मांसाहार निर्णय

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  • मिस्टिक ज्ञान
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  • 31 October 2024
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श्री  शिवांश नारायण द्विवेदी Mystic Power - यह सृष्टि तीन गुणों से व्याप्त है सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण और जिस व्यक्ति के जीवन में सतोगुणी कार्य जितने अधिक होते हैं वह व्यक्ति ईश्वर के उतना ही समीप होता है। मनुस्मृति 12:37 के अनुसार छिपाने के स्तर से भी किसी कर्म के गुण को पहचाना जा सकता है, जिस कर्म को भय अथवा विवशता से छिपाने का भाव आए, वह कर्म "तमोगुणी' होता है। जिस कार्य को अर्थ के लालच से छिपाने का भाव आए वह कर्म रजोगुणी* होता है और जिस कर्म को करने से करने वाले के मन में यह भाव आए कि इसे सब को बताना चाहिए वह कर्म सतोगुणी होता है, और वह कर्म ईश्वर के लिए ही होता है। इसीलिए एक गुरु का पद सर्वोच्च होता है, क्योंकि एक गुरु प्राप्त ज्ञान को किसी को बता कर अपना जीवन यापन करता है। मनुस्मृति 1:88 व 10:74-76

  

ज्ञान देने का कार्य ब्राह्मण का है। 

अब जैसा कि हम जानते हैं कि ब्राह्मण को ज्ञान देने का कार्यभार सौंपा गया है अतः मनुस्मृति अध्याय 2 179,180 और अध्याय 4 3,4,45,46* के द्वारा इस तथ्य की पुष्टि और अधिक हो जाती है क्योंकि यहां बताया गया है कि एक ब्राह्मण को नग्न होकर नहाना नहीं चाहिए, ब्राह्मण को किसी की निंदा नहीं करनी चाहिए और ना ही प्राण रक्षा के निमित्त से अधिक धन संचय करना चाहिए, वैसे तो इन शिक्षाओं के कई और भी कारण हैं मगर एक अभिप्राय यह भी है कि कि नग्न होकर नहाना, धन संचय करना या निंदा करना, ऐसे कार्यों को छिपाने का भाव मन में स्वतः ही उत्पन्न होता है। 

*मनुस्मृति अध्याय 5.13,14, 25, 26, 27, 21, 22, 23, 24, 31, 32, 37, 38 अध्याय 11 95, 96 ऋग्वेद 7:5:5 10:87:2 10:87:16 

उपरोक्त ब्लोकों में मांसाहार का विरोध किया गया है। अतः तमोगुण कर्म में छिपने के भाव वाले तथ्य को भोजन के माध्यम से भी समझा जा सकता है। "मांसाहार तमोगुणी भोजन माना जाता है एवं मनुस्मृति आदि सभी शास्त्रों द्वारा सनातन धर्म में इसे निम्न कहते हुए त्यागने के लिए कहा गया है। वैसे तो इसके भी कई कारण है मगर एक कारण यह भी है की उसे प्राप्त करने की प्रक्रिया को लोगों से छिपाकर क्रियान्चित किया जाता है और यदि विषम परिस्थितियों में विवशता पूर्ण मांसाहार करना अनिवार्य हो तो भी उसे यज्ञ अथवा पूजन के माध्यम से शास्त्र विधि का आलंबन लेते हुए अमुक अमुक देवताओं को अर्पित कर के ही ग्रहण करने की अनुमति दी गई है 

इसी क्रम में "मनुस्मृति अध्याय 11 145 146 के अनुसार कसाई द्वारा प्राप्त मांस खाने पर प्रतिबंध लगाया गया है. बाल्मीकि रामायण 2.75:38 जानवरों का मांस बेचकर अपने घर का भरण पोषण करने वाले कसाई को पापी एवं नर्क गामी कहा गया है, यहां ध्यान रखने योग्य बिंदु है की जब यज्ञ किया जाता है तो उसे किसी से छिपाया नहीं जाता और बह सार्वजनिक रूप से होता है, अतः यह एक प्रयास होता है विवशता में उपयोग किए जाने पर भी "तमोगुणी भोजन को *सतोगुणी मार्ग से प्राप्त करने का। देखा जाए तो "तथाकथित शांतिप्रिय मजहब में भी भोजन के संबंध में शाकाहार और मांसाहार के बीच असमानता स्पष्टदिखाई देती है। 

जहां एक ओर शाकाहार के उपयोग के लिए कोई विशेष विचि नहीं बताई गई वहिं दूसरी ओर जानवरों को (एक विशेष पंक्ति को पढ़कर) नीति सम्मत बनाकर ही खाने की अनुमति दी गई है, जिससे स्पष्ट होता है कि जानवरों को मनुष्यों द्वारा खाने के लिए नहीं बनाया गया बल्कि विषम परिस्थिति में विशेष विधि के द्वारा ही उसे अभक्ष्य से भक्ष्य बनाया जाता है। इसके साथ ही साथ इस्लाम में रमजान के महीने को ही सबसे पवित्र माना गया है जिन दिनों महजबीं व्यक्तियों द्वारा मांस भक्षण तो क्या स्त्रीसंग एवं भोजन भी निषेध होता है अर्थात वहां भी पवित्र महीना वही माना गया है जिन दिनों व्यक्ति अप्रत्यक्ष रूप से सन्यासी बनकर ही जीवन व्यतीत करता है, अर्थात उसके जीवन में भी उस समय छुपाने वाले कार्यों की संख्या सबसे अल्प हो जाती है। परंतु प्रमाणिक गुरु के अभाव में इस प्रकार के रहस्य ना सुलझ पाने की स्थिति में इस्लाम में जानवरों को हलाल करके खाने के कारण को स्पष्ट ना करते हुए इस ज्ञान को भी अपूर्ण ही छोड़ दिया गया है जिस कारण केवल विषम परिस्थितियों के लिए ही अनुमत जानवरों के मांस को मनुष्य अधिकार समझकर अपने स्वाद की तृप्ति हेतु निसंकोच खाने के लिए स्वतंत्र है। 

ऐसा नहीं है कि सनातन धर्म ग्रंथों में मांसाहार का अर्थ प्रकट कर सकने वाले श्लोक नहीं है परंतु उन श्लोक का उद्देश्य विषम परिस्थितियों में प्राण की रक्षा के निमित्त अथवा प्रवृत्ति से निवृत्ति हेतु किया गया है। 

इसी क्रम में अधिकांश तथा भगवान शिव का आलंबन लेते हुए अघोरी पूजा पद्धति की आड़ में मांसाहार को नैतिक सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है, परंतु अघोरी पूजा पद्धति के आधार पर भी मांसाहार करने वाला व्यक्ति निम्न ही सिद्ध होता है 1 

यह प्रकरण कुछ इस प्रकार है जब दक्ष के यज्ञ में शिव जी का अपमान हुआ तो नंदीकेश्वर ने दक्ष के समर्थन में खड़े हुए सभी ब्राह्मणों आदि को श्राप दिया कि वह अवेदिक होकर वेद विरुद्ध मार्ग पर चलेंगे इस पर भृगु जी ने भी शिव गणों को श्राप दिया कि शिव की भक्ति करने वाले भी मदिरा मांस आदि के सेवन को श्रेष्ठ मानेंगे तथा कपाल लेकर घूमेंगे इस प्रकार वह अवैदिक मार्ग पर चलने लगेंगे। इस प्रकार शापित होकर वेद विरुद्ध मार्ग पर जाने वाले लोगों की मुक्ति हेतु उन्हें वैदिक मार्ग पर वापस लाने के निमित्त कापालिकों के लिए अवैदिक वामाचारी आगम शास्त्रों की रचना की जिससे कि समय समय श्राप के द्वारा प्राप्त अवैदिक गुणों में रहकर भी उनके द्वारा भगवत नाम का स्मरण किया जा सके एवं भक्ति से प्राप्त होने वाली अनुकंपा के कारण वह पुनः वैदिक मार्ग पर वापस आ सके तथा अंततः परम गति को प्राप्त कर सकें। 

इस प्रयोजन से बनाए गए आगम शास्त्र कापालिक नकुला वाम भैरव पंचरात्र पाशुपत तथा अन्य कई नामों से जाने जाएंगे। अतः इस प्रकरण को आक्षेप के समर्थन में दिए गए संदर्भों के ही आगे और पीछे पढ़कर समझा जा सकता है। 

भागवत पुराण 4:2:20-29 राजा दक्ष के यज्ञ की कहानी वराह पुराण 70:30:26-47 राजा दक्ष के यज्ञ की कहानी कूर्म पुराण 30:32-34 के अनुसार आदि शंकराचार्य जी के अवतार का सकारात्मक समर्थन करते हुए उन्हें वेदोक्त धर्म का मार्ग प्रशस्त करने वाला कहा गया है ना कि वेदों के विरुद्ध मार्ग दिखाने वाला कहा गया है। कूर्म पुराण 1:16:109-119 शापित लोगों के उद्धार की व्यवस्था कूर्म पुराण पूर्व भाग 28:25-29 

आगम शास्त्रों की रचना देवी भागवत 7:39:18-30 आगम शास्त्रों की रचना देवी भागवत 7.39.28-33 के अनुसार दक्ष के यज्ञ में शापितों के उद्धार हेतु रौव वैष्णव सौर शाक्त तथा गाणपत्य आगमों (नारद प्रचारात्र गर्ग सहिता ब्रह्मा सहिता आदि वैष्णव के आगम शास्त्र ही हैं) की रचना की गई है। यह शास्त्र कापाललिक अघोर भैरव आदि नामों से जाने जाते हैं उनमें कहीं कहीं वेद से विरुद्ध अंश भी है। वेद से भिन्न अर्थ को स्वीकार करने के लिए द्विज सर्वथा आनाधिकारी है। 

अतएव वैदिक पुरुष सभी प्रकार से प्रयत्न करके वेद का ही आश्रय ले यही शाश्वत धर्म है।सारांश यह है कि सनातन धर्म में मांसाहार को निषेध करते हुए विषम परिस्थितियों में अथवा प्रवृत्ति से निवृत्ति के निमित्त विशेष वीडियो का आलंबन लेकर मांसाहार करने की अनुमति मात्र दी गई है, एवं किसी भी परिस्थिति में मांसाहार को स्वीकार करने वाले को सर्वप्रथम नीच इसी क्रम में शास्त्रीय विधिरहित मांसाहार को निषिद्ध कहा गया है। परंतु प्रमाणिक आचार्य से दूरी के चलते साधारण जनमानस शास्त्रों द्वारा दी गई अनुमति को अधिकार समझते हैं अथवा दी गई रियायत को हक समझते हैं इसी संशय के कारण भटकते हुए अपने मनुष्य जीवन उपलब्धता को प्राप्त नहीं कर पाते क्योंकि भगवत गीता 4-40 संदेह, संशय, दुविधा या द्वंद्व में जीने वाले लोग न तो इस लोक में सुख पाते हैं और न ही परलोक में। उनका जीवन निर्णयहीन, दिशाहीन और भटकाव से भरा रहता है। 

परंतु सनातन शास्त्रों में इस सबसे कठिन समस्या का अंत सुगम समाधान भी दिया गया है * अद्वय तारका उपनिषद 16 एवं स्कंद पुराण (गुरु गीता 33) *गुरु" शब्द में *गु" का अर्थ है अंधकार और रू" का अर्थ है निकालने वाला अर्थात अंधकार रूपी अज्ञानता से निकालने वाला ही गुरु कहलाता है"। *स्कंद पुराण (गुरु गीता 184) क्योंकि शास्त्र, युक्ति (तर्क) और अनुभूति से गुरु। एक सर्व संशयों का छेदन करते हैं। इसीलिए स्कंद पुराण में कहा गया है। स्कंद पुराण (गुरु गीता 19 20 21) *वेद शास्त्र "पुराण आदि मंत्र यंत्र मोहन उच्चाटन आदि विद्या शेव शाक्त और अन्य सभी मत मतांतर, यह सभी बातें गुरु तत्व को जाने में बिना भ्रांत चित्त वालों का पच भ्रष्ट करने वाली है? और "गुरु के बिना जब तप व्रत तीर्थ दान यज्ञ यह सब व्यर्थ हो जाते हैं। * स्कंद पुराण (गुरु गीता 98)* मनुष्य चाहे चारों वेद पढ़ ले, वेदों के छ: अंग पढ़ ले, आध्यात्म शास्त्र आदि सभी शास्त्र पढ़ ले, फिर भी गुरु के बिना ज्ञान नहीं मिलता।इसी क्रम में शास्त्रों द्वारा बिना सोचे समझे किसी को भी गुरु मानने पर भी प्रतिबंध लगाया गया है। 

न वन्दनीयास्ते कष्टं दर्शनाद् भ्रान्तिकारकः । वर्जयेतान् गुरुन् दूरे धीरानेव समाश्रयेत् || 

जो गुरु अपने दर्शन से (दिखावे से) शिष्य को भ्रान्ति में डालता है ऐसे गुरु को प्रणाम नहीं करना चाहिए। इतना ही नहीं दूर से ही उसका त्याग करना चाहिए। ऐसी स्थिति में धैर्यवान् गुरु का ही आश्रय लेना चाहिए। स्कंद पुराण गुरु गीता 164 

निषिद्धगुरुशिष्यस्तु दुष्टसंकल्पदूषितः । ब्रह्मप्रलयपर्यन्तं न पुनर्याति मृत्यताम् ॥ निषिद्ध गुरु का शिष्य दुष्ट संकल्पों से दूषित होने के कारण ब्रह्मप्रलय तक मनुष्य नहीं होता, पशुयोनि में ही रहता है। 

स्कंद पुराण गुरु गीता 174 

एवं बहुविधालोके गुरवः सन्ति पार्वति । तेषु सर्वप्रत्नेन सेव्यो हि परमो गुरुः ।।

 हे पर्वती। इस प्रकार संसार में अनेक प्रकार के गुरु होते हैं। इन सबमें एक परम गुरु (प्रमाणिक गुरु) का ही सेवन सर्व प्रयत्नों से करना चाहिए। इस प्रकार गुरु तत्व की महत्व और उपयोगिता बताते हुए शास्त्रों में गुरु की प्रमाणिकता के परिमाप की व्याख्या भी स्पष्ट रूप से दी गई है 

*गुरु की प्रमाणिकता छान्दोग्य उपनिषद 6:14:2 व 4:9:3+ मुण्डको अनिषद 1:2:12 + शतपथ ब्राह्मण 11:5:6+ भगवद्गीता 3:16, 4:2 परंपरा प्राप्त आचार्य द्वारा दिया जाने वाला ज्ञान ही प्रमाणिक होता है 

अतएव स्वध्यन ना करके परंपरा से प्रमाणिक आचार्य की शरण लेना ही परमार्थकारी है। सारा विश्व "Marksheet Degree Certificate Chain of narration* आदि के रूप में सनातन समाज द्वारा दी गई इस शिक्षा का अनुसरण करता है क्योंकि उपरोक्त सभी प्रमाण पत्र शिक्षा के स्त्रोत के नामरूप में व्यक्ति के गुरु का नाम हीबताते हैं यंहा ध्यातव्य है कि यह शिक्षा किसी भी अन्य मजहबी अथवा अब्राह्मिक किताबों में नहीं दी गई है, जिस कारण इन समाजों की दिशाहीनता के स्तर को तो हम भली-भांति जानते हैं। *प्रमाणिक गुरु के लक्षण अथर्व वेद 11:7:16 + मनुस्मृति 12:112-114 ब्रह्मचारी (सन्यासी) ही आचार्य बनता है। मत्स्य पुराण 145:52 जो धर्म श्रुतियों (वेद उपनिषद आदि) और स्मृतियों ('पुराण रामायण महाभारत) आदि द्वारा प्रतिपादित वर्णाश्रम के आचार से युक्त तथा शिष्टाचार द्वारा परिवर्तित होता है वही साधु सम्मत धर्म कहलाता है। अर्थात गुरु वह होना चाहिए जो समस्त प्रमाणिक श्रुति स्मृति शास्त्र में सामंजस्य की शिक्षा देता हो। और इसी प्रकार शास्त्रों द्वारा बताए गए लक्षणों से युक्त जो आचार्य शास्त्र और युक्ति के आधार पर शरणागत शिष्य के संशय को नष्ट करते हुए शिष्य के जीवन से अज्ञानता रूपी अंधकार को समाप्त कर दे उसी को गुरु की उपाधि प्राप्त हो सकती है। 

सभी धर्मक्ष महानुभावों से निवेदन है कि बह स्कंद पुराण (गुरु गीता 101) इसलिए सब प्रकार के प्रयासों से अनासक्त होकर शास्त्र के माया जाल को छोड़कर गुरुदेव की शरण लेनी चाहिए।    



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