है। मुझ कारणोपाधि केा कोई चर्मचक्षु से नहीं देख सकता। कुछ लोग परमेश्वर में देहि-देहि-भाव ही नहीं मानते। उनका कहना है कि सच्चिदानन्दघन, निर्गुण, परिपूर्ण परमात्मा ही भगवान का देह है। भगवान से पृथक् भौतिक या मायिक उनका कोई भी विग्रह नहीं है। “आकाशवत्सर्वगतश्च नित्यः”, “अविनाशी वा अरेऽयमात्मा अनुच्छित्तिधर्मा” इत्यादि श्रुतियों और “असम्भवस्तु सतोऽनुपपत्तेर्नात्माऽश्रुतेर्नित्यत्वाच्च ताभ्यः” इत्यादि सूत्रों से यही विदित होता है कि वस्तुतः भगवान जन्म-विनाशरहित, सर्वभासक, सर्वकारण, माया का अधिष्ठान होने से सर्वभूतों के ईश्वर होकर अपने एकरस, सच्चिदानन्दघन स्वभाव में ही अवस्थित रहकर देह-दहिभाव के बिना ही देहिवत् व्यवहरण करते हैं। अदेह सच्चिदानन्दघन में देह की प्रतीति कैसे होती है? इसका उत्तर “आत्ममायया” से ही दे दिया है। निर्गुण, शुद्धरस, देहदेहिभावशून्य भगवान में देहरूप से प्रतीति माया मात्र है। यही ‘श्रीमद्भागवत’ में भी-   “कृष्णमेनमवेहित्वमात्मानमखिलात्मनाम्। जगद्धिताय सोऽप्यत्र देहीवाभाति मायया।।” “अहो भाग्यमहो भाग्यं नन्दगोपव्रजौकसाम्। यन्मित्रं परमानन्दं पूर्ण ब्रह्म सनातनम्।।” इत्यादि वचनों से यह स्पष्ट कहा गया है कि सम्पूर्ण प्राणियों के अन्तरात्मा श्रीकृष्ण ही हैं, वे ही अपनी माया से जगत के हित के लिये देहवान् से प्रतीत होते हैं। नन्दगोपव्रजवासियों का लोकोत्तर सौभाग्य था कि पूर्ण सच्चिदानन्दघन उनका मित्र होकर प्रकट हुआ था।



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