पण्डित भद्रशील शर्मा
mystic power - मन्त्र -द्वारा इष्ट-देवता की उपासना करना मन्त्र-विद्या है। वह मन्त्र गुरुदेव से मिलता है। प्रारम्भ में मन्त्र-विद्या की प्राप्ति सदा शिव से हमारे पूर्वज ऋषियों ने की थी। उन्हीं से वह परम्परागत प्राप्त होती रही है। आज भी मन्त्र-शास्त्रियों के पास वह विद्या उसी क्रम से ज्ञात है। उन्हीं से भविष्य में भी प्राप्त होती रहेगी। यही क्रम है। अतएव मन्त्र-साधक को अपने इष्ट-देवता का मन्त्र किसी विशिष्ट साधक से ही प्राप्त करना चाहिए।
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जिसने सविधि गुरु-मुख से मन्त-विद्या प्राप्त की है तथा जिसके पूर्णाभिषेक तक के सारे संस्कार हो चुके हों, वही व्यक्ति मन्त्र देने का अधिकार रखता है, परन्तु आज की परिस्थिति बहुत बिगड़ गई है। कितने ही लोग पुस्तकों से मन्त्र जानकर मन्त्र-साधना करते दिखाई देते हैं, कितने ही लोग स्वयं किसी अधिकारी गुरु से मन्त्र न प्राप्त कर दूसरों की मन्त्र देते रहते हैं। ऐसे भी गुरु हैं, जो दीक्षित भर होते हैं अर्थात् गुरु मन्त्र का उपदेश मात्र प्राप्त कर मन्त्र-दाता बन बैठते हैं। ये तीनों ही गुरु तथा साधक अनधिकारी। हैं और इनकी की हुई सारी मान्त्रिक साधना फल-प्रद नहीं होती।
इसी से कहा गया है कि गुरु खोज कर बनाना चाहिए । जिस व्यक्ति ने शास्त्र-विधि के अनुसार मन्त्र-दीक्षा पाई हो तथा जिसने उसका पूर्ण साधन भी किया हो और जिसने एक-एक करके पूर्णाभिषेक तक के सारे संस्कार कराये हों, ऐसे ही श्रेष्ठ व्यक्ति से मन्त-दीक्षा लेनी चाहिये । बाज ऐसे मन्त्र-दाता गुरुओं का, पैसा समझा जाता है, वैसा अभाव नहीं है। जो भी बाई, ऐसे श्रेष्ठ गुरुजों से मन्द-दोक्षा प्राप्त कर सकता अभाव है तो सद्ग शिष्यों का।
आज के शिष्य मन्त्र को लेना चाहते हैं, परन्तु साधना करने के परिश्रम से दूर रहना चाहते हैं। इसी से वे लोलुपता-वश उसी गुरु को अपना गुरु बना लेना अच्छा समझते हैं, जो जल्दी-से-जल्दी मन्त्र का उपदेश कर उन्हें अपना शिष्य बना ले। साथ हो उनको दुःखों और कष्टों से उनको रक्षा करने का वचन भी दे दे। ऐसे भावुक शिष्यों के लिये उनकी रुचि के अनुसार जगह-जगह मन्त्र देनेवाले गुरु बैठे मिल जाते हैं, परन्तु यह प्रणाली मन्त्र-शास्त्र से अनुमोदित नहीं है और शास्त्र-विधि की उपेक्षा करना लाभप्रद नहीं है।
यही कारण है कि ऐसे गुरुओं और शिष्यों से आज मन्त्र-विद्या का उपहास हो रहा है; परन्तु मन्त्र-विद्या का महत्व किसी प्रकार के निन्दा-बाद से घट नहीं सकता। उसका ज्ञान प्राप्त करने के लिए श्रद्धा और विश्वास की जरूरत है और उससे भी अधिक जरूरत है सद्-गुरु से सविधि उसे प्राप्त करने को।
विधि की व्यवस्था आचार्य लोगों को अवगत है। कान फूंकने को दीक्षा नहीं कहते । उसको विस्तृत विधि है, जिसके द्वारा मन्त्र प्राप्त करके ही मन्त्र-साधना में सफलता प्राप्त होती है, अन्यथा नहीं। जहाँ सद्-गरु से सविधि मन्त्र लेने का विधान है, वहीं यह भी है कि कब और किस समय मर ग्रहण करना चाहिये। इसके लिए हम यहाँ एक छोटी-सी सारिणो देते हैं
दीक्षा के लिये महीनों में क्षेत्र और मलमास वर्जित हैं। दूसरे महीनों में शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष दोनों ही में दीक्षा ली जा सकती है। वैसे शुक्ल पक्ष उत्तम है। इसी प्रकार तिथियों में द्वितीया, तृतीया, पञ्चमी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी और पूर्णिमा।
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